आजादी आंदोलन – दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार और हिंदी पत्रकारिता

व्याख्यान

– ऋषभदेव शर्मा

सबसे पहले तो आपको इस अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के लिए इतना प्रासंगिक और विचारोत्तेजक विषय चुनने के लिए साधुवाद। इस विषय के स्पष्टतः तीन आयाम हैं। पहला आयाम है ‘आजादी आंदोलन’। दूसरा ‘दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार’। और तीसरा ‘दक्षिण भारत में हिंदी पत्रकारिता’।
मेरा विचार है कि ‘आजादी आंदोलन’ शब्द-युग्म बहुत सोच-समझ कर बनाया गया है। इसी प्रकार का प्रयोग है- ‘आजादी का अमृत महोत्सव’। जब हम ‘अमृत महोत्सव’ जैसे तत्सम शब्द-युग्म का प्रयोग कर रहे हैं तो ‘स्वतंत्रता’ का प्रयोग न करके ‘आजादी’ को रखा गया है। इस मिश्रित शब्द-चयन की जड़ आजादी की लड़ाई के साथ-साथ विकसित हुए हिंदी आंदोलन के इतिहास में है। भाषा, पत्रकारिता, समाज और राजनीति के तत्कालीन चिंतकों ने यह महसूस किया कि अखिल भारतीय व सार्वदेशिक संपर्क की भाषा से लेकर स्वाधीनता संग्राम की राष्ट्रभाषा तक के रूप में हिंदी की स्वीकार्यता तभी संभव है, जबकि वह संस्कृतनिष्ठ और अरबी-फारसीनिष्ठ होने के आग्रह से मुक्त रहे। इसीलिए भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर महात्मा गांधी और प्रेमचंद तक ने जन-प्रचलित हिंदी के मध्यमार्ग को चुना। बाद में भारतीय संविधान में अनुच्छेद 351 के तहत इसे ही भारत करे सामासिक संस्कृति के अनुरूप सब भाषाओं से शब्द और अभिव्यक्तियाँ लेते हुए इस तरह विकसित करने की बात कही गई कि हिंदी की प्रकृति सुरक्षित रहे। तो, मेरी समझ में ‘आजादी आंदोलन’ पद हिंदी प्रचार आंदोलन की इसी सर्वसमावेशी दृष्टि का प्रतीक है। इसी दृष्टि का परिणाम है कि हम ‘अमृत महोत्सव’ जैसा एक सांस्कृतिक या संस्कृतनिष्ठ पद लेकर आते हैं और उसके साथ ‘आजादी’ जोड़ते हैं। समन्वय की इस चेतना की आज बड़ी जरूरत है, क्योंकि कई तरह के शुद्धतावादी जड़ आग्रह परिवेश को प्रदूषित करने की कोशिश कर रहे हैं। इसीलिए मैं कहना चाहूँगा कि ‘आजादी आंदोलन’ शब्द-युग्म वास्तव में इस देश की बहुलतावादी और समन्वयवादी संस्कृति को प्रतिबिंबित करता है। जो हमारी सांस्कृतिक पुष्ट परंपरा है और जो दैशिक अथवा देशज परंपरा है, उन दोनों को परस्पर जोड़कर इस राष्ट्र की सामासिक संस्कृति का निर्माण होता है। हमारी सामासिक संस्कृति की विशेषता है कि उसमें किसी प्रकार की हठधर्मिता और शुद्धतावाद के लिए जगह नहीं। बल्कि एक-दूसरे को ग्रहण करने की भावना, सर्वग्राह्यता या ग्राहकता अंतर्निहित है। भारतीय संस्कृति की जो ग्राहकता, समन्वयशीलता और मिश्रणशीलता है, वह आजादी जैसे उर्दू या अरबी-फारसी मूल से आए शब्द और आंदोलन जैसे संस्कृत परंपरा से आए शब्द, इन दोनों, के गले मिलने से तैयार होती है।
यही वह हिंदुस्तानी परंपरा है जो हमें यह बताती है कि ‘आजादी आंदोलन’ हमारे ‘नवजागरण आंदोलन’ का विस्तार है। नवजागरण आंदोलन को राजा राममोहन राय या आर्य समाज या ब्रह्म समाज या नारायण गुरु या रवींद्रनाथ या भारतेंदु हरिश्चंद्र या गुरजाड़ा अप्पाराव से लेकर सुब्रह्मण्य भारती तक ने अपने-अपने ढंग से नेतृत्व प्रदान किया। वह एक प्रकार से इस देश को जड़ रूढ़ियों से मुक्त करने का आंदोलन था। सोए हुए राष्ट्रीय-सांस्कृतिक गौरव को जगाने का आंदोलन था। स्वाभिमान जागने पर गुलामी की बेड़ियों से मुक्त होने की चेतना तो बाद में आई। पहले तो हमारी जो सामाजिक रूढ़ियाँ थीं, जड़ रूढ़ियाँ थीं, जो अशिक्षा के कारण या कहें मध्यकालीन चेतना के परलोकवाद, पुनर्जन्मवाद इत्यादि के हमारे मानस पर हावी होने के कारण हमारी गुलामी का मूल कारण बनी हुईं थीं, उन बेड़ियों को तोड़ने और काटने का काम नवजागरण आंदोलन कर रहा था। उस नवजागरण आंदोलन के बीचोंबीच 1857 का हमारा प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष उपस्थित होता है। इसके बाद कंपनी के हाथ से विक्टोरिया के हाथ में भारत की बागडोर चली जाती है और उपनिवेशवाद या औपनिवेशिक शासन अपना नंगा नाच दिखाना शुरू करता है। तो हमारा ‘आजादी आंदोलन’ आगे चलकर औपनिवेशिक शासन के विरोध के लिए उठ खड़ा होता है। इसीलिए आजादी आंदोलन के एक पक्ष को मैं नवजागरण आंदोलन के विस्तार के रूप मे आपके सामने रखना चाहता हूँ। साथ ही यह कि औपनिवेशिक शासन और औपनिवेशिक मानसिकता के विरोध की चेतना जगाने में स्वभाषा और पत्रकारिता आंदोलन ने भी केंद्रीय भूमिका निभाई। हमारे आजादी आंदोलन का सबसे बड़ा श्रेय यही है कि हमारे देश को हमारे इस आंदोलन ने ‘भयमुक्त’ कर दिया। हमारे पास दुनिया की सबसे विराट औपनिवेशिक सत्ता से टकराने के लिए गोला-बारूद नहीं था। गोला-बारूद की ताकत पर लड़ते, तो इतिहास कुछ और होता। ठीक है, वैसे भी लड़े हैं। लेकिन गोला-बारूद से ज्यादा महत्वपूर्ण था, हमारा सिर उठाकर खड़े होना। जब कोई गुलाम सिर उठाकर खड़ा होता है किसी मालिक के सामनेय उसकी आँखों मे आँखें डालकर बात करता है तो सामने वाला क्रोध में, अपमान में, प्रतिहिंसा में तिलमिला उठता है। आपको कुछ करने की जरूरत नहीं! सबसे बड़ी चीज यही है कि कोई जेलेंस्की किसी पुतिन के सामने आँख दिखाकर खड़ा हो जाए। दुनिया भर में यही होता है हमेशा। आक्रमणकारी हों, उपनिवेशवादी हों, साम्राज्यवादी हों-वे सारी ताकतें जिस एक बात से क्रोध में आती हैं, वह है आपका स्वाभिमान। तो, हमारे आजादी आंदोलन ने इस देश के आबाल-वृद्ध-नर-नारी को भयमुक्त कर दिया। एक वैदिक उद्घोष है ‘यतेमहि स्वराजये’। अर्थात हम स्वराज के लिए सदा यत्न करें। यह एक प्रतिज्ञा नवजागरण के आंदोलन से आगे बढ़कर आजादी के आंदोलन ने इस देश के प्रत्येक नागरिक के मन में प्रतिष्ठित कर दी। स्वतंत्रता की इस चेतना को गांधीजी या उनसे पहले तिलक ने इस देश की नसों में प्रवाहित किया। उनसे भी पहले हिंदी नवजागरण की हम बात करें या दूसरे प्रांतों के जागरण की बात करेंय बंगाल से लेकर के केरल और तमिलनाडु तक सर्वत्र स्वदेशी, स्वराज्य और स्वभाषा- इन तीन ‘स्व’ की चेतना को नवजागरण आंदोलन ने पूरी तरह से जगा दिया था। यह काम उस समय का साहित्य और उस समय की पत्रकारिता कर रही थी।
अब थोड़ी चर्चा ‘दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार’ की। दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार की क्या आवश्यकता थी, इस प्रश्न का उत्तर भी आजादी आंदोलन के इतिहास में ही छिपा है। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के असफल होने (या कुचल दिए जाने) के कारणों में एक बड़ा कारण ‘संप्रेषण की कमी’ था। क्योंकि हम अलग-अलग भाषाओं में अपने-अपने क्षेत्रों में तो आंदोलन का संचालन कर रहे थे, लेकिन सारे देश का- सारे प्रांतों का जो कोआॅर्डिनेशन होना चाहिए था, उस समन्वय की कमी के कारण, संप्रेषण की कमजोरी के कारण, हमारा प्रथम स्वतंत्रता संग्राम असफल हुआ। अन्य कारण और भी हैं। लेकिन यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि पूरे देश में चिंगारी अलग-अलग रूप में फूटी। ये सारी की सारी चिंगारियाँ एकान्वित नहीं हो सकीं। ये गजल के अलग-अलग शेरों की तरह बिखरा हुआ प्रभाव उत्पन्न कर सकीं। गीत के एक सूत्र में पिरोए अलग-अलग बंधों की तरह मिला हुआ एकान्वित प्रभाव ये चिंगारियाँ उत्पन्न नहीं कर सकीं। इसका कारण था – संप्रेषण की कमी। इसीलिए यह महसूस किया गया कि आजादी आंदोलन के लिए एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। इसका चरम हमें महात्मा गांधी के उन भाषणों में देखने को मिलता है जो कर्नाटक, इंदौर और भरूच में उन्होंने दिए। अख़बारों के माध्यम से भी उन्होंने इस विषय पर व्यापक विमर्श किया कि – इस देश की राष्ट्रभाषा क्या होनी चाहिए? उसमें कौन-कौन सी विशेषताएँ होनी चाहिए? इसके लिए उन्होंने पाँच सूत्र भी दिए। तब एक साल के मंथन के बाद चाहे वे कांग्रेस के अधिवेशन रहे हों, चाहे हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन रहे हों, उनमें यह स्वीकार किया गया कि इस देश की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी किसी भी प्रकार हो ही नहीं सकती क्योंकि उसमें वे पाँचों ही विशेषताएँ नहीं पाई जातीं। दूसरे कि, जो हमारी भारतीय भाषाएँ हैं, उनमें ही वह सामर्थ्य है कि वे इस देश के हर प्रांत के लोगों को जोड़नेवाली भाषा की भूमिका निभा सकती हैं। लेकिन उनमें भी स्वतंत्रता आंदोलन के बीच में हमें जब यह काम करना है कि सारे भारतवासियों को आपस में जोड़ सकें, उसके लिए हमें एक ऐसी भाषा राष्ट्रभाषा के रूप में चाहिए थी जिसे अमलदारों के लिए सीखना आसान हो, जिसे अधिक से अधिक लोगों (हिंदीतर भाषियों को) को कम से कम समय में सिखाया जा सके, जिसके लिए किसी प्रकार का तात्कालिक स्वार्थ ध्यान में न रखा जाए और जिसके माध्यम से इस देश की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार की ज्ञान-संपदा को, सभी प्रकार की चेतना को अभिव्यक्त किया जा सके। यह भी जरूरी समझा गया कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों, ताकि कम लोगों को उसे आरंभ से सीखने की जरूरत हो। और तब पाया गया कि हिंदी इन सब दृष्टियों से भारत के लिए सबसे अधिक समर्थ राष्ट्रभाषा हो सकती है। इस तरह राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार करने के बाद 1918 में ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ की स्थापना हिंदी साहित्य सम्मेलन के कार्यालय के रूप में की गई। आगे चलकर इसे ‘दक्षिण भारत हिंदुस्तानी प्रचार सभा’ कहा गया। बाद में ‘हिंदुस्तानी’ को ‘हिंदी’ कर दिया गया। मैंने जानबूझ कर आरंभ में जो ‘आजादी आंदोलन’ शब्द-युग्म की बात उठाई थी, उसका आशय इस ओर इशारा करना था कि महात्मा गांधी ‘दक्षिण भारत हिंदुस्तानी प्रचार सभा’ कहने के पक्षधर थे। अर्थात उन्हें हिंदी का वह रूप राष्ट्रभाषा के रूप में ज्यादा पसंद था जिसमें न तो उर्दू यानी फारसी-अरबी के प्रति आग्रह हो, न संस्कृत के प्रति आग्रह हो, बल्कि जो बोलचाल के उस मार्ग को स्वीकार करे जिसे आमफहम भाषा कहा जाता है।
इस प्रकार, 1857 से सीख लेकर और महात्मा गांधी के पाँच सूत्रों से अनुप्राणित होकर के श्सभाश् की स्थापना की गई। एक प्रकार से दक्षिम भारत में हिंदी प्रचार को ‘रचनात्मक कार्य’ का अनिवार्य अंग बना दिया गया। महात्मा गांधी ने रचनात्मक कार्य के जो ‘एकादश व्रत’ स्वतंत्रता आंदोलन के साथ जोड़कर के दिए थे, उन 11 व्रतों में एक है- ‘स्वदेशी’। ‘स्वदेशी’ और ‘स्वराज्य’ दोनों की सिद्धि के उन्होंने ‘स्वभाषा’ को अपनाने पर जोर दिया। कहा जा सकता है कि हिंदी प्रचार आंदोलन के कार्यकर्ताओं के लिए गांधी-खादी-हिंदी – ये सब एक तरह से पर्याय थे, भारतीय राष्ट्रीयता के अनन्य प्रतीक थे। 1918 से चला यह हिंदी प्रचार का रथ संपूर्ण दक्षिणावर्त की यात्रा करता हुआ आज भी निरंतर गतिमान है और भारत जननी को एक-हृदय बनाए रखने में अपनी भूमिका निभा रहा है – एक राष्ट्रभाषा हिंदी हो, एक-हृदय हो भारत जननी!
