
अमन कुमार
साहित्य और पत्रकारिता को कितना भी अलग करने की चेष्टा की जाये परंतु साहित्य और पत्रकारिता को अलग नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार साहित्य की विभिन्न विधाएँ अभिव्यक्ति का माध्यम बनती हैं, उसी प्रकार पत्रकारिता भी समाज और समाज में घटने वाली घटनाओं को जानने का माध्यम होती है। साहित्य सृजन की अन्य विधाओं की भाँति यहाँ भी लेखन की समझ होती है, हाँ पत्रकारिता साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा अधिक सजग, तीव्र और प्रभावी नजर आती है। साहित्य का उद्देश्य समाज को राह दिखाना होता है और पत्रकारिता का उद्देश्य भी अंततः समाज को राह दिखाना ही होता है। ‘‘साहित्यकार बहुधा अपने देशकाल से प्रभावित होता है। जब कोई लहर देश में उठती है तो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है। उसकी विशाल आत्मा अपने देश-बंधुओं के कष्टों से विकल हो उठती है और इस तीव्र विकलता में वह रो उठता है, पर उसके रुदन में व्यापकता होती है। वह स्वदेश का होकर भी सार्वभौमिक होता है।’’1 सामाजिक जीवन में घटनाओं, संघर्षों आदि के बारे में लोग जानना चाहते हैं, यही जिज्ञासा पत्रकारिता को जन्म देती है क्योंकि जब शक्ति संपन्न लोग असक्त लोगों पर अत्याचार करते हैं, तब उन घटनाओं का असर संपूर्ण समाज पर पड़ता है। जब तक हमारे पास प्रकाशन के लिये कागज और स्याही नहीं थी तब इन घटनाओं को साहित्य की अन्य विधाओं के माध्यम से बताया जाता था परंतु जब प्रकाशन सामग्री उपलब्ध हो गयी तब कागज पर लिखकर बताया जाने लगा। पत्रकारिता ने लोगों को उनके परिवेश से परिचित कराना प्रारंभ किया तो यह माध्यम शीघ्रता के साथ न सिर्फ अपनाया गया बल्कि प्रभावी भी सिद्ध हुआ। इन्द्रविद्यावाचस्पति तो पत्रकारिता को ‘पांचवां वेद’ मानते हैं। वे कहते हैं – ‘‘पत्रकारिता पांचवां वेद है, जिसके द्वारा हम ज्ञान-विज्ञान सम्बंधी बातों को जानकर अपना बंद मस्तिष्क खोलते हैं।’’2
वास्तव में पत्रकारिता भी साहित्य की भाँति समाज में चलने वाली गतिविधियों एवं हलचलों का दर्पण है। यह हमारे परिवेश में घट रही प्रत्येक सूचना को हम तक पहुँचाती है। देश-दुनिया में हो रहे नए प्रयोगों, कार्यों को हमें बताती है। इसी कारण विद्वानों ने पत्रकारिता को शीघ्रता में लिखा गया इतिहास कहा है। वर्तमान में पत्रकारिता सूचनाओं और समाचारों का संकलन मात्र न होकर मानव जीवन के व्यापक परिदृश्य को अपने आप में समाहित किए हुए है। यह शाश्वत नैतिक मूल्यों, सांस्कृतिक मूल्यों को समसामयिक घटनाचक्र की कसौटी पर कसने का साधन बन गई है। यह हमारी संस्कृति, सभ्यता और स्वतंत्रता की आवाज को बुलन्द करती है। पत्रकारिता हमें सामाजिक ज्ञान देकर सजग करती है।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष प्रो. अंजन कुमार बनर्जी के शब्दों में-‘‘पत्रकारिता पूरे विश्व की ऐसी देन है, जो सबमें दूर दृष्टि प्रदान करती है।’’3 वास्तव में प्रतिक्षण परिवर्तनशील जगत का दर्शन पत्रकारिता के द्वारा ही संभव है।
जिस प्रकार साहित्य सृजन के लिये वर्तमान घटनाओं का चिंतन और अभिव्यक्ति की आकाँक्षा होती है, उसी प्रकार पत्रकारिता को भी चिंतन एवं अभिव्यक्ति की आकाँक्षा ने जन्म दिया है। चूँकि मनुष्य सामाजिक प्राणी होता है, वह अपने लोगों की कुशलता का समाचार पाना चाहता है, इसके लिये पहले पत्र व्यवहार हुआ करता था, बाद में यह स्थान पत्रकारिता ने ले लिया। जिस प्रकार पत्र-लेखन को कला माना गया उसी प्रकार पत्रकारिता भी कला बन गयी। इस प्रकार पत्र लेखन और पत्रकारिता को सैद्धांतिक दृष्टि से देखते हुए त्वरित रचा गया साहित्य ही मानना चाहिये। यही कारण है कि पत्रकारिता के प्रारंभ में पत्रकार को साहित्यिक होना आवश्यक था। जो लोग धनिक थे, मगर साहित्यिक नहीं थे उन्होंने साहित्यकारों को ही पत्र संपादन का कार्य सौंपा। पत्रकारिता और साहित्य को समझने के लिये प्रख्यात शायर अकबर इलाहाबादी की साहित्यिक पँक्तियाँ ही पर्याप्त हैं-
‘‘खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो’’4
पत्रकारिता साहित्य की भाँति लोक-मंगल एवं जनहित के लिए काम करती है। वह पाठकों में वैचारिक उत्तेजना जगाने का काम करती है। पीड़ितों, वंचितों के दुख-दर्दों में आगे बढ़कर उनका सहायक बनना पत्रकारिता की प्रकृति है।
भारतीय संदर्भों में साहित्य और पत्रकारिता लोकमंगल की भावना से अनुप्राणित है। वह समाज से कुछ लेकर उसे बहुत अधिक देना चाहती है ।
साहित्य और पत्रकारिता
का अर्थ एवं परिभाषा
साहित्यिक पत्रकारिता को समझने के लिये हमें पहले साहित्य और पत्रकारिता को अलग-अलग समझना होगा। दोनों के उद्देश्यों और प्रकृति को समझे बिना साहित्यिक पत्रकारिता को समझना कठिन है।
साहित्य – अर्थ एवं परिभाषा
‘‘कहा जाता है कि ‘साहित्य’ शब्द का प्रचलन इस अर्थ में सातवीं-आठवीं से हुआ है। इससे पहले संस्कृत में ‘साहित्य’ के स्थान पर ‘काव्य’ शब्द का ही प्रयोग मिलता है। भामह, राजशेखर, कुन्तक, प्रभृति आचार्यों ने काव्य की परिभाषा करते हुए शब्द और अर्थ के सहभाव को ही काव्य बताया’’5 ‘‘इसी प्रसंग में उन्होंने ‘सहितौ’, ‘सहभाव’ आदि का उल्लेख किया, पर आगे चलकर ‘शब्द और अर्थ के सहभाव (साहित्य) के स्थान पर केवल सहभाव (साहित्य) ही रह गया।’’6 यह भी भाषा-विज्ञान का नियम है कि जब एक ही अर्थ में दो शब्दों का प्रयोग होने लगता है तो उनमें से किसी एक का अर्थ संकुचित या परिवर्तित हो जाता है। जब संस्कृत में भी ‘काव्य’ और ‘साहित्य’ दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में होने लगा तो आगे चलकर काव्य का अर्थ संकुचित हो गया, वह केवल कविता तक सीमिति रह गया जबकि ‘साहित्य’ का प्रयोग व्यापक रूप में- कविता, नाटक, उपन्यास, समीक्षा आदि सभी विधाओं के लिए होने लगा।
‘‘आधुनिक युग में ‘साहित्य’ शब्द का प्रचलन अंग्रेजी के ‘लिटरेचर’ शब्द की भाँति दो अर्थों में होता है-व्यापक अर्थ में वह समस्त लिखित एवं मौखिक रचनाओं के अर्थ में प्रयुक्त होता है- जबकि संकुचित अर्थ में वह ‘काव्य’ के पर्याय के रूप में गृहीत होता है। दूसरे शब्दों में एक ओर वह समस्त प्रकार के ग्रन्थ-समूह को सूचित करता है, तो दूसरी ओर वह एक विशेष कोटि की रचनाओं तक ही सीमित है।’’7 पाश्चात्य विद्वानों ने दोनों अर्थों का अंतर स्पष्ट करने के लिए एक को ‘ज्ञान का साहित्य’ कहा है तो दूसरे वर्ग की रचनाओं को ‘भावना या शक्ति का साहित्य’ की संज्ञा दी है।
विद्वान डी क्विनसी ने दोनों की तुलना करते हुए लिखा है कि जहाँ ज्ञान के साहित्य का लक्ष्य सिखाना होता है, वहाँ भावना के साहित्य का लक्ष्य भावनाओं को जाग्रत करना होता है; एक में तथ्यों और उपदेशों की प्रधानता होती है जबकि दूसरे में कला और सौन्दर्य की अभिव्यक्ति होती है।
आचार्य भामह ने अपने ‘काव्यालंकार’ में लिखा है- ‘शब्द और अर्थ मिलाकर काव्य (साहित्य) होता है।’
आचार्य कुन्तक ने किंचित विस्तार से परिभाषा करते हुए लिखा-‘‘शब्द और अर्थ का मनोहर विन्यास साहित्य है, जिसमें शब्द और अर्थ परस्पर इतने संतुलित हों कि न तो कोई न्यून हो और न कोई अधिक हो।’’
कथा सम्राट प्रेमचंद साहित्य की परिभाषा इस प्रकार देते हैं- ‘‘सत्य से आत्मा का सम्बंध तीन प्रकार का है-‘एक जिज्ञासा का, दूसरा प्रयोजन का, और तीसरा आनंद का। जिज्ञासा का सम्बंध दर्शन का विषय है, प्रयोजन का सम्बंध विज्ञान का विषय है और आनंद का सम्बंध केवल साहित्य का विषय है। सत्य जहाँ आनंद का स्रोत बन जाता है, वहीं वह साहित्य हो जाता है।’’
विश्वकवि रविन्द्रनाथ टैगोर के शब्दों में- ‘‘जिस अभिव्यक्ति का मुख्य लक्ष्य प्रयोजन के रूप को व्यक्त करना नहीं, अपितु विशुद्ध आनंद रूप को व्यक्त करना है, उसी को मैं साहित्य कहता हूँ।’’
प्रसिद्ध अंग्रेज समालोचक द क्विन्सी कहते हैं- ‘ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं का लक्ष्य मानव का ज्ञानवर्द्धन करना है, उसे शिक्षा देना है। इसके विपरीत साहित्य मानव का अंतःविकास करता है, उसे जीवन जीने की कला सिखाता है, चित्तप्रसादन द्वारा उसमें नूतन प्रेरणा एवं स्फूर्ति का संचार करता है।’’
साहित्य के तत्व –
साहित्य को सम्यक रूप से समझने के लिए उसके लक्षणों के साथ-साथ उसके प्रमुख तत्वों की जानकारी भी अपेक्षित है। साहित्य के मुख्यतः चार तत्व निर्धारित किये गये हैं- 1. भाव 2. कल्पना 3. बुद्धि और 4. शैली। साहित्य का सर्वप्रमुख तत्व ‘भाव’ ही है- यही उसकी आत्मा है।
आचार्य भरतमुनि ने स्पष्ट रूप से साहित्य का लक्ष्य भावानुभूति को घोषित करते हुए भावनाओं का वर्गीकरण और विश्लेषण किया है। उन्होंने भावों के दो वर्ग किये हैं-संचारी और स्थायी। आगे चलकर भोजराज, अभिनवगुप्त, मम्मट, विश्वनाथ आदि आचार्यों ने भरत के भाव सम्बंधी विवेचन को और आगे बढ़ाया। भाव के सम्बंध में भारतीय आचार्यों ने तीन अंगों का विवेचन किया है- आलंबन, उद्दीपन और अनुभाव।
साहित्य का दूसरा तत्व ‘कल्पना’ है। साहित्य में भावनाओं का चित्रण कल्पनाशक्ति के प्रयोग के द्वारा ही संपन्न होता है। ‘‘एक साधारण से साधारण घटना को भी कवि कल्पना के रंग में रंगकर ऐसा भव्य रूप प्रदान कर देता है कि वह हमारे हृदय को बलात् आकर्षित कर लेता है।’’8
