अमन कुमार
तत्कालीन परिस्थितियाँ
सच यही है कि यह दौर भारत के लिए अच्छा नहीं था। ‘‘यह वह दौर है जब देश आजादी के बाद के सबसे बुरे दौर से गुजरा। आजादी के सपनों का टूटना जो पिछले दशक में शुरू हुआ था वह यहाँ तक आते पूरी तरह बिखर गया। सत्ता में पहली बार संविद सरकारों की राजनीति शुरू हुई तो शुद्ध स्वार्थों पर आधारित व्यवस्था का चलन शुरू हुआ। जो प्रवृत्तियाँ चोरी-छिपे चला करती थीं, वे अब प्रत्यक्ष हो गयीं। साहित्यिक-सांस्कृतिक हलकों में क्षोभ और विद्रोह का भाव और तेज हो गया था।’’1 क्योंकि इंदिरा गाँधी ने व्यवस्था को पुनःस्थापित करने के लिए अशांति मचानेवाले ज्यादातर विरोधियों की गिरफ्तारी का आदेश दे दिया। तदोपरांत उनके मंत्रिमंडल और सरकार द्वारा इस बात की सिफारिश की गई कि राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अली अहमद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद फैली अव्यवस्था और अराजकता को देखते हुए आपात्कालीन स्थिति की घोषणा करें। तदनुसार, अहमद ने आंतरिक अव्यवस्था के मद्देनजर 26 जून 1975 को संविधान की धारा- 352 के प्रावधानानुसार आपात्कालीन स्थिति की घोषणा कर दी।
‘‘26 जून की प्रातः लोग स्तब्ध, हत्प्रभ थे, जब उन्हें पता चला कि विपक्षी दलों के सभी मूर्धन्य नेता यथा मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी आदि ही नहीं, जयप्रकाश नारायण और वह चंद्रशेखर, जो इंदिरा कांग्रेस की कार्यकारिणी के निर्वाचित सदस्य थे, भी जेल भेज दिये गये हैं। ‘‘नये-नये दल, नये-नये लोग और उनकी अपनी स्वार्थपरताओं की वजह से बौद्धिक वर्ग सकते में था और पत्रकारिता लगातार अपने स्तर पर इन स्थितियों से जूझ रही थी। इसी समय भाषा का प्रश्न भी प्रमुखता से उठा। हिंदी को कूड़े की तरह फेंक दिया गया। कहाँ तो 1965 तक उसे मुकम्मल राजभाषा बनाने का दायित्व पूरा करना था और कहाँ यह हाल हो गया कि उसे अनिश्चितकालीन योजना के पिटारे में बंद कर दिया गया। इसको लेकर भी बौद्धिकों में कोप था और स्वयं पत्रकारिता सरकार के इस ढुलमुल रवैये से खिन्न थी।’’2 प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गयी। अख़बारों की रात में ही बिजली काट दी गयी थी कि कोई समाचारपत्र न छप सके। जो कुछ छप चुके थे और सवेरे-सवेरे लोगों के हाथों में पहुँच गये थे, उनमें जिस भी अख़बार का संपादकीय स्तम्भ रिक्त था या बड़ा-सा प्रश्नचिन्ह लगाकर छोड़ दिया गया था या ऐसा ही कोई आपात्काल विरोधी प्रयत्न दिखा, उन सब को जब्त कर लिया गया, उनके संपादकों को उनके इस दुःसाहस के लिए जेल में ठूंस दिया गया। विपक्षी दलों और कांग्रेस के कथित या कल्पित विरोधियों की धड़ाधड़ गिरफ्तारियां शुरू हो गयीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी तत्काल प्रतिबंध लगा दिया गया। उसके तृतीय सरसंघचालक श्री मधुकर दत्तात्रेय देवरस और बालासाहब देवरस को भी गिरफ्तार कर यरवदा जेल भेज दिया गया। अनेक जिलों में गुटबाज कांग्रेसियों ने अपने विरोधी गुट के लोगों तक से इसी बहाने बदला ले लिया था। आपात्काल के इस भयाक्रान्त काल में कांग्रेसियों ने बहती गंगा में खूब हाथ धोये। इंदिरा गाँधी की शंकालुता की पराकाष्ठा यहाँ तक थी कि उत्तर प्रदेश के हेमवतीनंदन बहुगुणा जैसे विलक्षणबुद्धि कांग्रेसी मुख्यमंत्री के आवास तक पर आई. बी. का एक डी. एस. पी. रैंक का अधिकारी जासूसी में तैनात रहा था।’’3
