अमन कुमार
पत्रकारिता का मूल उद्देश्य सूचना देना है। सूचना देने का काम मानव तब से करता आ रहा है, जब वह विकास की शैशवावस्था में था, क्योंकि ‘‘आत्माभिव्यक्ति मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। मानव जब तक अपने बंधु-बान्धवों, स्वजन-परिजनों, इष्ट-मित्रों आदि के सम्मुख अपने भावों और विचारों को अभिव्यक्त नहीं करता, तब तक उसे आत्मसन्तुष्टि का अनुभव नहीं होता।’’1 इस प्रकार देखा जाये तो आदि मानव भी सूचना प्रेषित करता रहा है और उसके बाद भी यह क्रम जारी रहा। हाँ, जैसे-जैसे मानव विकास करता गया सूचना-तंत्र में भी विकास होता गया। प्रारंभ संकेत के माध्यम से हुआ और मौखिक से होता हुआ लिखित तक जा पहुँचा। अब पुनः इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से हम मौखिक की और बढ़ लिये हैं, फर्क यह है कि अब कहने के साथ-साथ दिखाया भी जाने लगा है। अर्थात् आज सूचना-तंत्र अपने विकास की चरमावस्था पर है। अंतर्जाल पर किसी साईट पर पढ़ा था कि ‘‘पत्रकारिता का आरंभ सन् 131 ईस्वी पूर्व रोम में हुआ है। उस साल पहला दैनिक समाचार-पत्र निकलने लगा। उस का नाम था- दिन की घटनाएं। वास्तव में यह पत्थर की या धातु की पट्टी होता था, जिस पर समाचार अंकित होते थे। ये पट्टियाँ रोम के मुख्य स्थानों पर रखी जाती थीं और इन में वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकों की सभाओं के निर्णयों और ग्लेडिएटरों की लड़ाइयों के परिणामों के बारे में सूचनाएं मिलती थीं।’’ बाद में ‘‘60 ईसापूर्व में जूलियस सीज़र ने आदेश दिया था कि समाचारों का दैनिक विवरण चैक में चिपकाया जाए।’’2
मध्यकाल में यूरोप के व्यापारिक केंद्रों में ‘सूचना-पत्र’ निकलने लगे। उनमें कारोबार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के समाचार लिखे जाते थे लेकिन ये सारे ‘सूचना-पत्र’ हाथ से ही लिखे जाते थे। 1447 में गुटेनबर्ग ने हैण्डप्रेस मशीन और धातु के चल टाइप बनाने में सफलता प्राप्त की।’’3 इस के फलस्वरूप किताबों का ही नहीं, अख़बारों का भी प्रकाशन संभव हो गया। उसने अपना मुद्रणालय कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि ‘‘कागज के अविष्कर्ता चीन ने 1340 में एक समचार-पत्र ‘‘पीकिंग गजट’ का प्रकाशन करके अपने सर्वप्रथम रहने का एक और श्रेय प्रप्त किया। यह एक सरकारी प्रकाशन था, जिसने लगभग 1500 वर्षों तक प्रकाशित होते रहकर एक सार्वकालिक रिकार्ड बनाया। 1912 में मांचू राज्यवंश के अधःपतन के साथ ही साथ इस पत्र का भी अंत हो गया।’’4
पत्रकारिता का भारत में उदय
‘‘शुरुआती व्यवस्था के रूप में सूचना या संवाद-पत्रों के माध्यम से ही शासक देश के विभिन्न भागों तथा जनता के विभिन्न वर्गों में हो रहे परिवर्तन और घटनाक्रम से नियमित रूप से अवगत् होता रहता था। मुमकिन है कि आम तरह की खबरों के साथ-साथ कुछ गोपनीय सूचनाएं भी इनमें होती थीं। आम तरह की स्थितियों सम्बंधी सूचनाएं मंत्रियों को उपलब्ध कराई जाती थीं और अक्सर मंत्रिपरिषद में भी इन्हीं सूचनाओं के आधार पर विचार-विमर्श होता था। संवाद-पत्रों के माध्यम से मंत्रियों और सलाहकारों को जानकारियां और समाचार पहुँचाए जाने की व्यवस्था भारत में मुगलकाल से काफी पहले ही शुरू हो चुकी थी। मुगलों ने इस व्यवस्था का विकास किया।’’5 इस काल के हस्तलिखित समाचार-पत्रों का उल्लेख भी मिलता है। ‘‘लीथो, प्रेस आदि के अविष्कार के बहुत पहले के अनेक हस्तलिखित समाचार-पत्र लंदन की रायल सोसाइटी में रखे हैं, जिनमें भारत के भी हैं। भारत के ये हस्तलिखित समाचार-पत्र 1660 के हैं, जो मुगलदरबार में प्रचलित थे। सिराज-उल-अख़बार और ‘उर्दू अख़बार’ मुगलकाल के दो खास हस्तलिखित पत्र थे। शिवाजी के एक वाकियानबीस आनाजी रघुनाथ भालेकर द्वारा स्थापित ‘बयानी वाकिया’ का भी उल्लेख मिलता है। पुराने हस्तलिखित पत्रों में एक नाम आता है ‘मुन्तखबत अल-लुबाब’। दिल्ली-किला के अंतिम समाचार-लेखक को इसी तरह के एक पत्र का संपादक भी बताया जाता है। उनका नाम था मामराज। उस समय के समाचार-जगत से दो विशिष्ट व्यक्तियों के नाम जुड़े हैं-आसफजाह के मंत्री अजूनुल ओमराह और मिर्जा अली बेग।’’6