साहित्य का तीसरा तत्व ‘बुद्धि’ है। ‘‘बुद्धि का सम्बंध तथ्यों, विचारों और सिद्धांतों से है। साहित्य में किसी न किसी मात्रा में तथ्यों, विचारों और सिद्धांतों का भी समावेश किया जाता है। इनके अभाव में कोरी भावनाओं का स्पंदन दुःखी का चीत्कार बन जायेगी तथा बुद्धिशून्य कोरी कल्पना में और पागल के प्रलाप में कोई अंतर शेष नहीं रह जायेगा। अंततः साहित्य में वस्तुओं और घटनाओं का चित्रण उनके उचित रूप में ही किया जाता है। कथा-वस्तु की सूक्ष्म रेखाओं के निर्माण के लिए, घटनाओं की शृंखला को मिलाने के लिए और कार्य के अनुरूप फल दिखाने के लिए प्रत्येक प्रबंधकार, कहानीकार और उपन्यासकार को बुद्धि का प्रयोग करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त भावनाओं की सुदृढ़ ईंटों को वह विचारों के गारे से जोड़ कर काव्य भवन का निर्माण करता है। अतः न्यूनाधिक मात्रा में साहित्य में बुद्धितत्व भी सर्वत्र विद्यमान रहता है।’’9
साहित्य का चैथा तत्व ‘शैली’ है। ‘‘कवि या साहित्यकार जिस भाषा, जिस रूप और जिस ढंग से अपने भावों, विचारों या इतिवृत्ति को व्यक्त करता है, वही शैली है। शैली के अंतर्गत भाषा, शब्द-चयन, अलंकारों का प्रयोग, छन्दों का उपयोग, काव्यरूप आदि का समावेश किया जाता है। काव्य के प्रारंभिक तीन तत्व यदि उसके प्राण हैं तो शैली उसका शरीर है।’’10
पत्रकारिता – अर्थ एवं परिभाषा
पत्रकारिता को जर्नलिज्म भी कहा जाता है। ‘जर्नलिज्म’ शब्द फ्रैंच भाषा के शब्द ‘जर्नी’ से उपजा है। जिसका तात्पर्य है ‘प्रतिदिन के कार्यों अथवा घटनाओं का विवरण प्रस्तुत करना।’ पत्रकारिता मोटे तौर पर प्रतिदिन की घटनाओं का यथातथ्य विवरण प्रस्तुत करती है। पत्रकारिता वस्तुतः समाचारों के संकलन, चयन, विश्लेषण तथा सम्प्रेषण की प्रक्रिया है। पत्रकारिता अभिव्यक्ति की एक मनोरम कला है। इसका काम जनता एवं सत्ता के बीच एक संवाद-सेतु बनाना भी है। इन अर्थों में पत्रकारिता के फलित एवं प्रभाव बहुत व्यापक हैं। पत्रकारिता का मूल उद्देश्य है-सूचना देना, शिक्षित करना तथा मनोरंजन करना। इन तीनों उद्देश्यों में पत्रकारिता का सार-तत्व समाहित है। अपनी बहुमुखी प्रवृत्तियों के कारण पत्रकारिता व्यक्ति और समाज के जीवन को गहराई से प्रभावित करती है। पत्रकारिता देश की जनता की भावनाओं एवं चित्तवृत्तियों से साक्षात्कार करती है। सत्य का शोध एवं अन्वेषण पत्रकारिता की पहली शर्त है। इसके सही अर्थ को समझने का प्रयास करें तो अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध दर्ज करना इसकी महŸवपूर्ण माँग है।
डाॅ. अर्जुन तिवारी ने इनसाइक्लोपीडिया आफ ब्रिटेनिका के आधार पर इसकी व्याख्या इस प्रकार की है – ‘‘पत्रकारिता के लिए ‘जर्नलिज्म’ शब्द व्यवहार में आता है, जो ‘जर्नल’ से निकला है। जिसका शाब्दिक अर्थ है – ‘दैनिक’। दिन-प्रतिदिन के क्रियाकलापों, सरकारी बैठकों का विवरण जर्नल में रहता था। 17वीं एवं 18वीं शताब्दी में पीरियाडिकल के स्थान पर लैटिन शब्द ‘डियूनरल’ और ‘जर्नल’ शब्दों का प्रयोग आरंभ हुआ। 20वीं सदी में गंभीर समालोचना एवं विद्वतापूर्ण प्रकाशन को इसके अंतर्गत रखा गया। इस प्रकार समाचारों का संकलन-प्रसारण, विज्ञापन की कला एवं पत्र का व्यवसायिक संगठन पत्रकारिता है। समसामयिक गतिविधियों के संचार से सम्बद्ध सभी साधन चाहे वह रेडियो हो या टेलीविजन, इसी के अंतर्गत समाहित हैं।’’11
सच कहें तो पत्रकारिता समाज को मार्ग दिखाने, सूचना देने एवं जागरुक बनाने का माध्यम है। ऐसे में उसकी जिम्मेदारी एवं जवाबदेही बढ़ जाती है। यह सही अर्थों में एक चुनौती भरा काम है।
असहायों को सम्बल, पीड़ितों को सुख, अज्ञानियों को ज्ञान एवं मदोन्मत्त शासक को सद्बुद्धि देने वाली पत्रकारिता है, जो समाज-सेवा और विश्वबंधुत्व की स्थापना में सक्षम है। इसीलिए जेम्स मैकडोनल्ड ने इसे एक वरेण्य जीवन-दर्शन के रूप में स्वीकारा है – ‘‘पत्रकारिता को मैं रणभूमि से भी ज्यादा बड़ी चीज़्ा समझता हूँ। यह कोई पेशा नहीं वरन पेशे से ऊँची कोई चीज़्ा है। यह एक जीवन है, जिसे मैंने अपने को स्वेच्छापूर्वक समर्पित किया।’’12
समाज एवं समय के परिप्रेक्ष्य में लोगों को सूचनाएं देकर उन्हें शिक्षित करना ही पत्रकारिता का ध्येय है। पत्रकारिता मात्र रूखी-सूखी सूचनाएं नहीं होती वरन लोगों को जागरुक बनाती हैं, उन्हें फैसले करने एवं सोचने लायक बनाती है। संवाद की एक स्वस्थ प्रक्रिया का आरंभ भी इसके द्वारा होता है। डाॅ. अर्जुन तिवारी कहते हैं – ‘‘गीता में जगह-जगह पर शुभ-दृष्टि का प्रयोग है। यह शुभ-दृष्टि ही पत्रकारिता है। जिसमें गुणों को परखना तथा मंगलकारी तत्वों को प्रकाश में लाना सम्मिलित है। गाँधी जी तो इसमें समदृष्टि को महŸव देते रहे। समाजहित में सम्यक प्रकाशन को पत्रकारिता कहा जा सकता है। असत्य, अशिव एवं असुंदर के खिलाफ ‘सत्यं, शिवं, सुंदरम्’ की शंखध्वनि ही पत्रकारिता है।’’ इन सन्दर्भों के आलोक में विद्वानों की राय में पत्रकारिता की परिभाषाएं प्रस्तुत हैं –