कुछ ही महीने के भीतर दो विपक्षीदल शासित राज्यों गुजरात और तमिलनाडु पर राष्ट्रपति शासन थोप दिया गया, जिसके फलस्वरूप पूरे देश को प्रत्यक्ष केन्द्रीय शासन के अधीन ले लिया गया। पुलिस को कफर््यू लागू करने तथा नागरिकों को अनिश्चितकालीन रोक रखने की क्षमता सौंपी गयी एवं सभी प्रकाशनों को सूचना तथा प्रसारण मंत्रालय के पर्याप्त सेंसर व्यवस्था के अधीन कर दिया गया। इन्द्र कुमार गुजराल, ने खुद अपने काम में संजय गाँधी की दखलंदाजी के विरोध में सूचना और प्रसारण मंत्रीपद से इस्तीफा दे दिया। अंततः आसन्न विधानसभा चुनाव अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिए गए तथा सम्बंधित राज्य के राज्यपाल की सिफारिश पर राज्य सरकार की बर्खास्तगी के संवैधानिक प्रावधान के अलोक में सभी विपक्षी शासित राज्य सरकारों को हटा दिया गया।
‘‘इंदिरा गाँधी के छोटे पुत्र संजय गाँधी उस समय सरकारी आतंक के प्रतीक बन गये थे। उनके 15 सूत्री कार्यक्रम में वृक्षारोपण के साथ ही सबसे अधिक बल परिवार-नियोजन पर था। कृत्रिम उपायों से अधिक जोर पुरुषों और स्त्रियों की नसबंदी पर था। जिलाधिकारियों में अधिकाधिक नसबंदी कराने की ऐसी होड़ लगी थी कि पुलिस और पी.ए.सी. से रात में गाँव घिरवाकर नसबंदी के योग्य-अयोग्य जो मिला, उसकी बलात् नसबंदी करा दी गयी। अविवाहित युवकों, विधुर गृहस्थों और बूढ़ों तक की नसबंदी करके आँकड़े बढ़ाये गये। लाखों के वारे-न्यारे हो गये। अधीनस्थ कर्मचारियों की विवशता देखते बनती थी। अपनी या अपनी पत्नी की नसबंदी कराने के बाद भी नसबंदी के कम से कम दो ‘केस’ दो, तभी अर्जित अवकाश, अवकाश नगदीकरण, चरित्र-पंजिका में अच्छी प्रविष्टि, स्कूटर/मोटरसाइकिल/ गृह-निर्माण, भविष्य-निधि से अग्रिम स्वीकृत किये जाते थे। सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गयी थी पर प्रतिरोध करने का साहस नहीं। ऐसी घोर-परिस्थिति में भी उत्तर प्रदेश के एक जिले शाहजहाँपुर के जिला अधिकारी ने नसबंदी के लिए किसी का उत्पीड़न न करने का साहस दिखाया था। मुख्य सचिव द्वारा नसबंदी की उनसे जिले के प्रदेश में न्यूनतम संख्या पर जब कड़े शब्दों में स्पष्टीकरण माँगा गया, तो उनका निर्भीक उत्तर था, सर! शासनादेश में ‘स्वेच्छा से’ नसबंदी कराने का स्पष्ट उल्लेख है, ऐसे में किसी प्रकार की जोर-जबर्दस्ती करके किसी की नसबंदी कैसे करायी जा सकती है? मुख्य सचिव को ऐसा उत्तर सुनने की कल्पना तक न थी। पर उनकी हिम्मत उन जिला अधिकारी का स्थानांतरण करने तक की नहीं पड़ी। वैसे कुएं में भांग तो ऐसी पड़ी थी कि अत्याचारों की सीमा नहीं थी। सर्वाधिक प्रताड़ना उन परिवारों की महिलाओं एवं बच्चों को झेलनी पड़ी थी, जिनके घर के कमाऊ सदस्य जेलों में ठूंस दिये गये थे। एक दारुण उदाहरण- लखनऊ के चैपटियां मोहल्ले के निवासी सोशलिस्ट नेता रामसागर मिश्र को मीसा में बंद कर दिया गया था। उनके अल्पवयस्क पुत्र ने पिता की मुक्ति के लिए हनुमान जी का निर्जल-व्रत रखकर अपने घर से अलीगंज हनुमान-मंदिर तक दंडवत-यात्रा बड़े मंगल (ज्येष्ठ मास का प्रथम मंगल) की ठानी और लोग उस पर जल डालते साथ चल रहे थे। पर मंदिर पहुँचकर दर्शन करने के पहले ही उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। उधर रामसागर मिश्र भी जेल से जीवित न लौट पाये।’’4
‘‘देश के गणमान्य मनीषियों, जिनका किसी पार्टी से कोई लेना-देना न था, को भी नहीं बख्शा गया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष डाॅ. रघुवंश, जिनके दोनों हाथ लंुज-पुंज थे, को रेल की पटरी उखाड़ने के आरोप में जेल में डाल दिया गया। मराठी की प्रसिद्ध लेखिका दुर्गा भागवत जी ने एक सम्मेलन में आपात्काल की आलोचना में कुछ बोल दिया, तो उन्हें भी जेल में ठूंस दिया गया। काशी के मनीषी-प्रवर पं. बलदेव उपाध्याय को भी पुलिस ने पकड़कर हवालात में बंद कर दिया, तो वहाँ के लोग भड़क उठे, जिलाधिकारी के बंगले पर जा धमके। इस गिरफ्तारी से अनभिज्ञ जिलाधिकारी चैंक पड़े। तुरंत पण्डित जी को छोड़ने का आदेश दिया। बेचारे पण्डित जी को रात भर हवालात में रहना पड़ा था। महीयसी महादेवी वर्मा जी ने भी आपात्काल के विरोध में बोल दिया था, तो इलाहाबाद का जिला प्रशासन उन्हें भी बंदी बनाने की सोचने लगा। इंदिरा जी को कहीं से इसकी भनक लग गयी। संभवतः प्रसिद्ध पत्रकार पी. डी. टण्डन से उन्होंने तुरंत निषेध किया अन्यथा महादेवी जी भी दुर्गा भागवत की गति को प्राप्त हो जातीं। नेहरू जी को महादेवी जी अपना भाई मानती थीं, यह तथ्य इंदिरा जी जानती थीं।’’5