विचारणीय विषय का तीसरा पक्ष है हिंदी पत्रकारिता। नहींय इसे पूर्वपक्ष के साथ जोड़कर देखना होगा। अर्थात ‘दक्षिण भारत में हिंदी पत्रकारिता’! गौरतलब है कि 2021, 2022 या आनेवाला 2023 जो भी वर्ष कह लें दृ यह पूरा समय दक्षिण भारत में हिंदी पत्रकारिता की शताब्दी का वर्ष है। इसका मध्य बिंदु 2022 हाने से इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में आजादी आंदोलन और हिंदी प्रचार के संदर्भ में दक्षिण भारत की हिंदी पत्रकारिता पर विमर्श बेहद प्रासंगिक है। यहाँ से यह संदेश भी पूरे देश में जाना चाहिए कि ‘‘इस वर्ष को भारत भर में ‘दक्षिण की हिंदी पत्रकारिता की शताब्दी’ के रूप में मनाया जाए!’’
स्मरणीय है कि हिंदी पत्रकारिता का आरंभ भले हम ‘उदंत मार्तंड’ से स्वीकार करें या उससे भी पहले असम से प्रकाशित एक ईसाई मत प्रचारक अल्पज्ञान हिंदी पत्र से मानें। लेकिन दक्षिण से लेकर पूर्वोत्तर भारत तक हिंदीतर भाषी क्षेत्रों में हिंदी पत्रकारिता का वास्तविक उद्भव और विकास हिंदी प्रचार आंदोलन के आरंभ होने के बाद ही हुआ। इस लिहाज से 1921 और 1922 की अवधि दक्षिण की हिंदी पत्रकारिता का आरंभ-बिंदु है।
आप जानते हैं कि पूरे हिंदी क्षेत्र में आजादी और नवजागरण की चेतना को जगाने का भारतेंदु मंडल ने कार्य किया। भारतेंदु मंडल के तमाम रचनाकार पत्रकार भी थे। हिंदी पत्रकारिता का जन्म ऐसे समय हुआ जब देश में स्वतंत्रता की चिंगारी जाग रही थी और ऐसे समय में हिंदी पत्रकारिता को निखरने का स्वर्णिम अवसर उस आंदोलन के बीच में मिल गया। इधर दक्षिण में 1918 में हिंदी आंदोलन का उदय हो रहा था और उसे गति देने के लिए हिंदी पत्रकारिता की आवश्यकता थी। यह अलग बात है कि जब हम हैदराबाद या तेलंगाना-आंध्रप्रदेश की बात करें तो यहाँ निजाम शासन काल में जो दमन था उसका विरोध करने के लिए हिंदी पत्रकारिता ने एक विद्रोही तेवर स्वीकार किया। यहाँ तक कि भूमिगत पत्रिकाएँ यहाँ से निकलीं। लेकिन विशेष रूप से तमिलनाडु से जो हिंदी पत्रकारिता आरंभ होती है, वह हिंदी प्रचार के निमित्त ही आरंभ हुई थी। तिलक युग और गांधी युग जिन्हें हम हिंदी पत्रकारिता ही नहीं, भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण युग मानते हैं, उनके बीच में यह दक्षिण की हिंदी पत्रकारिता तमिल क्षेत्र में निखरकर सामने आई। यहाँ अत्यंत वरिष्ठ अथवा प्रथम पंक्ति के हिंदी प्रचारक आर. सारंगपाणि के ऐतिहासिक महत्व के आलेख ‘दक्षिण की हिंदी पत्र-पत्रिकाएँ’ का हवाला जरूरी है। मैं इसके कुछ अंशों को आपके समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूँ, जिससे दक्षिण की हिंदी पत्रकारिता के शताब्दी वर्ष का औचित्य और हमारे आज के विषय की प्रासंगिकता दोनों स्पष्ट होंगे।