‘‘ज्ञान और विचार शब्दों तथा चित्रों के रूप में दूसरे तक पहुँचाना ही पत्रकला है। छपने वाले लेख-समाचार तैयार करना ही पत्रकार नहीं रह गई है। आकर्षक शीर्षक देना, पृष्ठों का आकर्षक बनाव-ठनाव, जल्दी से जल्दी समाचार देने की त्वरा, देश-विदेश के प्रमुख उद्योग-धंधों के विज्ञापन प्राप्त करने की चतुराई, सुंदर छपाई और पाठक के हाथ में सबसे जल्दी पत्र पहुँचा देने की त्वरा, ये सब पत्रकार कला के अंतर्गत रखे गए ।’’13 – रामकृष्ण रघुनाथ खाडिलकर
‘‘प्रकाशन, संपादन, लेखन एवं प्रसारणयुक्त समाचार माध्यम का व्यवसाय ही पत्रकारिता है।’’14 – न्यू वेबस्टर्स डिक्शनरी
‘‘मैं समझता हूँ कि पत्रकारिता कला भी है, वृत्ति भी और जनसेवा भी। जब कोई यह नहीं समझता कि मेरा कर्तव्य अपने पत्र के द्वारा लोगों का ज्ञान बढ़ाना, उनका मार्गदर्शन करना है, तब उसे पत्रकारिता की चाहे जितनी ट्रेनिंग दी जाए, वह पूर्ण रूपेण पत्रकार नहीं बन सकता।’’15 – विखेम स्टीड
‘‘सामयिक ज्ञान का व्यवसाय ही पत्रकारिता है। इसमें तथ्यों की प्राप्ति, मूल्याँकन एवं प्रस्तुतिकरण होता है।’’16 – सी.जी. मूलर
‘‘पत्रकार का काम या व्यवसाय ही पत्रकारिता है।’’17 – हिंदी शब्द सागर
‘‘पत्रकारिता पत्र-पत्रिकाओं के लिए समाचार लेख आदि एकत्रित करने, संपादित करने, प्रकाशन आदेश देने का कार्य है।’’18 – डाॅ. बद्रीनाथ कपूर
‘‘पत्रकारिता एक पेशा नहीं है बल्कि यह तो जनता की सेवा का माध्यम है । पत्रकारों को केवल घटनाओं का विवरण ही पेश नहीं करना चाहिए, आम जनता के सामने उसका विश्लेषण भी करना चाहिए। पत्रकारों पर लोकतांत्रिक परंपराओं की रक्षा करने और शांति एवं भाईचारा बनाए रखने की भी जिम्मेदारी आती है।’’19 – डाॅ. शंकरदयाल शर्मा
पत्रकारिता की प्रकृति
सूचना, शिक्षा एवं मनोरंजन प्रदान करने के उद्देश्यों में ही पत्रकारिता का सार निहित नहीं है। बल्कि पत्रकारिता व्यक्ति एवं समाज के बीच संवाद का माध्यम भी है। पत्रकारिता व्यक्ति एवं समाज को गहराई तक प्रभावित करती है। सत्य के शोध एवं अन्वेषण में पत्रकारिता एक सुखी, संपन्न एवं आत्मीय समाज बनाने की प्रेरणा से भरपूर है। पत्रकारिता का मूल उद्देश्य अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध व्यक्त करना है। इस प्रकार पत्रकारिता की प्रकृति व्यवस्था विरोधी होती है।
पत्रकारिता की प्रकृति समाज सुधारक एवं सहयोगी की है। वह अन्याय, दमन से त्रस्त जनता में आशा को जन्म देती है। अत्याचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ती है। पत्रकारिता की इस प्रकृति को इस प्रकार समझा जा सकता है-
सूचना देना- पत्रकारिता दुनिया-जहान में घट रही घटनाओं, बदलावों एवं हलचलों से लोगों को अवगत् कराती है। इसके माध्यम से जनता को प्रतिदिन हो रहे परिवर्तनों की जानकारी मिलती रहती है। समाज के प्रत्येक वर्ग की रुचि के लोगों के समाचार अख़बार के विविध पृष्ठों पर बिखरे होते हैं, लोग उनसे अपनी मनोनुकूल सूचनाएं प्राप्त करते हैं। इसके माध्यम से जनता को सरकारी नीतियों एवं कार्यक्रमों की जानकारी भी मिलती रहती है। एक प्रकार से पत्रकारिता जनहितों की संरक्षिका के रूप में सामने आई है।
शिक्षित करना- सूचना के अलावा पत्रकारिता ‘लोक गुरु’ की भूमिका भी निभाती है। वह लोगों में तमाम सवालों पर जागरुकता लाने एवं जनमत बनाने का काम भी करती है। पत्रकारिता आम लोगों को उनके परिवेश के प्रति जागरुक बनाती है और उनकी विचार करने की शक्ति का पोषण करती है। पत्रकारों द्वारा तमाम माध्यमों से पहुँचाई गई बात का जनता पर सीधा असर पड़ता है। इससे पाठक या दर्शक अपनी मनोभूमि तैयार करता है। संपादकीय, लेखों, पाठकों के पत्र, परिचर्चाओं, साक्षात्कारों इत्यादि के प्रकाशन के माध्यम से जनता को सामयिक एवं महत्त्वपूर्ण विषयों पर अख़बार तथा लोगों की राय से रू-ब-रू कराया जाता है। वैचारिक चेतना में उद्वेलन का काम भी पत्रकारिता बेहतर तरीके से करती नजर आती है। ‘‘जनता में स्वस्थ चिंतन के भाव और विवेचना के गुण को बल मिले इसके लिए आवश्यक है उन्हें बिना किसी बाधा के देश की परिस्थितियों के बारे में खबरें मिलती रहें। जब समाचारों के आदान-प्रदान में रुकावट नहीं रहेगी तभी अख़बार जनता को विभिन्न मसलों पर शिक्षित करने का अपना दायित्व पूरा कर सकते हैं।’’20 इस प्रकार पत्रकारिता जन शिक्षण का एक साधन है।
मनोरंजन करना- समाचार पत्र, रेडियो एवं टीवी ज्ञान एवं सूचनाओं के अलावा मनोरंजन का भी विचार करते हैं। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया पर आ रही विषय वस्तु तो प्रायः मनोरंजन प्रधान एवं रोचक होती है। पत्र-पत्रिकाएं भी पाठकों की माँग का विचार कर तमाम मनोरंजक एवं रोचक सामग्री का प्रकाशन करता हैं। मनोरंजक सामग्री और उनका रंगीलापन स्वाभाविक तौर पर पाठकों को आकृष्ट करती है। इससे उक्त समाचार पत्र-पत्रिका की पठनीयता प्रभावित होती है। मनोरंजन के माध्यम से कई पत्रकार शिक्षा का संदेश भी देते हैं। अलग-अलग पाठक वर्ग का विचार कर भिन्न-भिन्न प्रकार की सामग्री पृष्ठों पर दी जाती है ताकि सभी आयु वर्ग के पाठकों को अख़बार अपना लग सके। फीचर लेखों, कार्टून, व्यंग्य चित्रों, सिनेमा, बाल, पर्यावरण, वन्य पशु, रोचक-रोमांचक जानकारियों एवं जनरुचि से जुड़े विषयों पर पाठकों की रुचि का विचार कर सामग्री दी जाती है। वस्तुतः पत्रकारिता समाज का दर्पण है। उसमें समाज के प्रत्येक क्षेत्र में चलने वाली गतिविधि का सजीव चित्र उपस्थित होता है। वह घटना, घटना के कारणों एवं उसके भविष्य पर प्रकाश डालती है। वह बताती है कि समाज में परिवर्तन के कारण क्या हैं और उसके फलित क्या होंगे? इस प्रकार पत्रकारिता का आकाश बहुत व्यापाक होता है।