‘‘इस दुर्धर्ष काल में दो राजमाताओं- विजयाराजे सिन्धिया और गायत्री देवी को भी जेल में डाल दिया गया। दोनों को प्रताड़नाएं भी दी गयी थीं। स्वास्थ्य बहुत अधिक गिर जाने पर राजमाता सिंधिया को पैरोल पर छोड़ा गया था। उनके निजी सचिव आंग्रेजी उन्हें घुमाते हुए एक स्थान पर ले गये। राजमाता जी के पूछने पर बोले, हम नेपाल-सीमा पर अमुक स्थान पर हैं, आप कहें, तो सीमा पार कर नेपाल चला जायें, फिर इंदिरा क्या कर लेंगी? इतना सुनते ही राजमाता बिगड़ पड़ीं, आपके दिमाग में यह बात आयी कैसे? मैंने न्यायालय को वचन दिया है, अभी वापस चलो। बेचारे आंग्रे जी सन्न। राजमाता जी ने वापस लौटकर तुरंत न्यायालय में समर्पण किया और पैरोल की अवधि पूरी होने से पहले ही पुनः जेल चली गयीं।’’6
आपात्कालीन पत्रकाकारिता की बात करें तो उस समय ‘‘हिंदी के दो संपादक शीर्ष पर थे- 1. ‘नवभारत टाइम्स’ (दैनिक) के अक्षयकुमार जैन और 2. ‘हिन्दुस्तान’ (दैनिक) के रतन लाल जोशी। जहाँ अक्षय कुमार जैन लगभग 200 पत्रकारों के साथ ‘इंदिरा गाँधी की जय’ बोलते, उन्हें बधाई देने गये, वहीं रतनलाल जोशी ने अपने संपादकीय में लिखा, कितना सुखद आश्चर्य है कि उच्चतम न्यायालय के तीन माननीय न्यायमूर्तियों ने पृथक-पृथक् निर्णय दिये परंतु तीनों निर्णय एक समान हैं। अक्षय कुमार जैन की कीर्ति इसके बाद शून्य पर जा पहुँची थी परंतु रतनलाल जोशी ने नौकरी व जेल जाने का खतरा मोल लेकर भी उक्त वाक्य में ‘सब कुछ’ कह देने का साहस जुटाया था। पत्रकारिता धर्म का ऐसा निर्वाह उन्हें अमर कर गया।’’7
‘‘बालासाहब देवरस यरवदा जेल से जब मुक्त हुए, तो प्रसिद्ध सोशलिस्ट नेता एस. एम. जोशी हजारों लोगों को साथ लेकर उनका स्वागत् करने जेल के द्वार पर थे। वह भव्य दृश्य देखने योग्य था। लेकिन दैव दुर्विपाक से जब जनता पार्टी सरकार को अपने परामर्शी मधु लिमये और राजनारायण के दबाव में चरणसिंह (‘चेयर सिंह’-राजनारायण का दिया पूर्व व्यंग्य नाम) ने गिरा दिया, तो आपात्काल में सहस्त्रों कार्यकर्ताओं के बलिदान और लाखों के त्याग को निष्फल करने का कलंक लेकर भी चैधरी चरण सिंह एक बार भी संसद में प्रधानमंत्री की गद्दी पर न बैठ पाये। आपातकाल का वह काला अध्याय, स्वतंत्र भारत के कांग्रेस से मुक्ति के स्वर्ण-अवसर का अवसान बनते-बनते रह गया।’’8
असाधारण अधिकार प्राप्ति हेतु
आपात्कालीन प्रावधानों का प्रयोग
इंदिरा गाँधी की सरकार ने प्रतिवादियों को उखाड़ फेंकने तथा हजारों की तादाद में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और आट रखने का एक अभियान प्रारंभ किया। जग मोहन के पर्यवेक्षण में, जो की बाद में दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर रहे, जामा मस्जिद के आसपास बसे बस्तियों के हटाने में संजय का हाथ रहा जिसमें कथित तौर पर हजारों लोग बेघर हुए और सैकड़ों मारे गये और इस तरह देश की राजधानी के उन भागों में साम्प्रदायिक कटुता पैदा कर दी और हजारों पुरुषों पर बलपूर्वक नसबंदी का परिवार नियोजन कार्यक्रम चलाया गया, जो प्रायः बहुत निम्नस्तर से लागू किया गया था।
चुनाव