‘‘भारत में अंग्रेजों के आगमन से पहले भारत में पहला छापाखाना गोआ में सन् 1557 में स्थापित हुआ था जिसमें मलयालम भाषा में पहली ईसाई धर्म की पुस्तकें छपीं। दूसरा प्रेस सन् 1578 में तमिलनाडु के तिनेवली जिले के पौरीकील नामक स्थान पर लगा। तीसरा प्रेस सन् 1602 में मालाबार के विपिकोट में पादरियों ने स्थापित किया। सन् 1616 में बम्बई में पुर्तगालियों ने जब अंग्रेज भारत आए, एक प्रेस की स्थापना की।
सन् 1679 में विचूर के दक्षिण में अम्बलकाड़ में प्रेस लगा जिसमें ‘कोचीन-तमिल शब्दकोष’ छापा गया। सन् 1662 में काठियावाड़ के भीमजी पारख ने बम्बई में छापाखाना स्थापित किया। इसके विपरीत सन् 1674 में बम्बई में पहला अंग्रेजी छापाखाना स्थापित हुआ इसके लगभग 100 वर्षों बाद।
सन् 1772 में मद्रास में दूसरा छापाखाना। सन् 1779 में कलकत्ता में सरकारी छापेखाने की स्थापना हुई।’’7
भारत में पहला समाचार पत्र कम्पनी के एक असंतुष्ट सेवक ‘विलियम वोल्ट्स’ ने 1768 ई. में निकालने का प्रयास किया, लेकिन अपने इस कार्य में वह असफल रहा। किंतु सितंबर 1778 में कलकत्ता के कौंसिल हाल एवं अन्य सार्वजनिक स्थानों में एक नोटिस लगा हुआ पाया गया जो इस प्रकार था-
‘‘जन-साधारण से’’
श्री वोल्ट्स जनता को सूचना प्रदान करने के लिए यह तरीका अपनाते हैं। इस नगर में छापाखाना न होने से व्यापारी वर्ग को बहुत नुकसान रहता है और समाज को वे समाचार दिये जाने अत्यंत कठिन हैं, जिनमें हर ब्रिटिश प्रजा की दिलचस्पी है। इसलिए श्री वोल्ट्स उस या उन व्यक्तियों को सर्वाधिक प्रोत्साहन प्रदान करने को तैयार है, जो मुद्रण का काम जानते हैं, प्रेस टाइपों तथा अन्य का प्रबंध कर सकते हैं। इसके साथ ही वह जनता को सूचित करना चाहते हैं कि उनके पास लिखित रूप में ऐसी जानकारी है, जिसमें हर व्यक्ति की गहरी दिलचस्पी होगी। जो जिज्ञासु व्यक्ति चाहें, उन्हें वोल्ट्स के घर में वह सामग्री पढ़ने एवं नकल करने की अनुमति होगी। एक व्यक्ति प्रातः दस से बारह बजे तक इच्छुक व्यक्तियों को इसमें सहायता प्रदान करने के लिए रहेगा।
इसी को हम पत्रकारिता का प्रारंभ मान सकते हैं। यह समाचार-पत्र अंग्रेजी भाषा में निकलता था तथा कंपनी व सरकार के समाचार ही इसमें छपते थे।
सबसे पहला समाचारपत्र, जिसमें विचार स्वतंत्र रूप से व्यक्त किये गये, वह 1780 में जेम्स आगस्टस हिकी का समाचार-पत्र ‘बंगाल गजट’ था। समाचारपत्र में दो पन्ने थे और इस में ईस्ट इंडिया कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों के व्यक्तिगत जीवन पर लेख छपते थे। जब हिकी ने अपने समाचार-पत्र में गवर्नर की पत्नी पर आक्षेप किया तो उसे 4 महीने के लिये जेल भेजा गया और 500 रुपये का जुर्माना लगा दिया गया लेकिन हिकी शासकों की आलोचना करने से नहीं रुका। जब उसने गवर्नर और सर्वोच्च न्यायाधीश की आलोचना की तो उस पर 5000 रुपये का जुर्माना लगाया गया और एक साल के लिये जेल में डाल दिया गया। इस तरह उस का समाचारपत्र भी बंद हो गया।
1790 के बाद भारत में अंग्रेजी भाषा के और कुछ अख़बार स्थापित हुए जो अधिकतर शासन के मुखपत्र थे। भारत में प्रकाशित होनेवाले समाचार-पत्र थोड़े-थोड़े दिनों तक ही जीवित रह सके।
भारत में समाचार पत्रों का इतिहास यूरोपीय लोगों के भारत में प्रवेश के साथ ही प्रारंभ होता है। सर्वप्रथम भारत में प्रिंटिग प्रेस लाने का श्रेय पुर्तगालियों को दिया जाता है। 1557 ई. में गोवा के कुछ पादरी लोगों ने भारत की पहली पुस्तक छापी। 1684 ई. में अंग्रेज ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भी भारत की पहली पुस्तक की छपाई की थी। 1684 ई. में ही कम्पनी ने भारत में प्रथम प्रिंटिग प्रेस (मुद्रणालय) की स्थापना की।
इस दौरान कुछ अन्य अंग्रेजी अख़बारों का प्रकाशन भी हुआ, जैसे- बंगाल में ‘कलकत्ता कैरियर’, ‘एशियाटिक मिरर’, ‘ओरियंटल स्टार’ मद्रास में ‘मद्रास कैरियर’, ‘मद्रास गजट’ बम्बई में ‘हेराल्ड’, ‘बांबे गजट’ आदि। 1818 ई. में ब्रिटिश व्यापारी ‘जेम्स सिल्क बकिघम’ ने ‘कलकत्ता जनरल’ का संपादन किया। बकिघम ही वह पहला प्रकाशक था, जिसने प्रेस को जनता के प्रतिबिम्ब के स्वरूप में प्रस्तुत किया। प्रेस का आधुनिक रूप जेम्स सिल्क बकिघम का ही दिया हुआ है। हिकी तथा बकिघम का पत्रकारिता के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन दोनों ने तटस्थ पत्रकारिता एवं स्वतंत्र लेखन का उदाहरण प्रस्तुत कर पत्रकारों को पत्रकारिता की ओर आकर्षित किया।