पत्रकारिता का महत्त्व
पत्रकारिता का क्षेत्र एवं परिधि व्यापक है। ‘‘समाचारपत्र सिर्फ खबरें ही नहीं देता है, उनका महत्त्व बताता है और लोगों को शिक्षित करता है। इसीलिए उसे लोकगुरु कहा गया है।’’21 जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हो रही हलचलों, संभावनाओं पर विचार कर एक नई दिशा देने का काम पत्रकारिता के क्षेत्र में आ जाता है। पत्रकारिता जीवन के प्रत्येक पहलू पर नजर रखती है। इन अर्थों में उसका क्षेत्र व्यापक है। एक पत्रकार के शब्दों में ‘‘समाचार पत्र जनता की संसद है, जिसका अधिवेशन सदैव चलता रहता है।’’ सजगता और गंभीरता पत्रकार में सदैव रहनी चाहिए। तभी तो ‘‘एक वरिष्ठ पत्रकार ने सही लिखा है कि संवाददाता के कान में यह बात भर दी जानी चाहिए कि समाचार अति आग्नेय पदार्थ है जिसका असावधानीपूर्वक या दूषित इरादे से प्रयोग करना विध्वंसकारी हो सकता है।’’22
पत्रकारिता तमाम जनसमस्याओं एवं सवालों से जुड़ी होती है, समस्याओं को प्रशासन के सम्मुख प्रस्तुत कर उस पर बहस को प्रोत्साहित करती है। समाज जीवन के हर क्षेत्र में आज पत्रकारिता की महत्ता स्वीकारी जा रही है। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, विज्ञान, कला सब क्षेत्र पत्रकारिता के दायरे में हैं। इन संदर्भों में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आर्थिक पत्रकारिता का महत्त्व खासा बढ़ गया है। नई आर्थिक नीतियों के प्रभावों तथा जीवन में कारोबारी दुनिया एवं शेयर मार्केट के बढ़ते हस्तक्षेप ने इसका महत्त्व बढ़ा दिया है।
तमाम क्षेत्रीय-प्रांतीय अख़बार आज अपने आँचलिक संस्करण निकाल रहे हैं, पर उनमें भी राजनीतिक खबरों, बयानों का बोलबाला रहता है। इसके बाद भी आँचलिक समाचारों के चलते पत्रकारिता का क्षेत्र व्यापक हुआ है और उसकी महत्ता बढ़ी है।
पत्रकारिता के प्रारंभिक दौर में घटना को यथातथ्य प्रस्तुत करना ही पर्याप्त माना जाता था। परिवर्तित परिस्थितियों में पाठक घटनाओं के मात्र प्रस्तुतीकरण से संतुष्ट नहीं होता। वह कुछ ‘‘और कुछ’’ भी जानना चाहता है। इसी ‘‘और’’ की संतुष्टि के लिए आज संवाददाता घटना की पृष्ठभूमि और कारणों की भी खोज करता है। पृष्ठभूमि के बाद वह समाचार का विश्लेषण भी करता है। इस विश्लेषणपरकता के कारण पाठक को घटना से जुड़े विविध मुद्दों का भी पता चल जाता है।
पत्रकार का मुख्य कार्य अपने पाठकों को तथ्यों की सूचना देना है। जहाँ संभव हो वहाँ निष्कर्ष भी दिया जा सकता है। अपराध तथा राजनैतिक संवाददाताओं का यह मुख्य कार्य है। एक और मुख्य दायित्व प्रसार का है। आर्थिक-सामाजिक जीवन के बारे में तथ्यों का प्रस्तुतीकरण ही पर्याप्त नहीं वरन उनका प्रसार भी आवश्यक है। गंभीर विकासात्मक समस्याओं से पाठकों को अवगत् कराना भी आवश्यक है। पाठक को सोचने के लिए विवश कर पत्रकार का लेखन सम्भावित समाधानों की ओर भी संकेत करता है। विकासात्मक लेखन में शोध का भी पर्याप्त महŸव है। क्योंकि ‘‘यह कड़वा सच है कि जिस देश की जनता को सही और विश्वसनीय सूचनाएं नहीं मिल पातीं, उस जनता में हमेशा असुरक्षा की भावना घर कर जाती है। वास्तव में ऐसे देश के लोगों को पूरी तरह आजाद ही नहीं माना जा सकता है।’’23
पत्रकार को विभन्न भागों में विभक्त किया जा सकता है – उद्योग, कृषि, शिक्षा, आर्थिक गतिविधियाँ, नीति और योजना, परिवहन, संचार, ऊर्जा, श्रम, रोजगार, विज्ञान और तकनीक, रक्षा, परिवार नियोजन, स्वास्थ्य, शहरी एवं ग्रामीण विकास, निर्माण और आवास, पर्यावरण और प्रदूषण, राजनीति, विदेश, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, खेल, फिल्म आदि।
पत्रकारिता का महत्त्व छिपे तथ्यों को उजागर करने में स्वीकारा गया है। वह तमाम क्षेत्र की विशिष्ट सूचनाएं जनता को बताती है। जब जहाँ कोई व्यक्ति या अधिकारी कोई तथ्य छिपाना चाहता हो अथवा कोई तथ्य अनुद्घाटित हो, वहीं अन्वेषणात्मक पत्रकारिता प्रारंभ हो जाती है।
वर्तमान परिवेश में जहाँ प्रेस का दायरा विस्तृत हुआ हैं, वहीं उसकी महत्ता भी बढ़ी है। वह लोगों के होने और जीने में सहायक बन गयी है।
साहित्य और पत्रकारिता में समानताएं