मतदाताओं को उस शासन को मंजूरी देने का एक और मौका देने के लिए इंदिरा गाँधी ने 1977 में चुनाव कराए। वह जनता दल से बुरी तरह से हार गयीं। लंबे समय से उनके प्रतिद्वंद्वी रहे देसाई के नेतृत्व तथा जय प्रकाश नारायण के आध्यात्मिक मार्गदर्शन में जनता दल ने भारत के पास ‘लोकतंत्र और तानाशाही’ के बीच चुनाव का आखरी मौका दर्शाते हुए चुनाव जीत गए। इंदिरा और संजय गाँधी दोनों ने अपनी सीट खो दीं और कांग्रेस घटकर 153 सीटों में सिमट गई।
हटाना, गिरफ्तारी और वापस लौटना
देसाई प्रधानमंत्री बने और 1969 के सरकारी पसंद नीलम संजीव रेड्डी गणतंत्र के राष्ट्रपति बनाये गए। इंदिरा गाँधी नेे अपने आप को कर्महीन, आयहीन और गृहहीन पाया। 1977 के चुनाव अभियान में कांग्रेस पार्टी का विभाजन हो गया। जगजीवनराम जैसे समर्थकों ने उनका साथ छोड़ दिया। कांग्रेस (गाँधी) दल अब संसद में आधिकारिक तौर पर विपक्ष होते हुए एक बहुत छोटा समूह रह गया था। गठबंधन के विभिन्न पक्षों में आपसी लड़ाई में लिप्तता के चलते शासन में असमर्थ जनता सरकार के गृह मंत्री चैधरी चरण सिंह ने कई आरोपों में इंदिरा गाँधी और संजय गाँधी को गिरफ्तार करने के आदेश दिए, जिनमें से कोई एक भी भारतीय अदालत में साबित करना आसान नहीं था। इस गिरफ्तारी का मतलब था इंदिरा स्वतः ही संसद से निष्कासित हो गई। परंतु यह रणनीति उल्टे आपदापूर्ण बन गई। उनकी गिरफ्तारी और लंबे समय तक चल रहे मुकदमे से उन्हें बहुत से वैसे लोगों से सहानुभूति मिली जो सिर्फ दो वर्ष पहले उन्हें तानाशाह समझ डर गये थे।
जनता गठबंधन सिर्फ श्रीमती गाँधी की नफरत से एकजुट हुआ था। छोटे-छोटे साधारण मुद्दों पर आपसी कलहों में सरकार फँसकर रह गयी थी और गाँधी इस स्थिति का उपयोग अपने पक्ष में करने में सक्षम थीं। उन्होंने फिर से, आपात्काल के दौरान हुई ‘गलतियों’ के लिए कौशलपूर्ण ढंग से क्षमाप्रार्थी होकर भाषण देना प्रारंभ किया। जून 1979 में देसाई ने इस्तीफा दिया और श्रीमती गाँधी द्वारा वादा किये जाने पर कि कांग्रेस बाहर से उनकी सरकार का समर्थन करेगी, रेड्डी के द्वारा चरण सिंह प्रधान मंत्री नियुक्त किए गये।
एक छोटे अंतराल के बाद, उन्होंने अपना प्रारंभिक समर्थन वापस ले लिया और राष्ट्रपति रेड्डी ने 1979 की सर्दियों में संसद को भंग कर दिया। अगली जनवरी में आयोजित चुनावों में कांग्रेस पुनः सत्ता में वापस आ गयी।
आपात्काल की हिंदी पत्रकारिता
पत्रकारिता पर आपात्काल का प्रभाव 1975 से 1979 तक रहा। जिन पत्रों ने कांग्रेस और उसके आपात्काल का विरोध किया था उन्हें कांग्रेस के पुनः सत्ता में वापसी के बाद खामियाजा भुगतना पड़ा। 26 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का 21 मास की अवधि में भारत में आपात्काल घोषित था। तत्कालीन राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन आपात्काल की घोषणा कर दी। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल था। आपात्काल में चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त करके मनमानी की गई। जयप्रकाश नारायण ने इसे ‘भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि’ कहा था।
डाॅ. अरूण भगत, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, पीएचडी के अनुसार- ‘‘19 महीनों तक चले आपातकाल के काले बादल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी छाए और इंदिरा गाँधी ने प्रेस पर भी सेंसरशिप थोप दी। आपातकाल के चलते पत्रिकारिता के स्वरूप में बड़ा बदलाव देखा गया और लोकतंत्र का चैथा स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया तानाशाही का शिकार हुआ। वर्ष 1974 तक पत्रकारिता के माध्यम से सत्ता और सरकार की सर्वत्र आलोचना हो रही थी। देश में भ्रष्टाचार, शैक्षणिक अराजकता, महंगाई और कुव्यवस्था के विरोध में समाचार-पत्रों में बढ़-चढ़ कर लिखा जा रहा था। गुजरात