स्वातंत्र्योत्तर हिंदी पत्रकारिता और साहित्यकार सन् 1948 से 1974 ई.

अमन कुमार

तत्कालीन परिस्थितियाँ
आजादी के बाद की पत्रकारिता के सामने कोई विशेष मुद्दा नहीं था। देश आजाद हो गया था। विधवा विवाह, बाल विवाह, शादी की उम्र क्या हो, सती प्रथा का विरोध-समर्थन, मुद्दों पर काफी लिखा जा रहा था और लिखना सार्थक भी रहा था। देश के नव-निर्माण, भविष्य की रूपरेखा पर फिलहाल कुछ था ही नहीं, अख़बार सुस्त पड़ते गये। उनके पास एक ही विषय था, उस समय की सरकार और सरकारी नीतियाँ। धीरे-धीरे सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता लुप्त हो गई, केवल राजनीतिक मुद्दे ही रह गये। जब कभी राजनैतिक विषयों का अभाव होता तो समाचार-पत्र दूसरे समाचारों की ओर देखते। पहले की पत्रकारिता उद्देश्यपूर्ण थी, उनका ध्येय पैसा कमाना नहीं था। आज की पत्रकारिता का उद्देश्य अधिक से अधिक विज्ञापन जुटाना है, अख़बार बेचना नहीं। इसके लिए चाहे उन्हें कुछ भी करना पड़े। पराधीन काल में पत्रकारिता का जो आदर्श स्थापित हुआ था, वह अब टूट रहा था। इसीलिए गणेशशंकर विद्यार्थी ने व्यथित मन से कहा था-‘‘जिन लोगों ने पत्रकारिता के पवित्र कार्य को अपना काम बना रखा है, उनमें बहुत कम ऐसे लोग हैं जो अपने चित्त को इस बात पर विचार का अवसर देते हैं कि हमें सच्चाई की लाज रखनी चाहिए, केवल अपनी मक्खन-रोटी के लिए दिनभर में कई रंग बदलना ठीक नहीं। इस देश में भी दुर्भाग्य से समाचार-पत्रों और पत्रकारों का यही मार्ग बनता जा रहा है-यहाँ भी अब बहुत से समचार-पत्र सर्वसाधारण के कल्याण के लिए नहीं रहे, सर्वसाधारण उनके प्रयोग की वस्तु बनते जा रहे हैं।’’
‘‘हिंदी पत्रकारिता के अतीत का इतिहास राष्ट्रीय पुनर्जागरण और स्वाधीनता संग्राम का इतिहास रहा है। दासता की जिस जंजीर में ‘बूढ़े भारत’ को 1857 में जकड़ लिया था, उस जंजीर को तोड़ फेंकने की प्रबल भावना से प्रेरित होकर हिंदी के पत्रकार संघर्ष की भूमिका में खरे उतरे थे। सांस्कृतिक नवोत्थान और राष्ट्रीय चेतना के विकास में समाचार-पत्रों व पत्रकारों का जो योगदान रहा है वह भुलाया नहीं जा सकता। बालमुकुन्द गुप्त की नौकरी इसलिए छुड़ाई गई थी कि उनके मालिक को यह आशंका थी कि गुप्तजी मालिकों की गैर-हाजिरी में गवर्नमेंट के खिलाफ लेख लिखेंगे। बालकृष्ण भट्ट को अपने पद से इसलिए त्यागपत्र देना पड़ा कि उन्होंने किसी की तारीफ एक सार्वजनिक मीटिंग में कर दी थी। इसी प्रकार द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी को भी अपने स्वाधीनता प्रेम के कारण नौकरी छोड़नी पड़ी थी। हिंदी के ख्यातिनाम पत्रकार अंग्रेजी हुकूमत के जमाने में जेलों में बंद रहे। यह प्रक्रिया प्रमाणित करती है कि पत्रकारों की स्वातन्त्र्य चेतना और दायित्वबोध भावना ने जनजीवन व राष्ट्रीय जीवन को प्रेरित किया है। बाबूराव विष्णु पराड़कर, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, गणेशशंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, कृष्णकांत मालवीय, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ श्रीराम शर्मा, कृष्णदत्त पालीवाल, रामवृक्ष बेनीपुरी, कन्हैयालाल मिश्र, श्रीनाथसिंह व अन्य बीसियों पत्रकारों को जेल की हवा खानी पड़ी। यह सब अकारण नहीं था इनके सामने देश की स्वाधीनता, सामाजिक बदलाव, सांस्कृतिक पुनर्जागरण जैसे महान् और व्यापक उद्देश्य थे। इसके लिए सतत् सक्रियता, जनसेवा, त्याग और बलिदान में पत्रकार संघर्ष करते रहे। स्वतंत्रता से पूर्व मुख्य ध्येय राष्ट्र तथा राष्ट्र की समस्याओं का समाधान करना ही था। राष्ट्रप्रेम, अहिंसा के सिद्धांत का प्रचार, समाज सुधार, भाषा-प्रेम आदि प्रमुख विषय उनके सम्मुख थे, परंतु 1947 ई. में स्वतंत्रता मिलने पर पत्रों के समक्ष स्पष्ट दिशाबोध नहीं रह गया। देश के विकास, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृति एवं राजनीतिक संरचना की कोई स्पष्ट या सर्वांगीण कल्पना अभी उभरकर सामने नहीं आई थी।’’1
आजादी के बाद का भारत जैसे एकदम बदल गया। सजीव-निर्जीव सभी वस्तुएं बदलने लगीं थीं। अंग्रेज भारत छोड़कर चले गये थे, मगर भारत में कुछ लोग ऐसे पैदा हो गये थे जो अंग्रेजों की चाल चल रहे थे। उनके लिए ‘‘सच्चाई एवं ईमानदारी, जीवन में सादगी, भारतीयता, ये सभी संकीर्णतावादी, प्रतिक्रियावादी, रूढ़िवादी बातें बन गयीं। नवसम्भ्रांतों के लिए धूर्तता, अवसरवादिता, ठाठ-बाट, मद्य एवं धूम्रपान प्रगति के पर्यायवाची बन गये। ऐसे में देशभक्ति से पूर्ण हिंदी पत्रकारिता ने भी पलटा खाया। कुछ पत्र यद्यपि काल-कवलित हो गये थे। अब पत्रकारिता मिशन नहीं व्यवसाय बन गया। सेठ पत्रों के मालिक बन गये, स्वतंत्रता मिलते ही हमारा जोश ठण्डा पड़ गया और हमारे सामने गतिरोध आ गया। हमारा आदर्श बदल गया और राष्ट्र की ओर से उदासीन होकर हम निजी अस्तित्व रक्षा की चिंता में डूब गये। स्वातंत्र्योत्तर साम्प्रदायिक परिवेश ने भी भारतीय पत्रकारिता को प्रभावित किया और पत्रकारिता के पुराने आदर्श टूटकर बिखर गये। व्यावसायिक प्रलोभनों की मार ने भी पत्रकारिता के आदर्श को कमजोर किया।’’2
आजादी के बाद तो देश में पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ आ गयी थी। शासकीय विज्ञापनों में अपना अस्तित्व तलाशने वाली पत्रकारिता लोभी हो गयी थी। अब पत्रकारिता सार्वजनिक न रहकर व्यक्तिगत हित के लिए होने लगी थी। इस काल में ‘‘पत्रों को औद्योगिक समस्याओं और परिवर्तनों का भी सामना करना पड़ रहा है। स्वतंत्रता के बाद जिस तरह काव्य, कला और संगीत आदि व्यवसाय बन चले, उसी प्रकार पत्रकारिता भी। आज भारत में पत्रकारिता व्यवसाय है। स्वतंत्र पत्रकारिता और सत्ता के बीच का संघर्ष अब शासन और पूँजीपीतियों के बीच का संघर्ष बन गया है। निष्पक्ष पत्रकारिता की माँग आज पूर्वापेक्षा कहीं अधिक है। जो पत्र व पत्रिका आदर्शोन्मुख होकर आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं उन्हें कई तरह के संकटों का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार समाचार-पत्रों का जो जन-देश सेवा का उद्देश्य था, वह क्षीण होता गया और पत्रकारिता में औद्योगिक और व्यापारिक प्रवृत्तियाँ स्थानापन्न होती गई।’’3
स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता में संपादकों को वेतनभोगी नौकर के रूप में रखना पत्रकारिता के मूल उद्देश्यों से दूर करता गया। मिशन के रूप में चलने वाली पत्रकारिता स्वतंत्रता के तुरंत बाद ही कमीशन तक जा पहुँची थी। ‘‘बदलते समय के साथ हिंदी पत्रकारिता में चाटुकारिता भी बढ़ी है जबकि आजादी से पूर्व नितान्त प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हिंदी पत्रकार अपनी अस्मिता और तेजस्विता को कायम रखने में पूर्ण सफल थे। निर्भीकता, स्वाभिमान और अपने प्रति उद्देश्यों के विरुद्ध उन्होंने कभी भी कोई समझौता नहीं किया और न ही मालिकों की व्यावसायिक प्रवृत्ति के आगे नतमस्तक हुए। पहले पत्रकारिता देश-सेवा की भावना से ओतप्रोत थी; साथ ही उसका सीधा सम्बंध समाज का अंग समझा जाता था। समाचारों से अधिक संपादकीय टिप्पणी पर जोर रहता था। जन-साधारण के लिए संपादक उनका नेता हुआ करता था। वह जन-साधारण के जीवन में घुला-मिला था। वह देश-सेवा के आदर्शों से प्रेरित था परंतु वेतनभोगी होने के कारण आज के संपादक को आदर्श की चिंता के बजाय उन्हें अपने ही स्वार्थ की चिंता है, वे व्यवसाय बुद्धि से चलित हैं।’’4
‘‘स्वाधीनता के बाद लिजलिजेपन से भरी जिस पीली पत्रकारिता ने जन्म लिया है, वह देश के युवा वर्ग, बौद्धिक वर्ग में व्याप्त असंतोष का कारण बनी। वह सेठात्रयी पत्रों की मानसिकता और व्यावसायिकता के खिलाफ नये क्रांतिकारी विचारों का मंच नहीं बन पाई है। इन्हीं नये मंचों की आवश्यकता अनुभव किये जाने के फलस्वरूप छोटी-छोटी पत्रिकाओं का प्रादुर्भाव हुआ और छोटी पत्रिकाओं के प्रकाशन से बड़े-बड़े लेखक भी बड़ी पत्रिकाओं में लिखने के बजाय छोटी पत्रिकाओं में लिखने लगे। इस प्रकार इन छोटी पत्रिकाओं ने समग्र देश के युगचेता बुद्धिजीवियों को अपनी ओर आकृष्ट किया। साथ ही इसने साहित्य में ‘आम आदमी’ को प्रतिष्ठित करने की दिशा में पहल की तथा स्वस्थ, स्वतंत्र, मौलिक और प्रखर चिंतन की नींव डाली। किंतु कुछ अधकचरे, महत्त्वाकांक्षी, दृष्टिहीन पत्रकारों व संपादकों ने छोटी-पत्रिकाओं के स्वरूप को भ्रष्ट भी किया है।’’5 किंतु इस काल में भी साहित्यिक पत्रकारिता अपना काम उसी नियत से कर रही थी जो उसकी स्वतंत्रता से पूर्व थी। साहित्यिक पत्रकारिता का अपना चरित्र इतना विकसित हो चुका था कि उसमें गिरावट के लिए स्थान जैसे बचा ही नहीं था। इस बात का प्रमाण आज भी वह स्वयं ही है। सीमित आय पर चलने वाली साहित्यिक पत्रकारिता में अभी उसका स्वाभिमान बाकी है। यही नहीं बल्कि साहित्य निरंतर प्रगति करता रहा। साहित्य ने नये आयाम व मानदंड अपनाये। वह कहानी और उपन्यास की सीमाओं से बाहर निकला और नई-नई विधाओं को प्रकाशित किया।