जिस प्रकार साहित्य समाज की बात करता दिखाई देता है, उसी प्रकार पत्रकारिता भी समाज की बात करती प्रतीत होती है। इसी कारण साहित्य और पत्रकारिता में समानता पायी जाती है।
‘‘वस्तुतः साहित्यकार एवं पत्रकार परस्पराश्रित हैं। दोनों कलम के धनी होते हैं। इनकी कलम में अद्भुत शक्ति होती है। इनकी कलम जहाँ सामाजिक परिवर्तन की सशक्त आधारभूमि तैयार कर सकने में सक्षम है, वहीं शक्तिशाली सत्ताओं को भी बदल सकने में समर्थ हैं। दोनों अपने विकास और समृद्धि के लिए भी एक-दूसरे पर निर्भर हैं। पत्रकारिता, साहित्य को जन-जन तक पहुँचाती है तो साहित्य पत्रकारिता को संवेदनशील बनाकर प्रभावी बनाता है।’’24
‘‘हिंदी के चोटी के लेखक और कवि पहले पत्रकार रहे हैं और उनके साहित्यकार होने की पहचान बाद में हुई है।’’25
‘‘साहित्य-सृजन तथा पत्रकारिता में अटूट सम्बंध है। पत्रकारिता तो एक तरह से साहित्य-सम्वर्द्धन में तेजी लाती है, नयी प्रतिभाओं को उभरने का अवसर देती है तथा गुण-दोश और सुझावों को सामने रखती है।’’26 विद्वान साहित्यकार बर्नाड शाॅ का मानना है कि ‘‘कुशल पत्रकार साहित्यकार से भिन्न नहीं होता।’’
इस प्रकार माना जा सकता है कि ‘‘सर्वोत्तम पत्रकारिता साहित्य है और सर्वोत्तम साहित्य पत्रकारिता है।’’27
पण्डित कमलापति त्रिपाठी के उद्धरण में तो साहित्य की बात जोरदार शब्दों में आयी है – कवि के लिए अनुभूति की अभिव्यक्ति का, आलोचक के लिए जीवन की स्थूल और सूक्ष्म धारा के विवेचन का, साहित्य के लिए लौकिक और अलौकिक, यथार्थ और भावुक जगत को प्रकाश में लाने का पथ एक साथ ही उपस्थित करने में सिवा पत्रकारिता के आज कौन समर्थ है? साहित्य के छोटे-बड़े प्रवाहों को प्रतिबिम्बित करने में पत्रकारिता के समान दूसरा कौन सफल होता है।’’28
‘‘अगर साहित्य का काम संसार को ठीक-ठीक देखना और परखना है तो पत्रकारिता का भी पहला काम यही बताया गया है। इस उदद्ेश्य की बात तो छोड़ दीजिए, साधारणतः हम जो कुछ देखते हैं उसी से यह महसूस हो जाता है कि इन दोनों का सम्बंध क्या है, कितना है। हमें पुस्तकों के रूप में बहुत-सी ऐसी पाठ्य सामग्रियाँ मिलेंगी, जो कभी पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी थीं।’’29
पत्रकारिता हो अथवा साहित्य दोनों के लिये यदि ‘‘लिखना है तो भाषा शैली होनी ही चाहिए।’’30
यदि साहित्य के प्रमुख तत्वों- 1. भाव 2. कल्पना 3. बुद्धि 4. शैली को सम्मुख रखकर पत्रकारिता और साहित्य में समानता की बात करें तो पायेंगे कि दोनो में बहुत अधिक अंतर नहीं है।
‘‘साहित्य का सर्वप्रमुख तत्व ‘भाव’ है- यही उसकी आत्मा है।’’ यदि इस तथ्य को स्वीकार किया गया है तो यह भी स्वीकार कर लेना चाहिये कि ‘भाव’ ही के कारण पत्रकारिता का जन्म हुआ है और पत्रकारिता भावों को पुष्ट करने के लिए तथ्यों को तलाशती है।
साहित्य का दूसरा तत्व ‘कल्पना’ है। साहित्य में भावनाओं का चित्रण कल्पनाशक्ति के प्रयोग के द्वारा ही संपन्न होता है। एक साधारण सी साधारण घटना को भी कवि कल्पना के रंग में रंगकर ऐसा भव्य रूप प्रदान कर देता है कि वह हमारे हृदय को एकाएक आकर्षित कर लेता है। हालाँकि पत्रकारिता में कल्पना के लिए कोई विशेष स्थान नहीं है। ‘‘साहित्य-जगत का सम्राट ‘भाव’ और ‘कल्पना’ उसकी दासी है।’’31 अर्थात् भावशून्य कल्पना का साहित्य में कोई स्थान नहीं होना चाहिये, ताकि रचना की साहित्यिकता नष्ट होने से बच सके। पत्रकारिता में मुख्य ‘तथ्य’ होते हैं और कल्पना तथ्यों तक पहुँचने का मार्ग तलाशती है। यही तथ्य किसी साहित्यकार में भावोत्पादन करते हैं, जिन्हें वह कल्पना के घोड़े पर चढ़कर साहित्य की रचना करता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि साहित्य और पत्रकारिता में कल्पना को नाममात्र का स्थान प्राप्त है।
साहित्य का तीसरा तत्व ‘बुद्धि’ है। बुद्धि का सम्बंध तथ्यों, विचारों और सिद्धांतों से है। साहित्य में किसी न किसी मात्रा में तथ्यों, विचारों और सिद्धांतों का भी समावेश किया जाता है। पत्रकारिता में बुद्धि का स्थान महŸवपूर्ण है। सभी तथ्य बुद्धिबल पर ही जुटाये जाते हैं, तभी समाचार में सत्यता बनी रहती है। साहित्य में कल्पना से काम चल सकता है मगर समाचार में बुद्धिबल पर जुटाये गये तथ्य और इन तथ्यों के आधार पर प्रस्तुत घटना का ब्यौरा सत्य को उद्घाटित करता है।
साहित्य का चैथा तत्व ‘शैली’ है। कवि या साहित्यकार जिस भाषा, जिस रूप और जिस ढंग से अपने भावों, विचारों या इतिवृत्ति को व्यक्त करता है, वही शैली है। शैली के अंतर्गत भाषा, शब्द-चयन, अलंकारों का प्रयोग, छन्दों का उपयोग, काव्यरूप आदि का समावेश किया जाता है। काव्य के प्रारंभिक तीन तत्व यदि उसके प्राण हैं तो शैली उसका शरीर है। ठीक यही बात पत्रकारिता के लिये भी कही जा सकती है। पत्रकारिता की भी अपनी शैली होती है। पत्रकारिता में सबसे महŸवपूर्ण बात सबसे पहले कही जाती है और सबसे कम महŸवपूर्ण बात सबसे बाद में। ऐसा इसलिये नहीं है कि पत्रकारिता साहित्य से अलग होनी चाहिये बल्कि इसलिये है कि साहित्य की अन्य विधाओं की रचना धैर्यपूर्वक रची जाती है ताकि कालजयी बन सके जबकि समाचार की रचना शीघ्रता में की जाती है ताकि आज का समाचार आज ही पाठकों तक पहुँच सके और पाठक उससे कुछ जान सकें।