और बिहार में छात्र-आंदोलन ने जनांदोलन का रूप ले लिया था जिसके नेतृत्व का भार लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने अपने कंधों पर ले लिया। उन्होंने पूरे देश में संपूर्ण क्रांति आंदोलन का आह्वान कर दिया था। दूसरी ओर लंबे समय तक सत्ता में बने रहने, सत्ता का केंद्रीयकरण करने, अपने विरोधियों को मात देने और बांग्लादेश बनाने में अपनी अहम भूमिका के कारण इंदिरा गाँधी में अधिनायकवादी प्रवृत्तियाँ बढ़ती चली गईं और जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद अपने-आपको सत्ता से बेदखल होते पाया तो उन्होंने अपने कुछ चापलूसों के परामर्श से आपात्काल की घोषणा का निर्णय ले लिया। 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्षी नेताओं की जनसभा से श्रीमती गाँधी घबरा गईं और उन्होंने आपात्काल की घोषणा कर दी।’’
आपात्काल में पत्रकारिता के दो चेहरे स्पष्ट नजर आ रहे थे। एक तो निडर हो काले तंत्र का घोर विरोध कर रहा था। दूसरा काले शासन का अंधानुकरण कर रहा था। इस दौरान एक ओर जहाँ सत्ता और सरकार की चापलूसी करने वाले पत्रकार थे, वहीं दूसरी ओर प्रेस की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले पत्रकारों की भी कमी नहीं थी। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर, देवेंद्र स्वरूप, श्याम खोसला, सूर्यकांत बाली, के.आर. मलकानी जैसे पत्रकारों ने तो जेल की यातनाएं भी भोगीं। इसके विपरीत ऐसे पत्रकारों की भी कमी नहीं थी, जिन्होंने सेंसरशिप को स्वीकार किया और रोजी-रोटी के लिए नौकरी को प्राथमिकता दी। यही स्थिति साहित्यकारों के साथ भी थी। किंतु तमाम प्रतिबंधों के बावजूद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पूरी तरह ग्रहण नहीं लग सका। पत्र-पत्रिकाओं पर सेंसर लगा तो भूमिगत बुलेटिनों ने कुछ हद तक इसकी क्षतिपूर्ति की। कुछ संपादकों ने संपादकीय का स्थान खाली छोड़कर तो कुछ ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में महापुरुषों की उक्तियों को छापकर सरकार का विरोध किया।
‘‘सेंसरशिप और अन्य प्रतिबंधों के कारण सरकार और समाज के बीच सूचनाओं का प्रसारण इकतरफा हो रहा था। सरकार की घोषणाओं और तानाशाही रवैये की खबर तो किसी न किसी रूप में जनता तक पहुँच जाती थी, किंतु जनता द्वारा आपातकाल के विरोध और सरकारी नीतियों की आलोचना की खबर सरकार तक नहीं पहुँच पाती थी। सरकारी प्रेस विज्ञप्तियों के सहारे ही अख़बारों में अधिकतर समाचार छप रहे थे। इकतरफा पक्ष की बार-बार प्रस्तुति से पत्र-पत्रिकाओं की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया था। इसलिए इकतरफा संचार के कारण आपातकाल के 19 महीनों तक सरकार गलतफहमी में रही, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा।
सेंसरशिप के कड़े प्रतिबंधों और भय के वातावरण के कारण अनेक पत्र-पत्रिकाओं को अपने प्रकाशन बंद करने पड़े। इनमें सेमिनार और ओपिनियन के नाम उल्लेखनीय हैं। आपातकाल के दौरान 3801 समाचार-पत्रों के डिक्लेरेशन जब्त कर लिए गए। 327 पत्रकारों को मीसा में बंद कर दिया गया। 290 अख़बारों के विज्ञापन बंद कर दिए गए। विदेशी पत्रकारों को भी पीड़ित-प्रताड़ित किया गया। ब्रिटेन के टाइम और गार्जियन के समाचार-प्रतिनिधियों को भारत से निकाल दिया गया। रायटर सहित अन्य एजेंसियों के टेलेक्स और टेलीफोन काट दिए गए।’’9
प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए समाचार-समितियों का विलय किया गया। आपात्काल के पूर्व देश में चार समाचार-समितियाँ थीं – पी.टी.आई., यू.एन.आई., हिंदुस्थान समाचार और समाचार भारती जिन्हें मिलाकर एक समिति समाचार का गठन किया गया ताकि जिससे यह पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में रहे। आपात्काल के दौरान आकाशवाणी और दूरदर्शन पर से जनता का विश्वास उठ चुका था। भारत के लोगों ने उस समय बी.बी.सी. और वायस आफ अमेरिका सुनना शुरू कर दिया था।