यही वह काल भी है जब पत्रकारिता को भी बाँटने का काम किया गया। स्वतंत्रता से पूर्व पत्रकारिता एक थी, उसका उद्देश्य एक था, जिससे सभी सुपरिचित थे। किंतु आजादी के बाद की पत्रकारिता बंट गयी। उससे साहित्यिक पत्रकारिता को अलग किया जाने लगा। राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए राजनीतिक पत्रकारिता प्रारंभ हो गयी लेकिन वह साहित्यिक पत्रकारिता को समाप्त नहीं कर पायी और न ही कर सकेगी। स्वातंत्र्योत्तर भारत में कदाचित् ही ऐसा कोई पत्र मिलेगा जिसने साहित्य की विभिन्न विधाओं को प्रकाशित कर साहित्य वृद्धि न की हो। विविध पत्र-पत्रिकाओं ने साहित्य को कई तरह से समृद्ध और विकसित किया है, इसमें दैनिक पत्रों, साप्ताहिक पत्रों और मासिक व त्रैमासिक पत्रों के साहित्यिक योगदान अविस्मरणीय रहेगा।
साहित्यिक अभिरुचि
स्वतंत्रता के पश्चात् भारत के शिक्षित समाज का रुझान साहित्यिकता की ओर अधिक बढ़ता हुआ प्रतीत होता है। क्योंकि इस काल में एकाएक साहित्यिक पत्रिकाओं के पाठक बढ़े। अब साहित्यिक पत्रिकाओं को बेचने के लिए अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ रही थी। साहित्यिक पत्र तनाव देने वाले नहीं अपितु सुख और शान्ति देने वाले ही अधिक होते थे। लेखकों की भी इस दौर में कमी नहीं रही थी। उनमें अपनी बात को कहने का गुण भी खूब था। अच्छे लेखक के लिए प्रसिद्ध समीक्षक रिचर्ड्स ने श्रेष्ठ और सफल लेखक की चर्चा करते हुए लिखा है कि ‘‘प्रेषणीयता का गुण प्रत्येक लेखक की सफलता की पहचान है।’’ इसी तथ्य को स्वर्गीय रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी काव्य की भूमिका में इस प्रकार स्पष्ट किया है, ‘‘कोई भी श्रेष्ठ रचना तभी सफल हो सकती है जबकि उसमें कहा गया तत्व पाठक की चेतना में सीधे प्रविष्ट कर जाए।’’ लेखक और पाठक के बीच रचना एक सशक्त कड़ी का काम करती है यदि यह कड़ी मजबूत होती है तो लोगों में साहित्यिक अभिरुचि जागृत हो सकती है।
स्वतंत्र्योत्तर पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, कविता, उपन्यास और संस्मरण आदि की रोचकता और समरसता हमारे उदास मन को शांति व सुखी बना देती है। ‘‘स्वातंत्र्योत्तर पत्र-पत्रिका ने जहाँ सांस्कृतिक अभिरुचि को प्रोत्साहित किया, नवचेतना का विकास किया और सामाजिक जीवन को सुधारकर परिष्कार और जाग्रति की राह दिखाई है।’’6
पत्रकारिता में प्रमुख साहित्यकार
पत्रकारिता का यह काल इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इस समय अफरा-तफरी मची थी। पत्र-पत्रिकाओं के संपादक अपनी बात कहने के लिए नये-नये तरीके अपना रहे थे। यह पत्रकारिता और साहित्य के लिये भले ही संक्रमणकाल हो मगर उन्हें कुछ करने व सीखने का युग भी था। इस काल में जो लेखक व पत्रकार मैदान में जमे थे, उनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं- अनंत मिश्र, लाला जगतनारायण, गंगाप्रसाद गुप्त, कृष्णदत्त पालीवाल, यज्ञदत्त विद्यालंकार, भीमसेन विद्यालंकार, नटवरलाल चतुर्वेदी, प्यारेलाल गौड़, अवन्ति बिहारी माथुर, ठाकुर प्रताप सिंह, चंद्रमाराय शर्मा, बिहारीलाल, डाॅ. एल.एन. सिन्हा, भौमदत्त दीक्षित, यशोदा देवी, बिहारीलाल गुप्त, बी.एन.नाथ, दुर्गादत्त जोशी, धर्मदेव वैद्य राज, संतराम, बी.ए., रामदेवी बाई, चतुरसेन शास्त्री, देवव्रत शर्मा, रामदास गौड़, उदित नारायणदास, सिद्धेश्वर शर्मा, गोपीनाथ गुप्त आदि।