सामाजिक दृष्टि से देखा जाय तो ‘‘सामाजिक प्राणी के रूप में पत्रकारों का तथा साहित्यकारों का मूल उद्देश्य समान ही जान पड़ता है।’’
साहित्य और पत्रकारिता में अंतः सम्बंध
साहित्य और पत्रकारिता के बीच एक अटूट रिश्ता रहा है। एक जमाना वह था जब इन दोनों को एक-दूसरे का पर्याय समझा जाता था। ज्यादातर पत्रकार साहित्यकार थे और ज्यादातर साहित्यकार पत्रकार। ‘‘हिंदी पत्रकारिता में विभिन्न संपादकों की उपलब्घियों का एक विशिष्ट पक्ष है-गद्य की विविध विधाओं के विकास एवं उन्नयन में संपादकों द्वारा महत् भूमिका का निर्वाह। इसके अतिरिक्त भाषागत् विकास एवं विस्तार में हिंदी संपादकों की लेखन शैली ने सशक्त पीठिका निर्मित की है। सुप्रसिद्ध दैनिक ‘आज’ के संपादक पं. बाबूराव विष्णु पराड़कर ने गुजराती, बंगला, मराठी तथा अन्य स्रोतों से दो सौ नये शब्दों का हिंदी में प्रचलन कराया है।’’32
पत्रकारिता में पराड़कर जी के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है किंतु क्या उन्हें विशुद्ध पत्रकार ही मानना चाहिए? साहित्य में भी पराड़कर जी ने कम योगदान नहीं किया तभी तो ‘‘पत्रकार पराड़कर जी भाषा के भी आचार्य मान लिये गये थे। व्याकरण सम्बंधी उनकी मान्यताएँ भी हिंदी वालों द्वारा सादर स्वीकार कर ली गयीं। वह साहित्य पर भी प्रकाश डालते रहते थे और साहित्यकारों की समस्याओं पर बराबर ध्यान रखते थे। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का उनका आंदोलन हिंदी-साहित्य की एक बहुत बड़ी सेवा थी। पत्रकार को-पत्र के संपादक को-‘साहित्यकारों का प्रेरक प्रोत्साहक और निर्माता होना चाहिए’ इस उक्ति को पराड़कर जी ने सिद्ध कर दिया।’’33 ‘‘शिमला साहित्य-सम्मेलन के अध्यक्ष निर्वाचित होकर उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता के सम्बंध को ही पुष्ट किया।’’34
गर्दे जी को भी पत्रकार होने के बावजूद हिंदी साहित्यकारों में बड़ा स्थान मिला है। ‘‘उनका साहित्य का अध्ययन बड़ा गंभीर था। उन्हें भी अन्य अनेक पत्रकारों की तरह हिंदी का निर्माता होने का श्रेय प्राप्त था। बाबू श्यामसुंदर दास ने उन्हें हिंदी का निर्माता माना।’’35
‘‘भारतेन्दुजी यह मानकर चलते रहे कि समाज के विचारों और साहित्य की संवाहिका का ही नाम पत्रकारिता है, जो समाज और साहित्य के इतिहास में अपना एक स्थान तो बना ही लेती है, उनका निर्माण भी करती है।’’36
‘‘जो काम पुस्तकीय साहित्य से नहीं हो सकता था, उसे पत्र-पत्रिका के साहित्य ने किया और वह हमारा स्थायी धन बन गया।’’37
दैनिक से सम्बद्ध साहित्य-विशेषांक या परिशिष्ट में सभी सामग्रियाँ प्रकाशित होती हैं, जो साहित्य की विभिन्न विधाओं में आती हैं- कहानी, कविता, धारावाहिक उपन्यास, एकांकी, नाटक, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि को प्रकाशित किया जाता रहता है। हालांकि कुछ विद्वानों ने दैनिक पत्रों में साहित्य को भरपूर स्थान मिलने के बावजूद पत्रकारिता और साहित्य को भिन्न स्थापित करने का प्रयास किया है, ‘‘जो कुछ भी हो, दैनिक पत्रों को साहित्य से सर्वथा अलग नहीं रखा जा सका।’’38
साहित्यकार की पहली सीढ़ी के विषय में लेखक हेरम्ब मिश्र का मानना है कि ‘‘और किसी दृष्टि से नहीं तो इस दृष्टि से तो पत्रकारिता का साहित्यिक महŸव है ही कि उसी के माध्यम से छोटे-बड़े साहित्यकार प्रकाश में आये हैं और आते रहेंगे। यह तो स्पष्ट ही है कि बड़ा साहित्यकार एकाएक प्रकाश में नहीं आ जाता, न ग्रन्थ-रचना से ही उसका विज्ञापन होता है। पहले वह पत्र-पत्रिकाओं में अपनी फुटकर रचनाओं के प्रकाशन से ही लोगों के सामने आता है।’’ यह पत्रकारिता और साहित्य में समानता की ही तो बात है कि ‘‘अम्बिका प्रसाद वाजपेयी पत्रकार ही तो थे और उनका अधिकांश पत्रकारिता काल समाचारपत्रों के संपादन में ही बीता। किंतु, वह साहित्यकार भी थे। तभी तो 1939 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के 26 वें अधिवेशन में, जो काशी में हुआ था, वह सभापति-पद पर सुशोभित किये गये। ‘परशियन इन्फ्लुएन्स आन हिंदी’ नामक ग्रन्थ, जिसका हिंदी अनुवाद ‘हिंदी पर फारसी का प्रभाव’ नाम से हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा प्रकाशित हुआ, हिंदी साहित्य को ही तो एक देन है। उन्होंने ‘अभिनव हिंदी व्याकरण’ भी रचा। क्या यह कोई पत्रकारिता की ही चीज थी? इसी प्रकार गणेशशंकर विद्यार्थी को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा माखनलाल चतुर्वेदी जैसे साहित्यकारों से मान्यता मिली।’’39