महात्मा गांधी का, हिंदी आंदोलन का और स्वतंत्रता आंदोलन का संबंध कैसे है यह इस आलेख के पहले ही वाक्य से व्यक्त हो जाता है। ‘महात्मा गांधी द्वारा प्रवर्तित हिंदी प्रचार आंदोलन जब दक्षिण में जोर पकड़ने लगा तब उस आंदोलन के अग्रणियों को सहज ही आनंद होने लगा। उन्होंने अपने आनंद का अनुभव समस्त दक्षिण में फैले हुए अपने अन्यान्य साथियों और सहयोगियों के साथ ही करना चाहा। प्रचारकों ने चाहा कि विभिन्न केंद्रों में प्रचार की परिस्थितियों, प्रगति के विवरणों और अपने-अपने अनुभवों के संबंध में वे आपस में चर्चा करें और आगे का कार्यक्रम बनाने में उससे लाभ उठाएँ।’ यानी हिंदी पत्रकारिता की जरूरत क्यों महसूस हुई दक्षिण में, वह यहाँ बताया जा रहा है। ‘हिंदी सीखने वाले लोगों ने चाहा कि अपनी पाठ्य-पुस्तकों के अलावा हिंदी की कुछ पत्र-पत्रिकाएँ भी पढ़ें और अपनी हिंदी योग्यता बढ़ा लें। प्रचार आंदोलन के संचालकों ने अपनी सेवाओं को कुछ व्यापक, सबल और सामान्य रूप देने का एक सक्षम साधन चाहा बस। सबों की इच्छाओं और माँगों की पूर्ति करते हुके प्रचार आंदोलन को व्यापक एवं सामान्य रूप देकर पुष्ट करने के उद्देश्य से मद्रास से एक हिंदी पत्रिका चलाने पर सब जगह जोर दिया जाने लगा। किसी आंदोलन की सिद्धियों पर उत्सव मनाना, प्रगति के विवरण प्रकाशित कर लोगों को प्रोत्साहित करना, खुले तौर पर उसकी समस्याओं की चर्चा करना, सामान्य रूप देकर व्यापक बना देना- ये सब सभा के प्रचार तंत्र के ही भिन्न-भिन्न पहलू होते हैं। इसीलिए उन्होंने बहुत दूरदर्शिता के साथ निश्चय किया कि दक्षिण में ‘हिंदी प्रचार आंदोलन’ के पोषण के लिए मद्रास से कोई पत्रिका चलाई जाये। फलस्वरूप संवत 1979 में मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन जनवरी 1923 में मद्रास में ‘हिंदी प्रचारक’ का जन्म हुआ। बाद में यह पत्रिका बंद हो गई और फिर ‘हिंदी प्रचार समाचार’ के नाम से यह पत्रिका आज तक प्रकाशित होती है। इसलिए जनवरी 1923 हमारे दक्षिण भारत के हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में मील का पत्थर है। और अब हम उसके शताब्दी वर्ष में आ गए हैं। वैसे तो ‘हिंदी प्रचारक को दक्षिण से निकली पहली हिंदी पत्रिका नहीं कहा जा सकता। उसके जन्म से करीब तीन साल पहले ही हिंदुस्तानी सेवा दल की तरफ से डाॅ. एन. एस. हार्निकर के संपादकत्व में ‘स्वयंसेवक’ नामक हिंदी-अंग्रेजी पत्रिका हुबली से निकलने लग गई थी, जो करीब 10 साल तक निकली थी। फिर उसी समय मद्रास के साहूकार पेट से कांग्रेस प्रचार के लिए उत्साही हिंदी विद्वान श्री क्षेमानंद राहत के संपादकत्व में निकले हिंदी साप्ताहिक ‘तिलक’ का भी उल्लेख होना चाहिएद्य’
इस प्रकार ‘स्वयंसेवक’, ‘तिलक’ और ‘हिंदी प्रचारक’- ये पत्रिकाएँ 1921 से 1923 की कालावधि में ही आरंभ हुईं। इसीलिए 2022 को दक्षिण भारत के हिंदी पत्रकारिता के इतिहास के शताब्दी संदर्भ का केंद्रीय वर्ष कहा जा सकता है, आप इसके एक वर्ष पहले भी जा सकते हैं और एक वर्ष आगे भी जा सकते हैं। (कोरोना के कारण सब कार्य बाधित न हुए होते, तो इस शताब्दी समारोह का समारंभ संभवतः 2021 में ही होना पूर्णतः सटीक होता!)
आर. सारंगपाणि ने आगे बताया है कि ‘हिंदी प्रचारक’ के संपादक हुआ करते थे ऋषिकेश शर्मा ‘तैलंग’ और इसके प्रकाशक के रूप में हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रचार कार्यालय, ट्रिप्लीकेन, मद्रास का इसके ऊपर उल्लेख था। आवरण के भीतरी पृष्ठ पर ‘हिंदी प्रचारक’ के तीन मुख्य उद्देश्य अंकित थे-
पहला उद्देश्य था- दक्षिण भारत में राष्ट्रभाषा हिंदी-हिंदुस्तानी का प्रचार करना। ध्यान रखें आज जब आप हिंदी आंदोलन की बात करते हैं, हिंदी-हिंदुस्तानी प्रचार की बात करते हैं, जन-गण-मन की बात करते हैं या वंदे मातरम की बात करते हैं- इनका उल्लेख करना भी उस जमाने में ‘राजद्रोह’ हुआ करता था। यह कोई साधारण काम नहीं था, स्वतंत्रता आंदोलन का एक अंग था और इसके लिए हिंदी प्रचारकों को ब्रिटिश शासन द्वारा प्रताड़ित भी किया जाता था।