प्रथम साप्ताहिक समाचार-पत्र
पहला भारतीय समाचार पत्र ‘‘15 मई 1818 ई. को कलकत्ता से ‘बंगाल गजट’ निकला। यह बंगला का ऐसा पहला पत्र था जिसके संपादक और प्रकाशक सभी बंगाली थे। संपादक हारूचंद्र राय और प्रकाशक गंगाकिशोर भट्टाचार्य थे। दोनों आत्मीय सभा के सदस्य और राजा राममोहन राय के सहयोगी थे।’’8 1821 ई. में बंगाली भाषा में साप्ताहिक समाचार-पत्र ‘संवाद कौमुदी’ का प्रकाशन हुआ। ‘‘सदियों की गुलामी से जर्जर हुए भारतीय समाज में नये प्राण फूँकने के लिए साहस भरी पहल और अनथक संघर्ष करने वाले राजा राममोहन राय ने अपने अनुष्ठान को मुखर करने के लिए पत्रकारिता को माध्यम बनाया।’’9 राजा राममोहन राय ने सामाजिक तथा धार्मिक विचारों के विरोधस्वरूप ‘समाचार चंद्रिका’ का मार्च, 1822 ई. में प्रकाशन किया। इसके अतिरिक्त ‘‘राजा राममोहन राय ने 12 अप्रैल, 1822 को कलकत्ता से फारसी भाषा के ‘मिरातुल’ अख़बार’’10 एवं अंग्रेजी भाषा में ‘ब्राह्मनिकल मैगजीन’ का प्रकाशन किया।
अंग्रेजों द्वारा संपादित कुछ समाचार पत्र-
समाचार पत्र – टाइम्स आॅफ इंडिया, बम्बई 1861 ई.
– स्टेट्समैन, कलकत्ता 1878 ई.
– इंग्लिश मैन, कलकत्ता
– फ्रेण्ड आॅफ इंडिया, कलकत्ता
– मद्रास मेल, मद्रास 1868 ई.
– पायनियर, इलाहाबाद 1876 ई.
– सिविल एण्ड मिलिटरी गजट लाहौर
तत्कालीन परिस्थितियाँ
जिस समय हिंदी का पहला समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ प्रकाशित हुआ, उस समय सत्ता मुसलमान शासकों के हाथ से लगभग निकल ही चुकी थी। व्यापार में पुर्तगाली और डचों का प्रभाव भी समाप्त हो गया था। भारतीय जनता अंधविश्वासों में जकड़ी थी। चारों ओर अराजकता का माहौल था, असुरक्षा का भाव था, सभी के अपने-अपने स्वार्थ थे। ऐसे में चालाकी और मक्कारी से लाभ उठाकर अंग्रेज भारत के भाग्यविधाता बन गये थे। सत्ता के मद में मस्त अंग्रेज किसी भी तरह भारत पर नियंत्रण बनाये रखना चाहते थे। भारतीयों के दमन के लिये नित नयी तरकीबें सोचा करते थे और नये-नये कानून बनाते थे। व्यापार के लिये चंद अंग्रेजों द्वारा बनायी गयी समिति ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ अब राजनीतिक संस्था बन गयी थी। भारत में अंग्रेज चिरकाल तक रहना चाहते थे और यह तभी तक संभव था जबकि वह साम, दाम, दंड और भेद की नीति को अपनाते हुए भारतीय शासकों और जनता को काबू में किये रहते।
भारत में अंग्रेज शासन स्थापित करने का श्रेय लार्ड क्लाइव को जाता है। ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ में साधारण क्लर्क के रूप में भारत आये इस अंग्रेज ने भारतीयों की कमजोरियों का लाभ उठाया और अंततः 23 जून 1757 ई. में चालाकीपूर्ण तरीके से किये गये अति साधारण युद्ध में सिराजुद्दौला को हराकर अंग्रेजी राज की मजबूत नींव रख दी थी। इस युद्ध के बाद ‘क्लाइव पहली बार 1757-60 ई. तक बंगाल का प्रथम गर्वनर बना। सन् 1760 में वह स्वदेश लौट गया।’’11
क्लाइव के चले जाने के बाद मीर जाफर और उसके बाद मीर कासिम बंगाल के नवाब रहे। मीर कासिम की अंग्रेज व्यापारियों से नहीं बन पायी तो अग्रेंजांे से फिर 1760 ई. में बक्सर में युद्ध हुआ। यहाँ भी अंग्रेज ही विजयी रहे। क्लाइव पुनः भारत आया। इस बार वह शक्तिसंपन्न था। उसने कम्पनी में सुधार की दृष्टि से ‘‘कम्पनी के कर्मचारी, जो व्यक्तिगत व्यापार करते थे, उन पर प्रतिबंध लगा दिया, उन्हें उपहार तथा भेंट लेने से मना कर दिया गया। इससे कर्मचारियों की आर्थिक कठिनाइयाँ बढ़ीं। उसे दूर करने के लिए क्लाइव ने उनकी तनखा बढ़ा दी। उसने एक व्यापार संघ की स्थापना की और उसे नमक तथा तम्बाकू के व्यापार का एकाधिकार दे दिया।’’12 ‘‘क्लाइव ने बंगाल में ‘दोहरा शासन’ प्रबंध स्थापित किया। कर वसूल करते अंग्रेज सैनिक और फौजदारी विभाग की देख-रेख करता नवाब। इसके बदले में कम्पनी नाम के लिये नवाब को 53 लाख रुपये सालाना देने लगी। इससे शासन प्रबंध में अनेक दोश आ गये। अधिकार का प्रश्न उत्तरदायित्व से सर्वथा पृथक हो गया।’’13