‘‘आपात्काल की घोषणा के बाद प्रधानमंत्री के द्वारा ली गई पहली ही बैठक में प्रस्ताव आया कि प्रेस-परिषद् को खत्म किया जाए। 18 दिसंबर, 1975 को अध्यादेश द्वारा प्रेस-परिषद् समाप्त कर दी गई। आपात्काल के दौरान भूमिगत पत्रकारों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया था। भूमिगत संचार-व्यवस्था के द्वारा एक समानांतर प्रचार-तंत्र खड़ा किया गया था। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो जन-जीवन को एकपक्षीय समाचार ही मिल पाता और सच्ची खबरों से वह वंचित रह जाते। आपात्काल में संचार अवरोध का खामियाजा जनता पर नहीं पड़ सका, किंतु सत्ता और सरकार आपात्काल विरोधियों की मनोदशा को नहीं समझ पाए। संचार अवरोध का कितना बड़ा खामियाजा सत्ता को उठाना पड़ सकता है, यह वर्ष 1977 के चुनाव परिणाम से सामने आया। संपादकों का एक समूह चापलूसी की हद किस तरह पार कर रहा था, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दिल्ली के 47 संपादकों ने 9 जुलाई 1975 को श्रीमती इंदिरा गाँधी द्वारा उठाए गए सभी कदमों में अपनी आस्था व्यक्त की, जिसमें समाचार-पत्रों पर लगाया गया सेंसर भी शामिल है। सेंसरशिप के कारण दिनमान एकपक्षीय खबर छापने को बाध्य हुई। दिनमान ने सेंसरशिप लगाए जाने का विरोध भले ही न किया हो, किंतु सेंसरशिप हटाए जाने पर संपादकीय अवश्य लिखा है।’’10
आपात्काल की लोकप्रिय पत्रिका साप्ताहिक हिन्दुस्तान भी सेंसरशिप लागू होते ही सरकार की पक्षधर हो गई। यह पत्रिका सरकार की कितनी तरफदारी कर रही थी इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि चुनाव की घोषणा के बाद 6 फरवरी, 1977 के अंक में ‘राजनीतिक शतरंज के पुराने खिलाड़ी और नए मोहरे’, शीर्षक से प्रकाशित आलेख में कांग्रेस का पलड़ा भारी होना सुनिश्चित किया गया है, जबकि वास्तविकता यह है कि वर्ष 1977 के चुनाव में कांग्रेस की बुरी तरह से हार हुई थी।
‘‘आपात्काल के पूर्व सरिता में चुटीले बेबाक और धारदार लेख तथा संपादकीय छपा करते थे। सत्ता की मनमानी पर कड़ा प्रहार किया जाता रहा, किंतु आपात्काल लगने के बाद सेंसरशिप के कारण यह सिलसिला टूट गया। सेंसरशिप थोपे जाने और सत्ता के तानाशाही रवैये के कारण सरिता ने 6 महीनों मे संपादकीय कालम लिखना छोड़ दिया।’’11
‘‘सारिका का जुलाई 1975 का अंक सेंसरशिप का पालन कड़ाई से किए जाने का जीवंत दस्तावेज बन गया है। सेंसर अधिकारी द्वारा सारिका के पन्नों पर काला किए गए वाक्यों और शब्दों को संपादक ने विरोध-स्वरूप वैसे ही प्रकाशित कर दिया था। इस अंक के पृष्ठ संख्या 27-28 को तो लगभग पूरी तरह काला कर दिया गया था। इसके बाद के अंकों में संपादकीय विभाग इतना संभल गया कि सेंसर अधिकारी को पृष्ठ काला करने की नौबत ही नहीं आई। लोकराज के 5 जुलाई 1975 के अंक में आपातघोषणा शीर्षक से संपादकीय छपा है। इस संपादकीय में कहा गया है कि कुछ लोगों के अपराध के लिए संपूर्ण प्रेस-जगत् को सेंसरशिप क्यों झेलना पड़े? लोकराज के 12 जुलाई, 1975 के अंक में अनुशासन-पर्व शीर्षक से एक संपादकीय छपा जिसमें आपात्काल की घोषणा का स्वागत किया गया था।’’12