निष्कर्षतः ‘‘आजादी से पहले हिंदी पत्रकारिता का मात्र एक ही चेहरा था और वह था भारतीयता का चेहरा। किसी भी राष्ट्र के लिए आवश्यक होता है कि उसका अपना अध्यक्ष हो, अपना संविधान हो और अपनी प्रजा का उत्थान हो। प्रजा का उत्थान अथवा राष्ट्र का विकास तभी संभव है जब उस राष्ट्र का साहित्य समृद्ध हो। चूंकि भारतीय पत्रकारिता भी विरोध के रूप में जनमी थी और आदर्श राष्ट्र उसका उद्देश्य था, सो भारतीय पत्रकारिता ने सर्वप्रथम तीन जिम्मेदारियों का निर्वहन करना उचित समझा- पहली- स्वतंत्रता, दूसरी- साहित्यिक उत्थान और तीसरी- समाज सुधार।’’
चूंकि हमारे पास मौखिक साहित्य था, जो राजदरबार की वस्तु बनकर रह गया था। उसे जन-जन तक पहुँचाने के साधन नहीं थे। ऐसे में जब पत्र प्रकाशन का कार्य हुआ, तब साहित्य का वह रूप एकाएक सामने आया जो अनैतिक सत्ता का विरोध करना चाहता था। यह कार्य पत्रकारिता ने पूर्ण करा दिया। या यूँ भी कहा जा सकता है कि विरोध का स्वर मुखर होने के लिये पत्रकारिता के रूप में एक नयी विधा को साहित्यकारों अथवा देशप्रेमियों ने अपना लिया था। इस प्रकार भी पत्रकारिता और साहित्य के सम्बंध को विच्छेदित नहीं किया जा सकता है।
‘‘पत्रकारिता को साहित्य की उस विधा के रूप में माना जाना चाहिये जो साहित्य की अन्य विधाओं को अपनी कमर पर लादकर उन्हें जन-मन तक पहुँचाती है।’’
संदर्भ
1. मुंशी प्रेमचंद: साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ 24-25
2. आधुनिक पत्रकारिता – डाॅ. अर्जुन तिवारी, पृष्ठ 1
3. आधुनिक पत्रकारिता – डाॅ. अर्जुन तिवारी, पृष्ठ – प्रस्तावना से
4. प्रसिद्ध शायर अकबर इलाहाबादी का शेर
5. साहित्य विज्ञान, प्रथम खण्ड, पृष्ठ 19-20
6. साहित्यिक निबंध, गणपतिचंद्र गुप्त, पृष्ठ 3
7. साहित्यिक निबंध, गणपतिचंद्र गुप्त, पृष्ठ 4
8. साहित्यिक निबंध, गणपतिचंद्र गुप्त, पृष्ठ 7
9. साहित्यिक निबंध, गणपतिचंद्र गुप्त, पृष्ठ 9
10. साहित्यिक निबंध, गणपतिचंद्र गुप्त, पृष्ठ 10
11. आधुनिक पत्रकारिता – डाॅ. अर्जुन तिवारी, पृष्ठ – प्रस्तावना से
12. आधुनिक पत्रकारिता – डाॅ. अर्जुन तिवारी, पृष्ठ – प्रस्तावना से
13. आधुनिक पत्रकार कला – रा.र. खाडिलकर, पृष्ठ 2
14. पत्रकारिता का इतिहास एवं जनसंचार माध्यम – संजीव भानावत, पृष्ठ 3
15. पत्रकारिता का इतिहास एवं जनसंचार माध्यम – संजीव भानावत, पृष्ठ 3
16. पत्रकारिता का इतिहास एवं जनसंचार माध्यम – संजीव भानावत, पृष्ठ 3
17. हिंदी शब्द सागर, छठा भाग, पृष्ठ 2798
18. वैज्ञानिक परिभाषा कोष, पृष्ठ 117
19. आधुनिक पत्रकारिता – डाॅ. अर्जुन तिवारी
20. शिव कुमार दूबे, हिंदी पत्रकारिता इतिहास एवं स्वरूप, परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 62
21. पं. अम्बिकाप्रसाद वाजपेई, समाचारपत्र-कला, उत्तर प्रदेश संस्थान, लखनऊ, पृ. 2
22. डाॅ. नंद किशोर त्रिखा, समाचार, संकलन और लेखन, उत्तर प्रदेश संस्थान, लखनऊ, पृष्ठ 1
23. धनंजय चोपड़ा, पत्रकारिता तब से अब तक, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ, पृष्ठ 7
24. डाॅ. संजीव भानावत, पत्रकारिता के विविध परिदष्ष्य, रचना प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ 30
25. शिव कुमार दुबे, हिंदी पत्रकारिता: इतिहास एवं स्वरूप, परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ 66
26. शिव कुमार दुबे, हिंदी पत्रकारिता: इतिहास एवं स्वरूप, परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ 79
27. हेरम्ब मिश्र, संपूर्ण पत्रकारिता, अभिनव भारती, इलाहाबाद, पृष्ठ 154
28. हेरम्ब मिश्र, संपूर्ण पत्रकारिता, अभिनव भारती, इलाहाबाद, पृष्ठ 154
29. हेरम्ब मिश्र, संपूर्ण पत्रकारिता, अभिनव भारती, इलाहाबाद, पृष्ठ 154
30. हेरम्ब मिश्रा, संपूर्ण पत्रकारिता, अभिनव भारती, इलाहाबाद, पृष्ठ 154
31. साहित्यिक निबंध, गणपतिचंद्र गुप्त, पृष्ठ 9
32. डाॅ. गंगा नारायण त्रिपाठी, शांति प्रकाशन, इलाहाबाद, आमुख
33. हेरम्ब मिश्र, संपूर्ण पत्रकारिता, अभिनव भारती, इलाहाबाद, पृष्ठ 157
34. हेरम्ब मिश्र, संपूर्ण पत्रकारिता, अभिनव भारती, इलाहाबाद, पृष्ठ 157
35. हेरम्ब मिश्र, संपूर्ण पत्रकारिता, अभिनव भारती, इलाहाबाद, पृष्ठ 157
36. हेरम्ब मिश्र, संपूर्ण पत्रकारिता, अभिनव भारती, इलाहाबाद, पृष्ठ 160
37. हेरम्ब मिश्र, संपूर्ण पत्रकारिता, अभिनव भारती, इलाहाबाद, पृष्ठ 160
38. हेरम्ब मिश्र, संपूर्ण पत्रकारिता, अभिनव भारती, इलाहाबाद, पृष्ठ 160
39. हेरम्ब मिश्रा, संपूर्ण पत्रकारिता, अभिनव भारती, इलाहाबाद, पृष्ठ 156
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