‘‘जनवरी सन् 1766 में क्लाइव ने सैनिकों का दोहरा भत्ता बंद कर दिया। इस पर कई सैनिकों ने विद्रोह कर दिया, पर क्लाइव ने उन्हें शीघ्र दबा दिया। इतना महत्त्वपूर्ण कार्य करने के बाद क्लाइव फरवरी 1767 में इंग्लैण्ड चला गया।’’14 तत्पश्चात वारेन हेस्टिंग्ज गवर्नर बना। वारेन हेस्टिंग्ज भी 18 वर्ष की अवस्था में ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ में क्लर्क के रूप में भारत आया था, अपनी योग्यता के दम पर पहले वह बंगाल का गवर्नर बना फिर सारी कम्पनी का गवर्नर जनरल बन गया। हेस्टिंग्ज ने दोहरी सरकार के घिनौने प्रबंध को तोड़ा और कम्पनी के प्रशासन को सुदृढ़ आधार भित्ति पर कायम किया। इतना ही नहीं वरन उसने मराठों, हैदर अली, निजाम, अवध तथा आसपास के शासकों को नियंत्रण में लिया। हेस्टिंग्ज ने 1773 ई. में रेग्युलेटिंग एक्ट के माध्यम से प्रशासन, न्याय, व्यापार आदि प्रणालियों में सुधार किये परंतु इस एक्ट में कुछ दोश भी थे। जिन्हें दूर करने के लिये पिट ने सन् 1784 में ब्रिटिश संसद में भारतीय अधिनियम रखा। जिसे बाद में पिट का भारतीय अधिनियम 1784 नाम से जाना गया। वारेन हेस्टिंग्ज सन् 1785 में स्वदेश लौट गया। तब सन 1786 में लार्ड कार्नवालिस नया गवर्नर जनरल बना। कार्नवालिस को ‘भारतीय नागरिक सेवाओं का जन्मदाता’ भी कहा जाता है। ‘‘उसने वर्तमान भारतीय संविधान की नींव डाली।’’15 उसने निजाम को अपने साथ मिलाकर टीपू और मराठों को अकेला कर दिया था। कार्नवालिस भूमि, न्याय, शासन तथा व्यापार सम्बंधी सुधारों के लिए ख्यात है।
सन् 1793 में सर जान शोअर गवर्नर जनरल बना। वह उर्दू, अरबी, लेटिन तथा ग्रीक भाषाएं भी जानता था और सुप्रीम कोर्ट का सदस्य भी रह चुका था। वह सरल, किंतु पक्षपाती था। उसके बाद लार्ड वेलेजली 1798 में गवर्नर बना। वेलेजली ने मैसूर, हैदराबाद, अवध को दबाया, कर्नाटक को अपने राज्य मे मिला लिया। अनेक सन्धियों और कूटनीतियों के सहारे उसने ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार किया। मात्र 37 वर्ष की आयु में वह भारत आया और सन् 1805 तक मात्र 7 वर्ष के कार्यकाल में चैंकाने वाली गति से काम किये।
‘‘लार्ड वेलेजली के बाद हेस्टिंग्ज का नाम उल्लेखनीय है। भारत में शान्ति एवं व्यवस्था के क्षेत्र में इस गवर्नर की अनुपम देन है। देश के पिण्डारियों, डाकुओं और लुटेरे पठानों से बचाने में इसने विशेष योग दिया है। हेस्टिंग्ज वेलेजली की हस्तक्षेप नीति का विरोधी था पर भारत आकर इसे पता चला कि कुछ वैसी नीति का पालन करना आवश्यक है।
भारत में पहली बार हेस्टिंग्ज ने पिण्डारियों एवं पठानों का सफलता से दमन किया। पिण्डारी एक जाति या वर्ग के लोग न थे। वे लूटमार का जीवन व्यतीत करते। जब मराठे युद्ध पर जाते तो ये लोग मराठा सेना के साथ रहते और मौका पाकर मुगल शिविरों को लूट लेते। इस समय इनके प्रमुख सरदार चीतू, वासिल मुहम्मद तथा करीम खाँ थे। पिण्डारियों के पास 10 से 15 हजार तक लुटेरे रहते थे। इसी तरह अमीर खाँ और मुहम्मद खाँ के नेतृत्व में हजारों पठान छोटे-छोटे राजाओं की आपसी एवं अराजकता फैली हुई थी। अतः पठानों एवं पिण्डारियों का दमन जरूरी था।’’16 लार्ड हेस्टिंग्ज ने ‘‘केवल सैन्य क्षेत्र में ही नहीं वरन् शासन के क्षेत्र में भी हेस्टिंग्ज का कार्य उल्लेखनीय है। हेस्टिंग्ज ने भूमि प्रबंध, न्याय, प्रशासन और शिक्षा के क्षेत्र में सुधार किये। सन् 1822 में ‘बंगाल कृषक कानून’ बनाकर उसने कृषकों को जमींदारों के अत्याचारों से मुक्त किया। अब किसान को आसानी से भूमि से नहीं हटाया जा सकता था। पंजाब व आगरा के किसानों से लगान वसूल करने के लिए ‘महलवाड़ी’ व्यवस्था अपनाई। मद्रास में ‘रैयतवाड़ी’ लागू की। पहले समाचार-पत्र के संपादकों को खबर छापने से पूर्व अंग्रेज अधिकारी की अनुमति लेनी होती थी, हेस्टिंग्ज ने यह नियंत्रण हटा दिया। शिक्षा प्रसार की ओर हेस्टिंग्ज और उसकी पत्नी ने विशेष ध्यान दिया।’’17