दूसरा उद्देश्य था- दक्षिण के आंध्र-तमिलनाडु-केरल और कर्नाटक इन प्रांतों में ‘जोर-शोर से शांतिपूर्वक’ हिंदी प्रचार का आंदोलन और संगठन करना। याद रहे कि गांधीजी का निर्देश था कि हिंदी प्रचारकों को जेल जाने से बचना है। स्वतंत्रता आंदोलन के पहली पंक्ति के लोग सत्याग्रहों के कारण जब जेल में हुआ करते थे, तब ये हिंदी प्रचारक बाहर रह करके पूरा भूमिगत स्वतंत्रता आंदोलन अपने कंधों पर संभालते थे। इसीलिए मैंने पहले ही कहा है कि हिंदी आंदोलन दक्षिण में वास्तव में आजादी आंदोलन का एक अनिवार्य और अभाज्य अंग रहा है और उसका मूलमंत्र यही रहा है कि अपना काम ‘जोर-शोर’ से करो लेकिन ‘शांतिपूर्वक करो’, उग्रता के साथ नहीं। गिरफ्तार होने से बचना जरूरी था, ताकि आंदोलन चलता रहे!
तीसरा उद्देश्य था इस पत्रिका का- दक्षिण भारत के सरकारी तथा देशी राज्यों के स्कूल, काॅलेजों, विश्वविद्यालयों और जातीय संस्थाओं के समाजों के (प्रांतीय कार्यों को छोड़कर) देशव्यापी कार्यों में हिंदी-हिंदुस्तानी को उचित स्थान दिलाना। कहना न होगा कि भारत की जो राजभाषा नीति बाद में निर्मित हुई, उसका मूल यहाँ पर ही है। गांधी की नीति में उसका मूल है- आपको राज्यों के लिए अलग-अलग राजभाषा चाहिए, लेकिन एक सार्वदेशिक भाषा (पूरे देश के लिए एक भाषा) चाहिए थी, जिसे राष्ट्रभाषा कहा गया। अतः हिंदी का काम करते हुए प्रांतीय भाषाओं का संरक्षण भी इस पत्र का एक उद्देश्य था। आज भी दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विविध पाठ्यक्रमों में प्रांतीय भाषा का पर्चा इसीलिए शामिल है। इस पूरे आंदोलन का ध्येय दक्षिण में हिंदी को रोपना रहा हैय थोपना नहीं!
‘पत्रिका (हिंदी प्रचारक) के उस प्रथम अंक में प्रकाशित अपने शुभ संदेश में साहित्य सम्मेलन प्रयाग के तब के प्रधानमंत्री श्री ब्रजराज ने दक्षिण के प्रचारकों से अपील की थी कि उतना शक्तिशाली काम करें कि शीघ्र ही सम्मेलन को दक्षिण भारत में अपना काम समाप्त कर उन-उन प्रांतवासियों के हाथ में हिंदी प्रचार का कार्य सौंपने का सुअवसर प्राप्त हो।’ यह बड़ा महत्वपूर्ण था। वे लोग जानते थे कि कल को कुछ लोग कहेंगे कि हिंदी अपना साम्राज्यवाद थोप रही हैय इसलिए उन्होंने कहा कि प्रयाग का कार्यालय अपना काम समेटकर प्रयाग जाये और दक्षिण में हिंदी आंदोलन का कार्य स्वयं दक्षिण के हिंदी प्रचारक सँभाले। बाद में ऐसा ही हुआ भी। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा ने ऐसे अनेक समर्थ हिंदी प्रचारकों का निर्माण किया और इसमें हिंदी पत्रकारिता का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान रहा कि वे अपनी अखिल भारतीय पहचान निर्मित कर सके।
कुल मिलाकर, दक्षिण भारत की हिंदी पत्रकारिता के शताब्दी वर्ष में या आजादी आंदोलन के अमृत वर्ष में आज फिर उसी ‘जोर-शोर’ और ‘शांति’ के साथ पूरे भारत में नए सिरे से एक और हिंदी आंदोलन की जरूरत है। यह भी कि आज दक्षिण की तुलना में उत्तर को हिंदी आंदोलन की अधिक आवश्यकता है, ताकि लोगों के मन-मस्तिष्क में जमे बैठे हुए भाषायी उपनिवेशवाद को खुरच-खुरच कर निकाला जा सके।
‘24 से 27 मार्च, 2022 तक पांडिचेरी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में दिया गया ऑनलाइन बीज व्याख्यान। रिकाॅर्डिंग के आधार पर लिप्यंकन – डाॅ. चंदन कुमारी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