यह समय बौद्धिक वर्ग के लिए असमंजस का समय था। इस समय हिंदी अपने अस्तित्व के लिए लड़ती नजर आ रही थी। राष्ट्रभाषा के नाम पर उसके साथ राजनीतिक मजाक की जा रही थी। उर्दू का झगड़ा करा दिया गया था। ‘‘इन दिनों प्रायः सभी पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी की वर्तमान स्थिति को लेकर असन्तोष है और प्रायः सभी इसे लेकर बहस में उतरते हैं। इस बहस को राष्ट्रीय प्रश्न के रूप में लेते हुए पत्रकारिता ने सब तरफ से सरकार को घेरने की चेष्टा की, पर सरकार राजनीतिक फायदों को देखते हुए हिंदी की यथावत् स्थिति को बहाल रखने में सफल रही। हिंदी को लेकर तरह-तरह के प्रवाद सामने आये, कई भाषाओं के आयोग बने, जिन्होंने हिंदी को राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा बताया था। इन्हीं आयोगों में एक आयोग-‘उर्दू समिति’ थी जिसने हिंदी के विकास को उर्दू के लिए खतरनाक बताया था। सन् 1967 में हुए चैथे आमचुनाव में अनेक राजनीतिक पार्टियों ने उर्दू भाषियों की माँगों का समर्थन किया था। कांग्रेस इस मसले पर चुप्पी साधे रही। वह चुनाव में पराजित हुई थी, पर उसकी पराजय का यह कारण हो, ऐसा नहीं था। पर उसके मानस में यह बात बुरी तरह बैठ गयी थी कि हो न हो हिंदी को लेकर सरकार के मन में जो दुविधा है, उसके कारण दूसरे भाषा-भाषी; खासकर उर्दू भाषी सरकार से कन्नी काटने लगे हैं और कांग्रेस का पहले जैसा समर्थन नहीं करते। उत्तर प्रदेश के उर्दू-भाषियों और मुस्लिम अल्पसंख्यकों ने शिकायत की थी कि हर क्षेत्र में उनकी उपेक्षा हो रही है। जाँच-पड़ताल करने के बाद जो प्रस्ताव सामने आये, उसमें कहा गया कि जिन-जिन प्रदेशों में हिंदी का बाहुल्य है, वहाँ उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाया जाय। यह भी प्रस्ताव किया गया था कि दोनों भाषाओं के लिए एक ही लिपि (कुछ ने रोमन लिपि भी प्रस्तावित की थी) हो। उर्दू समिति बनाई गयी। उसकी स्थापना का उद्देश्य हिंदी-उर्दू के विवाद को दूर करना नहीं वरन् उर्दू का प्रोत्साहन करना था।’’13
हिंदी और उर्दू नीति पर पत्र-पत्रिकाएं सरकार को घेर रही थी। हिंदी के प्रति सरकार की उपेक्षा पूर्णनीति इस काल की पत्रकारिता के कारण जनमानस के समक्ष प्रस्तुत हो सकी।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सेंसरशिप की कैंची ने पत्रकारिता के स्वरूप को ही बिगाड़ दिया था। दहशत और आतंक के माहौल में अधिकतर पत्र-पत्रिकाओं ने सेंसरशिप को स्वीकार कर लिया था। संपादकीय खाली छोड़ने और पृष्ठों के काले अंश को हू-ब-हू छापने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं बच गया था।
यही वह दौर है जब भाषाओं के विवाद भी सामने आने लगे थे। ‘‘सन् 1967 में हुए चैथे आम चुनाव में अनेक राजनीतिक पार्टियों ने उर्दू भाषियों की माँगों का समर्थन किया था। कांग्रेस इस मसले पर चुप्पी साधे रही। वह चुनाव में पराजित हुई थी, पर उसकी पराजय का यह कारण हो, ऐसा नहीं था। पर उसके मानस में यह बात बुरी तरह बैठ गयी थी कि हो न हो हिंदी को लेकर सरकार के मन में जो दुविधा है, उसके कारण दूसरे भाषा-भाषी; खासकर उर्दू भाषी सरकार से कन्नी काटने लगे हैं और कांग्रेस का पहले जैसा समर्थन नहीं करते।’’14 कांग्रेस के लिये देश, जनता अथवा साहित्य का कोई मतलब नहीं रह गया था। वह तो अंग्रेजों की तरह देश में भाषाई फूट डालकर अपनी सत्ता को बनाये रखना चाहती थी। किंतु ‘‘हिंदी के प्रति सरकार की उपेक्षापूर्ण नीति का खुलासा इस दौर की पत्रकारिता का प्रमुख पक्ष रहा है।’’15
आपात्काल की यह अवधि पत्रकारिता की दृष्टि से ऐसी रही कि यह अलग पहचान लिए है। जिस पर अभी काफी शोध की आवश्यकता है।
पत्रकारिता में प्रमुख साहित्यकार
आपात्काल में पत्रकारिता ने अपने कर्तव्यों का निर्वाह किया। यही कारण है कि ‘‘इस दौर की पत्रकारिता भी संस्कृति की उतनी ही चिंता करती दिखाई देती है जितनी कि वह पहले करती रही है।’’16