अंग्रेज शासन के बढ़ते प्रभाव और देशी राज्यों में निरंतर फूट भारतीय जनमानस को कुछ करने की प्रेरणा दे रही थी। मगर क्या? इसका जवाब नहीं मिल पा रहा था। अंग्रेज शासकों ने भारतीयों में तो फूट डाल ही दी थी मगर इस फूट से वह स्वयं भी नहीं बच पा रहे थे। पक्षपात और अन्याय उनके अपने लोागों के बीच भी था। जिससे आहत पीड़ित अंग्रेज यदाकदा आवाज भी उठाते थे परंतु उन्हें समय रहते दबा दिया जाता था। परंतु आॅगस्ट्स हिकी को ये अंग्रेज दबा नहीं सके। उसने अपने शासकों की पोल खोलने का मन बना लिया और 29 जनवरी, सन् 1780 को कलकत्ता से ‘कैलकटा जनरल एडवाइजर’ नामक पत्र निकालकर स्वतंत्रता चाहने वाले भारतीयों को भी अचूक हथियार रखने की राह दिखा दी।
जेम्स आॅगस्टस हिकी ईस्ट इंडिया कम्पनी के मुलाजिम के रूप में भारत आये थे और कलकत्ता से उन्होंने अंग्रेजी में बंगाल गजट समाचार पत्र प्रकाशित किया था। अपनी निष्पक्ष लेखनी से उन्होंने किसी को भी नहीं बख्शा, यहाँ तक कि वायसराय जैसे ताकतवर औहदेदार वारेन हेस्टिंग्ज के द्वारा किये गये स्वेच्छाचार और कम्पनी के धन का निजी हित में उपयोग किया जाना भी उनकी कलम से नहीं बचा। इन्हीं सुर्खियों के कारण अंग्रेज होने के बावजूद उन्हें कई बार कम्पनी की जेल में भी रहना पड़ा। हिकी अब तो बीते जमाने की कहानी हैं किंतु इसकी सच्चाई बयान करने के लिये अब भी कलकत्ता स्थित नेशनल लाइब्रेरी में उनके प्रकाशन की एक प्रति भी सुरक्षित है, जिसे देख भारत या अंग्रेज पत्रकार ही नहीं दुनियाभर के पत्रकार अपने लिये प्रेरणाप्रद मानते हैं।
अंग्रेजी और बंगला भाषा में प्रकाशित समाचारों के प्रकाशन से अंग्रेजों को विचलित होते हुए भारतीय भविष्यदृष्टाओं ने देख लिया था। इसी से प्रभावित होकर कानपुर के पंडित युगल किशोर शुक्ल ने कलकत्ता से 30 मई 1826 को ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन प्रारंभ किया था।
हिंदी पत्रकारिता का उद्भव
‘‘हिंदी का पहला समाचारपत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ 30 मई 1826 कलकत्ता से प्रारंभ हुआ।’’18 यह साप्ताहिक पत्र 1827 तक चला और पैसे की कमी के कारण बंद हो गया।
10 मई 1829 में राजा राममोहन राय ने साप्ताहिक ‘बंगदूत’ का प्रकाशन शुरू किया। वैसे यह बहुभाषीय पत्र था, जो अंग्रेजी, बंगला, हिंदी और फारसी में निकलता था। यह कलकत्ता से निकलता था जो अहिंदी क्षेत्र था। इससे पता चलता है कि राममोहन राय हिंदी को कितना महŸव देते थे? सन् 1833 में भारत में 20 समाचार-पत्र थे, 1850 में 28 हो गए और 1953 में 35 हो गये। इस तरह अख़बारों की संख्या तो बढ़ी, पर नाममात्र को ही बढ़ी। बहुत से पत्र जल्द ही बंद हो गये। उन की जगह नये निकले। प्रायः समाचार-पत्र कई महीनों से ले कर दो-तीन साल तक जीवित रहे।
उस समय भारतीय समाचार-पत्रों की समस्याएं समान थीं। वे नया ज्ञान अपने पाठकों को देना चाहते थे और उसके साथ समाज-सुधार की भावना भी थी। सामाजिक सुधारों को लेकर नये और पुराने विचारवालों में अंतर भी होते थे। इसके कारण नये-नये पत्र निकले। उनके सामने यह समस्या भी थी कि अपने पाठकों को किस भाषा में समाचार और विचार दें। समस्या थी – भाषा शुद्ध हो या सब के लिये सुलभ हो? ‘‘1845 में काशी से राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद ने ‘बनारस अख़बार’ का प्रकाशन किया।’’19 राजा शिव प्रसाद शुद्ध हिंदी का प्रचार करते थे और अपने पत्र के पृष्ठों पर उन लोगों की कड़ी आलोचना की जो बोल-चाल की हिंदुस्तानी के पक्ष में थे। लेकिन उसी समय के हिंदी लेखक भारतेंदु हरिशचंद्र ने ऐसी रचनाएं रचीं जिनकी भाषा समृद्ध भी थी और सरल भी। इस तरह उन्होंने आधुनिक हिंदी की नींव रखी है और हिंदी के भविष्य के बारे में हो रहे विवाद को समाप्त कर दिया। 1868 में भरतेन्दु हरिशचंद्र ने साहित्यिक पत्रिका ‘कविवचन सुधा’ निकालना प्रारंभ किया। 1854 में हिंदी का पहला दैनिक ‘समाचार सुधा वर्षण’ निकला।
उदन्त मार्तण्ड