प्रमुख पत्र
इस काल में जो प्रमुख पत्र प्रकाशित हो रहे थे उनमें कुछ इस प्रकार हैं-
सन्मार्ग: वाराणसी, संपादक-अनंत मिश्र, पंजाब केसरी: दैनिक, जालंधर, संपादक-लाला जगतनारायण, नवयुग: अर्ध साप्ताहिक, कानपुर, संपादक-गंगाप्रसाद गुप्त , प्रणवीर: अर्ध साप्ताहिक, नागपुर, संपादक-भैयादास एस. मंदड़ा, काॅन्फरेंस, सैनिक: साप्ताहिक, आगरा, संपादक-कृष्णदत्त पालीवाल, प्रभात: साप्ताहिक, लाहौर, संपादक-यज्ञदत्त विद्यालंकार, सत्यवादी: साप्ताहिक, लाहौर, संपादक-भीमसेन विद्यालंकार, प्राणरक्षा: साप्ताहिक, मथुरा, संपादक-नटवरलाल चतुर्वेदी, जीवन: साप्ताहिक, मथुरा, संपादक-प्यारेलाल गौड़ और अवन्ति बिहारी माथुर, भारतफल: साप्ताहिक, देहरादून, संपादक-ठाकुर प्रताप सिंह, धर्मवीर: साप्ताहिक, मधुबनी, संपादक-चंद्रमाराय शर्मा, अध्यापक: मासिक, मुरादाबाद, संपादक-बिहारीलाल, ग्राम सुधार: मासिक मैनपुरी, वैद्य कल्पद्रुम: मासिक, कुलपहाड़, कलाकौशल: मासिक, कानपुर, संपादक-भौमदत्त दीक्षित, कलाशिक्षक: मासिक, बनखेड़ी, संपादक-बी.एन.नाथ, तरंग: मासिक, कनखल, संपादक-दुर्गादत्त जोशी, पथ प्रदर्शक: मासिक, लाहौर, संपादक-धर्मदेव वैद्य राज, अनुपम: मासिक, लाहौर, संपादक-संतराम, बी.ए., प्रकाश: मासिक, आर्य समाज का पत्र, प्यारी पत्रिका: मासिक, दिल्ली, संपादक-रामदेवी बाई, संजीवनी: मासिक, दिल्ली, संपादक-चतुरसेन शास्त्री, महारथी: मासिक, दिल्ली, संपादक-देवव्रत शर्मा, खद्दर: मासिक, कानपुर, संपादक-रामदास गौड़, श्री मैथिली: मासिक, दरभंगा, संपादक-उदित नारायणदास, विद्यार्थी जीवन: मासिक, करांची, संपादक-सिद्धेश्वर शर्मा आदि।
इनके अतिरिक्त ये पत्र भी इस युग के महान पत्र थे- दैनिक हिन्दुस्तान-लखनऊ, नई दुनिया-रायपुर व जबलपुर, दैनिक जागरण-कानपुर, नवभारत टाइम्स-दिल्ली, नवभारत-नागपुर, विश्वमित्र- कलकत्ता, अमर उजाला-आगरा, स्वदेश-इंदौर, राजस्थान पत्रिका-जयपुर, राष्ट्रदूत-जयपुर, दैनिक नवज्योति-अजमेर, जलते दीप-जोधपुर, जननायक-कोटा, वीर अर्जुन-दिल्ली, स्वतंत्र भारत-लखनऊ, आज-वाराणसी, दैनिक भास्कर-भोपाल, युग धर्म-नागपुर, नवजीवन-लखनऊ, प्रदीप-पटना, वीर प्रताप-जालंधर, तरुण भारत-लखनऊ, देशबंधु-जबलपुर, जनसत्ता-दिल्ली, धर्मयुग-बम्बई, साप्ताहिक हिन्दुस्तान-दिल्ली, दिनमान-दिल्ली, रविवार-कलकत्ता, इतवारी पत्रिका-जयपुर, ब्लिट््ज-बम्बई, सारिका-दिल्ली, सरिता-दिल्ली, मुक्ता-दिल्ली, कादम्बिनी-इलाहाबाद बाद में दिल्ली, निहारिका-आगरा, नवनीत-बम्बई, माया-इलाहाबाद, आदि ऐसी पत्र-पत्रिकाएं इस दौर में प्रकाशित हो रही थीं जो कि या तो पूर्णतः साहित्यिक थीं या फिर उनमें साहित्य को विशेष स्थान दिया जाता था।