इस दौर में भी ऐसे अनेक साहित्यिक पत्रकार थे जो राजनीतिक पत्रकारिता से आगे बढ़कर अपना काम कर रहे थे। जिनमें अमृतलाल नागर, रघुवीर सहाय, गणेष मंत्री, डाॅ. प्रेमशंकर, आनंद नारायण शर्मा, कुमारेन्द्र पारसनाथ, शान्तिलाल जैन, नेमिचंद्र जैन, डाॅ. नामवर सिंह, रघुवीर सहाय, डाॅ. शिव प्रसाद सिंह, कमलेश्वर, नागार्जुन, धर्मवीर भारती, जयप्रकाश भारती, रमेश पत्रा, रामबहादुर राय, मैनेजर पाण्डेय, अरुणेश नीरन, डाॅ. शम्भूनाथ, गणेश मंत्री, डाॅ. नरेन्द्र मोहन, करण सिंह चैहान, धीरेन्द्र अस्थाना, कुन्तल कुमार जैन, विष्णुकांत शास्त्री, डाॅ. शान्ति सुमन, मनमोहन, डाॅ. सदाशिव द्विवेदी, हरिशंकर परसाई, निर्मल वर्मा, नरेष चतुर्वेदी आदि का नाम गर्व के साथ लिया जा सकता है। यह ऐसे नाम हैं जिन्होंने देश की दूसरी आजादी में अपने आपको आगे रखा। ये सभी पत्र-पत्रिकाओं से सीधे जुड़े थे।
प्रमुख पत्र
हिन्दुस्तान, नवभारत टाईम्स, अमर उजाला, दैनिक जागरण, आज, वीर अर्जुन, आदि समाचारपत्रों के साथ-साथ पत्रिकाओं में दिनमान, सारिका, धर्मयुग, माया, आलोचना, आर्यावर्त, प्रदीप, संचेतना, दस्तावेज, हंस, पूर्वाग्रह, राष्ट्रवाणी, वाम, कथा, जन, नटरंग, देशबंधु आदि आम जनता के दर्द को बखूबी बयाँ करती रहीं।
यह सभी पत्र इस काल का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। आपात्काल में पत्रकारिता के लिये भी खतरे कम नहीं थे परंतु फिर भी पत्रकारिता ठीक वैसे ही काम करती रही जैसे कि वह आजादी के लिए काम कर रही थी। जिससे सिद्ध हो जाता है कि ‘‘हिंदी पत्रकारिता का शुभ पक्ष यही है कि वह अपना चरित्र नहीं बदलती। जिस समय साहित्य व्यवस्था की कुटिलता की चालों को भाँपकर उसका विरोध कर रहा था, ठीक उसी समय पत्रकारिता उससे कदमताल करती हुई लोकतंत्र के चैथे स्तंभ का अपना दायित्व निभा रही थी। साहित्य और इस पत्रकारिता की भाषा में कोई फर्क न था; क्योंकि पत्रकारिता का स्वर ही साहित्य था और साहित्य का स्वर सामाजिक दायित्व का था। आपात्स्थिति ने और देश की राजनीतिक अस्थिरता ने भले ही थोड़ी-बहुत फाँक पैदा कर दी थी, पर पत्रकारिता का प्रमुख स्वर इस युग में भी विरोध का ही बना रहा।’’17
इस प्रकार देखा जाये तो आपात्काल में भी हिंदी पत्रकारिता ने अपने चरित्र को बनाये रखा। उसने कुनीतियों का जमकर विरोध किया।
संदर्भ
1. ज्योतिष जोशी, साहित्यिक पत्रकारिता, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 75
2. ज्योतिष जोशी, साहित्यिक पत्रकारिता, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 77
3. आनंद मिश्र ‘अभय’ ‘राष्ट्रधर्म’ (मासिक)
4. आनंद मिश्र ‘अभय’ ‘राष्ट्रधर्म’ (मासिक)
5. आनंद मिश्र ‘अभय’ ‘राष्ट्रधर्म’ (मासिक)
6. आनंद मिश्र ‘अभय’ ‘राष्ट्रधर्म’ (मासिक)
7. आनंद मिश्र ‘अभय’ ‘राष्ट्रधर्म’ (मासिक)
8. आनंद मिश्र ‘अभय’ ‘राष्ट्रधर्म’ (मासिक)
9. डाॅ. अरूण भगत, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, पीएचडी (सन -2009)
10. डाॅ. अरूण भगत, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, पीएचडी (सन -2009)
11. डाॅ. अरूण भगत, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, पीएचडी (सन् -2009)
12. डाॅ. अरूण भगत, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, पीएचडी (सन् -2009)
13. ज्योतिष जोशी, साहित्यिक पत्रकारिता, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 78
14. ज्योतिष जोशी, साहित्यिक पत्रकारिता, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 78
15. ज्योतिष जोशी, साहित्यिक पत्रकारिता, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 79
16. ज्योतिष जोशी, साहित्यिक पत्रकारिता, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 82
17. ज्योतिष जोशी, साहित्यक पत्रकारिता, वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली, पृ. 90