शोध लेख

लोक में गांधी के गीतों को गाती ‘चंदन तिवारी’

एक बार किसी ने महात्मा गांधी से पूछा कि क्या आपको संगीत से कोई लगाव नहीं है? गांधीजी ने उत्तर दिया कि यदि मुझमें संगीत न होता तो मैं अपने काम के इस भारी बोझ से मर गया होता। ज्यादातर लोगों की यह धारणा रही है कि महात्मा गांधी संगीत जैसी सभी कलाओं के खिलाफ […]

Read More
पत्रकारिता

स्वतंत्रा संग्राम और गांधी की पत्रकारिता

संदीप कुमार शर्मा (स.अ.) महात्मा गांधी जी की पत्रकारिता उनके जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा थी, जो उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ अपने दृढ़ नैतिक और सामाजि एसक मूल्यों को प्रोत्साहित करने के लिए भी उपयोग की। उनकी पत्रकारिता के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं को निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है- सत्याग्रह – गांधी जी […]

Read More
पत्रकारिता

महात्मा गांधी की जनसंचार पद्धति : एक प्रकाश स्तंभ

कुमार कृष्णन महात्मा गांधीजी एक राष्ट्रीय नेता और समाज सुधारक होने के साथ-साथ एक महान संचारक भी थे। एक से अधिक, उन्होंने माना कि राय बनाने और लोकप्रिय समर्थन जुटाने के लिए संचार सबसे प्रभावी उपकरण है। गांधीजी सफल रहे क्योंकि उनके पास संचार में एक गुप्त कौशल था जो दक्षिण अफ्रीका में सामने आया […]

Read More