इस काल में ‘‘नये लेखकों का एक बड़ा समूह हिंदी जगत को मिला है। प्रयास में प्रकाशित तथा पं. इलाचंद्र जोशी द्वारा संपादित साप्ताहिक संगम में, आज के प्रसिद्ध कथाकार डाॅ. धर्मवीर भारती की आरंभिक रचनायें प्राकशित हुई। इसी पत्र के माध्यम से डाॅ. भारती लोकप्रियता की ओर अग्रसर हुये। इसी क्रम में श्री मोहन राकेश और श्री कमलेश्वर का नाम उल्लेखनीय है। श्री ‘राकेश’ मासिक सारिका के प्रथम संपादक और श्री कमलेश्वर मासिक नई कहानियाँ के संपादक के रूप में बहुप्रशंसित लेखक हुये। दिल्ली में प्रकाशित साप्ताहिक हिन्दुस्तान में नये लेखकों की एक लम्बी पंक्ति तैयार की है जिसमें श्री कन्हैयालाल नंदन, श्रीमती शिवानी, श्रीमती विमला लूथरा, श्री मनहर चैहान, श्रीमती मालती जोशी के नाम मुख्य हैं। बंबई से प्रकाशित साप्ताहिक धर्मयुग ने भी इस दिशा में अत्यंत महŸवपूर्ण कार्य किया है। उसके माध्यम से भी हिंदी में नये लेखकों की एक शृंखला निर्मित हुई। इसमें श्री गंगाप्रसाद विमल, श्री मिश्रीलाल शुल्क, श्री राही मासूम रजा, श्री विवेकीराय, श्री नरेन्द्र कोहली, श्री मणिमधुकर, श्रीमती सलमा सिद्दीकी के नाम मुख्य है। हिंदी संस्करण विधा में अंतरंग चित्रण का नया रचना शिल्प और काव्यगत बिम्ब विधानों की नयी ताजगी लेकर गद्य के क्षेत्र में हिंदी प्रतिष्ठित कवि श्री रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ का अवतरण धर्मयुग के माध्यम से पिछले कुछ वर्षों में हुआ, यह गद्य क्षेत्र के लिये एक विशिष्ट उपलब्धि है।
जबलपुर से प्रकाशित मासिक बसुधा के द्वारा श्री गजानन मुक्ति बोध और वहीं से प्रकाशित साप्ताहिक प्रहरी के द्वारा प्रसिद्ध व्यंग्य लेखक श्री हरिशंकर परसाई का लेखन क्षेत्र में पदार्पण हुआ। कहानी मासिक सारिका ने कथा लेखन के क्षेत्र में नये नये प्रतिमानों की सदैव खोज की है। इस खोज यात्रा में कई विशिष्ट पथिकों का उसने परिचय कराया है। इसमें श्री ज्ञानी, श्री दुष्यंत कुमार, श्रीमती मृणाल पाण्डेय, श्री ओंकारनाथ, श्रीवास्तव, श्री दीप्त खंडेलवाल, श्रीमती मेहरून्निसा परवेज के नाम लिये जा सकते हैं। इंदौर से प्रकाशित दैनिक नई दुनिया ने सुप्रसिद्ध व्यंग्य लेखक श्री शरद जोशी को अपने स्तंभों में सर्वप्रथम हिंदी संसार के सामने उपस्थित किया। श्री कमलेश्वर द्वारा संपादित नई कहानियाँ में नितान्त नये हस्ताक्षरों को मान्यता दी। कालान्तर में इन नवोदित कथाकारों की रचनायें अन्य पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। संक्षेप में हिंदी पत्रकारिता उस सेतु के समान सिद्ध हुई है, जिस पर पैर रखकर साहित्य पक्ष का हर अनजान राही आगे, निरंतर आगे बढ़ता गया है। साहित्यिक प्रतिमा पुत्रों के लिये हिंदी पत्रकारिता निश्चित वरदान तथा सुंदर बनाने की दृष्टि से अन्य दो दिशाओं में बहुमूल्य कार्य किया है। हिंदी गद्य को आवश्यकतानुसार समय-समय पर नई विधाओं से परिचित कराने का श्रेय पत्रकारिता को है। इस तरह हिंदी गद्य में नई प्रवृत्तियों, नूतन शिल्प तथा बिम्बविधानों के लिये प्रथम प्रवेश द्वार पत्रकारिता ने ही खोला है।’’7
हिंदी पत्रकारिता के इस काल में न सिर्फ पत्र-पत्रिकाओं ने विकास किया बल्कि साहित्यिक उद्योग भी काफी हुआ। एकांकी नाटक, डायरी, संस्मरण, रेखाचित्र, गद्यगीत, ललित निबंध लघुकथा, लघु उपन्यास स्मृति चित्र, रिपोर्ताज, फीचर, और आलेख आदि प्रमुखता के साथ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। ‘‘ये सभी विधायें पत्र-पत्रिकाओं में ही प्रथमतः प्रकाशित होकर, प्रचारित हुई।’’8 ‘‘स्पष्ट है कि इन विधाओं में सृजन से लेकर संस्कार, विषय विविधता से लेकर भाषात्मक विकास, प्रचार से लेकर विस्तार तक में पत्र-पत्रिकाओं की विशिष्ट भूमिका रही है।’’9