उदन्त मार्तण्ड हिंदी का प्रथम समाचार पत्र था। इसका प्रकाशन 30 मई, 1826 ई. में कलकत्ता से एक साप्ताहिक पत्र के रूप में शुरू हुआ था। कलकत्ता के कालू टोला नामक मोहल्ले की 37 नंबर आमड़तल्ला गली से युगलकिशोर शुक्ल ने सन् 1826 ई. में उदन्त मार्तण्ड नामक एक हिंदी साप्ताहिक पत्र निकालने का आयोजन किया। उस समय अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में तो अनेक पत्र निकल रहे थे किंतु हिंदी में एक भी पत्र नहीं निकलता था। इसलिए ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन शुरू किया गया। इसके संपादक भी श्री युगलकिशोर शुक्ल ही थे। वे मूल रूप से कानपुर संयुक्त प्रदेश के निवासी थे।, यह पत्र पुस्तकाकार (12 ग 8) छपता था और हर मंगलवार को निकलता था।
पत्र की प्रारंभिक विज्ञप्ति
प्रारंभिक विज्ञप्ति इस प्रकार थी-
‘‘यह ‘उदन्त मार्तण्ड’ अब पहले-पहल हिन्दुस्तानियों के हित के हेत जो आज तक किसी ने नहीं चलाया पर अंग्रेजी ओ फारसी ओ बंगले में जो समाचार का कागज छपता है उसका सुख उन बोलियों के जान्ने ओ पढ़ने वालों को ही होता है। देश के सत्य समाचार हिंदुस्तानी लोग देखकर आप पढ़ ओ समझ लेंय ओपराई अपेक्षा जो अपने भावों के उपज न छोड़े, इसलिये बड़े दयावान करुणा ओ गुणनि के निधान सबके कल्यान के विषय श्रीमान् गवरनर जेनेरल बहादुर की आयस से अैसे चाहत में चित्त लगाय के एक प्रकार से यह नया ठाट ठाटा।’’20
इसके कुल 79 अंक ही प्रकाशित हो पाए थे कि डेढ़ साल बाद दिसंबर, 1827 ई. को इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा, इसके अंतिम अंक में लिखा है- उदन्त मार्तण्ड की यात्रा-मिति पौष बदी 1 भौम संवत् 1884 तारीख दिसंबर सन् 1827।
आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त
अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अंत।
हिंदी पत्रकारिता का विकास
हिंदी पत्रकारिता के विकासक्रम को समझने के लिये हमें काल विभाजन करना ही होगा। बिना काल विभाजन के हम तत्कालीन युग चेतना को नहीं समझ पायेंगे। ‘‘समाचारपत्र युगीन चेतना का दस्तावेज सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, राष्ट्रीय और साहित्यिक विषयों की जितनी भी गतिविधियाँ होती हैं, उनकी अभिव्यक्ति समाचारपत्रों में होती है। देश और काल की चेतनाओं में परिवर्तन के साथ समाचारपत्रों में होती है। देश और काल-सापेक्ष चेतना और समाचारपत्रों की परंपरा का सामंजस्य स्थापित कर उसकी समीक्षात्मक प्रस्तुति समाचारपत्रों का इतिहास-लेखन है।’’21
डाॅ. धीरेन्द्रनाथ सिंह ने समाचारपत्रों के इतिहास का काल-विभाजन इस प्रकार किया है-
‘‘आदिकाल या भारतेन्दु-पूर्व की पत्रकारिता -1826 से 1886 ई.
नवजागरण या भारतेन्दु-युग की पत्रकारिता -1867 से 1884 ई.
19वीं सदी के उत्तरार्द्ध की पत्रकारिता -1885 से 1900 ई.
साहित्यिक चेतनाकाल या द्विवेदी-युग की पत्रकारिता -1900 से 1919 ई.
छायावाद युग की पत्रकारिता -1919 से 1936 ई.
छायावादोत्तर-काल की पत्रकारिता-1937 से 1947 ई.’’22
यह काल विभाजन न तो पत्रकारिता के संपूर्ण इतिहास को ही व्यक्त कर पाता है और न ही साहित्यिक पत्रकारिता को। अर्थात् उपरोक्त काल-विभाजन अपूर्ण है।
डाॅ. सुशीला जोशी ने ‘‘हिंदी पत्रकारिता: विकास और विविध आयाम’’ में पत्रकारिता के इतिहास को इस क्रम में विभाजित किया है-
हिंदी पत्रकारिता का उद्भव- 1826 से 1867 ई.
हिंदी पत्रकारिता का विकास- 1868 से 1900 ई.
हिंदी पत्रकारिता का उत्थान- 1900 से 1947 ई.
इस प्रकार किये गये काल-विभाजन को भी पत्रकारीय इतिहास की दृष्टि से पूर्णता के साथ नहीं देखा जा सकता है।
इंटरनेट पर भारत डिस्कवरी23 के अनुसार हिंदी पत्रकारिता का काल विभाजन के सम्बंध में सूचना दी गयी है कि ‘‘भारत में हिंदी पत्रकारिता का तार्किक और वैज्ञानिक आधार पर काल विभाजन करना कुछ कठिन कार्य है। सर्वप्रथम राधाकृष्ण दास ने ऐसा प्रारंभिक प्रयास किया था। उसके बाद ‘विशाल भारत’ के नवंबर 1930 के अंक में विष्णुदत्त शुक्ल ने इस प्रश्न पर विचार किया, किंतु वे किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंचे। गुप्त निबंधावली में बालमुकुंद गुप्त ने यह विभाजन इस प्रकार किया –
प्रथम चरण – सन् 1845 से 1877 ई.