‘‘स्वतंत्रता के पूर्व भी हिंदी भाषा में पत्रकारिता के माध्यम से सैकड़ों शब्दों की उत्पत्ति, प्रवेश और प्रचलन का कार्य हुआ था। सुप्रसिद्ध दैनिक ‘आज’ के संपादक पं. बाबूराव विष्णु पराड़कर ने गुजराती बंगला अन्य स्त्रोतों से दो सौ नये शब्दों का प्रचलन हिंदी में कराया। पत्रकार श्री लक्ष्मी शंकर व्यास की मान्यता है कि सर्वश्री और सुश्री शब्द पराड़कर जी का चलाया हुआ है। इसी प्रकार राष्ट्रपति शब्द, जो देश के संविधान में निहित है उन्हीं की देन है। अर्थशास्त्र के अनेक हिदी शब्द पराड़कर जी ने आज के माध्यम से प्रचलित किये जैसे मुद्रास्फीत। इसी प्रकार लोकतंत्र, मुद्रा विनिमय नौकरशाही, वायुमंडल, अंतर्राष्ट्रीय, चालू आदि शब्दों के व्यापक प्रयोग तथा प्रचलन का श्रेय पराड़कर जी और दैनिक आज को है।’’10 यही नहीं बल्कि ‘‘जयप्रकाश लहर, इंदिरा लहर, मीसा, परिवार नियोजन, विधायक, मंत्री, सिन्डीकेट, संविद, द्रमुक, भालोद, (भारतीय लोकदल), रासुका अध्यादेश याचिका, उद्घाटन, मापन, दलबदल, वादी, प्रतिवादी, कलमबंद हड़ताल, अनुशंसा, निलबंन, प्रकारण लंबित आदि’’11 शब्द भी इसी काल की देन हैं।
इस प्रकार देखा जाये तो पत्रकारिता का यह युग जो कि आजादी के साथ प्रारंभ होकर आपात्काल तक चलता है महत्त्वपूर्ण युग है। इस दौरान पत्रकारिता को नये आयाम मिले। पत्रकारिता अब तक राजनीतिक रंग में रंगी जाने लगी थी और पत्रकारिता के प्रति अभी तक आकर्षण कम नहीं हुआ था।
संदर्भ
1. डाॅ. सुशीला जोशी, हिंदी पत्रकारिता विकास और विविध आयाम, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, पृ.130
2. डाॅ. सुशीला जोशी, हिंदी पत्रकारिता विकास और विविध आयाम, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, पृ.130
3. डाॅ. सुशीला जोशी, हिंदी पत्रकारिता विकास और विविध आयाम, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, पृ.131
4. डाॅ. सुशीला जोशी, हिंदी पत्रकारिता विकास और विविध आयाम, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, पृ.131
5. डाॅ. सुशीला जोशी, हिंदी पत्रकारिता विकास और विविध आयाम, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, पृ.130
6. डाॅ. सुशीला जोशी, हिंदी पत्रकारिता विकास और विविध आयाम, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अका
दमी, जयपुर, पृ.149
7. गंगा नारायण त्रिपाठी, हिंदी पत्रकारिता एवं गद्यशैली का विकास, पृ. 151
8. गंगा नारायण त्रिपाठी, हिंदी पत्रकारिता एवं गद्यशैली का विकास, पृ. 152
9. गंगा नारायण त्रिपाठी, हिंदी पत्रकारिता एवं गद्यशैली का विकास, पृ. 152
10. गंगा नारायण त्रिपाठी, हिंदी पत्रकारिता एवं गद्यशैली का विकास, पृ. 152
11. गंगा नारायण त्रिपाठी, हिंदी पत्रकारिता एवं गद्यशैली का विकास, पृ. 152

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