द्वितीय चरण – सन् 1877 से 1890 ई.
तृतीय चरण – सन् 1890 ई. से बाद तक
डाॅ. रामरतन भटनागर ने अपने शोध प्रबंध ‘द राइज एंड ग्रोथ आफ हिंदी जर्नलिज्म’ में काल विभाजन इस प्रकार किया है-
आरंभिक युग 1826 से 1867 ई.
उत्थान एवं अभिवृद्धि
प्रथम चरण – (1867-1883 ई.) भाषा एवं स्वरूप के समेकन का युग
द्वितीय चरण- (1883-1900 ई.) प्रेस के प्रचार का युग
विकास युग
प्रथम युग – (1900-1921 ई.) आवधिक पत्रों का युग
द्वितीय युग -(1921-1935 ई.) दैनिक प्रचार का युग
सामयिक पत्रकारिता – 1935-1945 ई.
उपरोक्त में से तीन युगों के आरम्भिक वर्षों में तीन प्रमुख पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ, जिन्होंने युगीन पत्रकारिता के समक्ष आदर्श स्थापित किए। सन् 1867 में ‘कविवचन सुधा’, सन् 1883 में ‘हिन्दुस्तान’ तथा सन् 1900 में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन है।
काशी नागरी प्रचारणी द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी साहित्य के वृहत्त इतिहास’ में यह काल विभाजन इस प्रकार किया गया है –
प्रथम उत्थान- सन् 1826 से 1867 ई.
द्वितीय उत्थान – सन् 1868 से 1920 ई.
आधुनिक उत्थान – सन् 1920 ई. के बाद
डाॅ. कृष्ण बिहारी मिश्र ने ‘हिंदी पत्रकारिता’ का अध्ययन करने की सुविधा की दृष्टि से यह विभाजन मोटे रूप से इस प्रकार किया है –
भारतीय नवजागरण और हिंदी पत्रकारिता का उदय-
राष्ट्रीय आंदोलन की प्रगति-दूसरे दौर की हिंदी पत्रकारिता बीसवीं शताब्दी का आरंभ और हिंदी पत्रकारिता का तीसरा दौर – इस काल खण्ड का अध्ययन करते समय उन्होंने इसे तिलक युग तथा गाँधी युग में भी विभक्त किया।
डाॅ. रामचंद्र तिवारी ने अपनी पुस्तक ‘पत्रकारिता के विविध रूप’ में विभाजन के प्रश्न पर विचार करते हुए यह विभाजन किया है-
उदय काल – (सन् 1826 से 1867 ई.)
भारतेन्दु युग – (सन् 1867 से 1900 ई.)
तिलक या द्विवेदी युग -(सन् 1900 से 1920 ई)
गाँधी युग – (सन् 1920 से 1947 ई.)
स्वातंत्र्योत्तर युग- (सन् 1947 ई. से अब तक)
पत्रकारिता के इतिहास के सम्बंध में बहुत सारे विद्वानों ने ‘‘पत्रकारिता का प्रथम दौर, द्वितीय दौर, तृतीय दौर, तिलक युग, गाँधी युग को भी स्वीकार किया है, जबकि कुछ विद्वानों ने साहित्य की दृष्टि से ‘द्विवेदी युग’ को भी स्वीकारा है।
जबकि ‘ए हिस्ट्री आफ द प्रेस इन इंडिया’ में श्री एस नटराजन ने पत्रकारिता का अध्ययन निम्न प्रमुख बिंदुओं के आधार पर किया है –
बीज वपन काल
ब्रिटिश विचारधारा का प्रभाव
राष्ट्रीय जागरण काल
लोकतंत्र और प्रेस
इंटरनेट की साइट मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया24 पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार-
भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता का आरंभ और हिंदी पत्रकारिता
हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण
हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग – भारतेन्दु युग
भारतेन्दु के बाद
तीसरा चरण – बीसवीं शताब्दी के प्रथम बीस वर्ष
आधुनिक युग
भारत में जब हिंदी पत्रकारिता का प्रारंभ हुआ तब भारतीय जनता में नवजागरण एवं राष्ट्रनिर्माण की परिकल्पना जाग्रत हो रही थी। जो उदन्त मार्तण्ड से प्रारंभ होकर भारतेन्दु के अन्तिम वर्ष तक मानी जानी चाहिए। क्योंकि हिंदी पत्रकारिता अपने प्रारंभ के कुछ वर्षों में भले ही कुछ विशेष प्रभावकारी सिद्ध न हो सकी हो किंतु ‘समचार सुधावर्षण’ के बाद हिंदी पत्रकारिता ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और भारतेन्दु ने अपने सत्प्रयासों से पत्रकारिता को ऊँचाई प्रदान की। भारतेन्दु की पत्रकारिता को नवजागरण के रूप में देखना पत्रकारिता के हित में ही होगा। अर्थात् पत्रकारिता के प्रथम काल को हमें ‘हिंदी पत्रकारिता का नवजागरण काल’ ही मानना उचित है।
चूंकि हिंदी पत्रकारिता ने ब्रिटिश कालीन भारत में जन्म लिया, और ब्रिटिश शासन को उखाड़ने के लिये बाल गंगाधर तिलक ने ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार’ कहकर महŸवपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। उनके समय में पत्रकारिता चरमावस्था को प्राप्त हो रही थी। इसलिए पत्रकारिता के इस युग को ‘तिलक युग’ कहना अनुचित नहीं होगा। अन्य विद्वानों ने भी पत्रकारिता के ‘तिलक युग’ को मान्यता दी है।
तिलक के बाद भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में सर्वोपरि स्थान आता है, ‘महात्मा गाँधी’ जी का। इसलिए पत्रकारिता के इस युग को ‘गाँधी युग’ कहना अनुचित नहीं होगा। अन्य विद्वानों ने भी पत्रकारिता के ‘गाँधी युग’ को मान्यता दी है। भारतीय परिवेश में पत्रकारिता ने तीव्रता के साथ प्रगति की है। भारत के बदलते हालातों को हम पत्रकारिता के विधिवत इतिहास से भी जान सकते हैं।
स्वतंत्रता के बाद हिंदी पत्रकारिता की मूल विचारधारा में बदलाव आया है। यह बदलाव आपात् काल के प्रारंभ (1974) तक स्पष्ट देखने को मिलता है। इसलिये सन् 1948 से 1974 तक के काल को ‘स्वातंत्र्योत्तर हिंदी पत्रकारिता’ काल मानना चाहिये।
देश ने आजादी के बाद जो हालात आपातकाल में देखे वह कभी नहीं देखने में आये। मौलिक अधिकारों पर भी प्रतिबंध लगा दिये गये थे। अभिव्यक्ति के अधिकार को भी आघात पहुँचा परंतु फिर भी पत्रकारिता अपना काम करती रही। आपात् कालीन पत्रकारिता अध्ययन का विषय है। इस काल की पत्रकारिता ने अपने धर्म को बखूबी निभाया भी। तभी तो इस काल की पत्रकारिता को ‘आपात्कालीन पत्रकारिता’ मान लेने में कोई बुराई नजर नहीं आती है।
पत्रकारिता का यह सूक्ष्म काल तमाम चुनौतियों का सामना करता हुआ दिखाई देता है। आपात्काल के बाद पत्रकारिता में विशेष परिवर्तन आया है। आज पत्रकारिता के विभिन्न रूप दिखायी दे रहे हैं, पत्रकारिता साधन संपन्न हो गयी है। प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ-साथ सोषल मीडिया भी काम कर रही है। आज की पत्रकारिता रंगीन है, वह बासंती परिधान पहने है। आज की पत्रकारिता को हम ‘समकालीन पत्रकारिता’ कह सकते हैं।
पत्रकारिता को साहित्यिक और राजनीतिक दृष्टि से देखते हुए काल-विभाजन करना हितकर है। जो इस प्रकार हो सकता है-
हिंदी पत्रकारिता का नवजागरण काल -1826 से 1899 ई.
हिंदी पत्रकारिता का तिलक युग-1900 से 1919 ई.
हिंदी पत्रकारिता का गाँधी युग-1920 से 1947 ई.
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी पत्रकारिता-1948 से 1974 ई.
आपातकालीन हिंदी पत्रकारिता-1975 से 1979 ई.
समकालीन हिंदी पत्रकारिता-1980 से वर्तमान
इस प्रकार पत्रकारिता का काल-विभाजन करते हुए विवेचना करना उचित जान पड़ता है।
संदर्भ
1. डाॅ. कमल पुंजाणी, हिंदी पत्र-साहित्य, कृष्णा ब्रदर्स, अजमेर, प्राक्कथन
2. डाॅ. गिरिराज शरण अग्रवाल/चंद्रमणि रघुवंशी, उ.प्र. श्रमजीवी पत्रकार यूनियन (पंजीकृत) बिजनौर, पृष्ठ 8
3. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 4
4. डाॅ. गिरिराज शरण अग्रवाल/चंद्रमणि रघुवंशी, उ.प्र. श्रमजीवी पत्रकार यूनियन (पंजीकृत) बिजनौर, पृष्ठ 10
5. जे. नटराजन, भारतीय पत्रकारिता का इतिहास, सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार, पृष्ठ 2
6. हेरम्ब मिश्र, संपूर्ण पत्रकारिता, अभिनव भारती इलाहाबाद, पृष्ठ 4
7. डाॅ. सुशीला जोशी, हिंदी पत्रकारिता: विकास और विविध आयाम, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, पृष्ठ 18
8. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 35
9. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 40
10. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 46
11. डाॅ. शंकर बसंत मुदगल, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास, चंद्रलोक प्रकाशन कानपुर, पृष्ठ 16
12. डाॅ. शंकर बसंत मुदगल, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास, चंद्रलोक प्रकाशन कानपुर, पृष्ठ 17
13. डाॅ. शंकर बसंत मुदगल, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास,, चंद्रलोक प्रकाशन कानपुर, पृष्ठ 17
14. डाॅ. शंकर बसंत मुदगल, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास, चंद्रलोक प्रकाशन कानपुर, पृष्ठ 17
15. डाॅ. शंकर बसंत मुदगल, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास, चंद्रलोक प्रकाशन कानपुर, पृष्ठ 19
16. डाॅ. शंकर बसंत मुदगल, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास, चंद्रलोक प्रकाशन कानपुर, पृष्ठ 20
17. डाॅ. शंकर बसंत मुदगल, दभारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास, चंद्रलोक प्रकाशन कानपुर, पृष्ठ 21
18. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 54
19. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 104
20. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 55
21. डाॅ. धरेन्द्रनाथ सिंह, हिंदी पत्रकारिता भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृष्ठ 6
22. डाॅ. धरेन्द्रनाथ सिंह, हिंदी पत्रकारिता भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृष्ठ 7
23. ीजजचरूध्ध्इींतंजकपेबवअमतलण्वतहध्पदकपं
24.ीजजचरूध्ध्ीपण्ूपापचमकपंण्वतह