अमन कुमार
तत्कालीन परिस्थितियाँ
पत्रकारिता का यह युग विशेष रूप से बालगंगाधर तिलक और हिंदी साहित्य के निर्माता महावीर प्रसाद द्विवेदी का युग है। स्वतंत्रता आंदोलन के लिये गर्म दल का उदय हो चुका था। जब सन् 1892 के भारतीय काॅन्सिल्स अधिनियम के द्वारा गर्मदल वालों की भावनाएँ सन्तुष्ट नहीं हुई तो उन्होंने जोरदार प्रतिक्रियाएँ करनी शुरू कर दी थी। सूरत अधिवेशन के बाद तिलक की बेचैनी बढ़ गई। उन्होंने नए संघर्ष के लिये अन्य देशभक्तों से मिलना शुरू कर दिया। उन्होंने लोगों को समझाया कि हम स्वराज्य की माँग कर रहे हैं और इसलिए शिवाजी उत्सव बनाना हमारे लिये सबसे अधिक उपयुक्त है। यह गर्म विचारधारा निरंतर बढ़ती गई। तिलक का हौंसला बढ़ता गया और उन्होंने सभाओं में एक नया नारा ‘‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। मैं इसे लेकर रहूँगा।’’ देकर तूफान खड़ा कर दिया। ‘‘लोकमान्य तिलक के सक्रिय सहयोगियों में विपिनचंद्र पाल, अरविन्द घोष और लाला लाजपतराय थे।’’1 उन्नींसवीं शताब्दी के जाते-जाते भारत तीन बड़े अकालों को झेल चुका था। जिसमें लाखों लोग बेमौत मर गए। जबकि महारानी विक्टोरिया का जयंती उत्सव अंग्रेज शासक बड़ी धूमधाम के साथ मना रहे थे। सन् 1893 में स्वामी विवेकानंद शिकागो की सर्वधर्म सम्मेलन सभा में भारतीयता व हिन्दू धर्म की महत्ता पर भाषण देकर भारतीयों में स्वाभिमान जगा चुके थे। तिलक भी हिन्दु पुनर्जागरण के पक्षधर थे। यही स्थिति अरविन्द घोष की भी थी। ‘‘तिलक के पास लेखनी का बहुत बड़ा बल था। वे एक तेजस्वी पत्रकार थे।’’2
उधर अंग्रेज शासक भारतीय जनता पर अत्याचार कर रहे थे। उनके व्यापारों को लूटा जा रहा था। भारतीयों की भावनाओं के साथ खिलावाड़ करते हुए लार्ड कर्जन ने सन् 1905 में बंगाल को दो भागों में बाँटकर हिन्दू-मुसलमानों का झगड़ा शुरू करा दिया था। इसी समय पर सन् 1904-05 में रूस-जापान के बीच हुये युद्ध में जापान ने रूस को पराजित कर दिया तो भारतीय वीरों को इस घटना से बड़ी प्रेरणा मिली। इसी प्रेरणा से बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चंद्रपाल (लाल-बाल-पाल) त्रिमूर्ती सामने आयी। भारतीय राजनीति के लिये सन् 1908 में तिलक पर राजद्रोह के लिये मुकदमा चलाया गया और 6 साल की सजा दे दी गयी। उन्हें सन् 1908 ई. से 1914 ई. तक बर्मा की मांडले जेल में बिताने पड़े।
तिलक ने भारतीयों को ‘‘अवज्ञा का सिद्धांत’’ सिखाया। यही वह युग है जब बंगाल के शेर सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने गरजते हुए अपने भाषण के अंत में कहा था ‘‘राष्ट्रों के भाग्य विधाता वे स्वयं हैं, कोई दूसरा नहीं।’’ इस समय तक कांग्रेस अपना काम करने लगी थी। सन् 1906 में वयोवृद्ध दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में कलकत्ता अधिवेशन हुआ और यह अधिवेशन बड़ा महत्त्वपूर्ण रहा। कांग्रेस से जुड़े अधिकाँश नेता हाथ जोड़कर अंग्रेजों से आजादी माँग रहे थे। जबकि तिलक उनसे जबरदस्ती आजादी छीन लेने के पक्ष में थे। यही कारण था कि सन् 1906 ई. के कांग्रेस अधिवेशन में नीतियों में बदलाव किया गया। सरकार की दमन नीति बदस्तूर जारी रही। नरम पंथी नेताओं ने मिलकर संविधान सभा में कांग्रेस के गठन में परिवर्तन किया और उसके बल पर गर्मदल वालों को कांग्रेस से एक तरह से निकाल ही दिया।
‘‘जैसी कि सम्भावना थी, भारत सरकार ने उग्र विचारधारा के विकास का सन्देह तथा खतरे से भरा हुआ अनुभव किया। गर्म विचारधारा के समर्थकों के दमन के लिए कोई प्रयत्न शेश न रहा। उन्हें गिरफ्तार किया गया। भारतीय संहिता में 124 (अ) तथा 153 (अ) धारायें जोड़ दी गयीं, जिससे स्थिति का मुकाबला किया जा सके। एक अन्य कानून के बल पर अधिकारियों को अधिकार दिया गया कि वे ऐसी राजनीतिक समस्याओं पर रोक लगा दें, जिन पर संक्षिप्त मुकदमे की कार्रवाई पूर्ण न हो। सन् 1909 और सन् 1910 में भारतीय समाचार-पत्रों को कुचलने के लिए दो कानून स्वीकार एक अध्यादेश जारी किया, जिससे सार्वजनिक सभायें करने के लिये जनता के अधिकार को सीमित कर दिया गया।’’3
कांग्रेस के प्रतिवर्ष अधिवेशन होते रहे। देश को आजाद करने की माँगे माँगी जाती रही किंतु परिणाम शून्य ही रहा। सन् 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया। कांग्रेस के नरम दल ने सरकार का साथ देने की घोषणा की जबकि गर्म दल के नेताओं ने स्वराज्य प्राप्ति के लिये आंदोलन तेज कर दिया। गर्म दल के नेताओं ने स्वदेशी को स्वीकारने और विदेशी का बहिष्कार करने का कार्यक्रम प्रस्तुत किया। यही नहीं उन्होंने ‘नेशनल पार्टी’ की स्थापना भी कर ली। सन् 1914 के बाद जब तिलक मांडले जेल से बाहर आये तब नरम दल के नेता उनका सामना न कर सके। एक तरह से यह कहना उचित ही होगा कि बालगंगाधर तिलक ने आजादी की चाह का बीज गहराई तक रोप दिया था जो बाद में विशाल वृक्ष बनकर अंग्रेजों के सामने खड़ा हुआ। तिलक अच्छी तरह जानते थे कि अंग्रेजों की धूर्तता से सरलता के साथ आजादी नहीं मिल सकती बल्कि हर मोर्चे पर लोहा लेना ही होगा। क्योंकि ‘‘उग्र राष्ट्रीयता के प्रबल समर्थक होते हुए भी तिलक हिंसावादी आंदोलन के विरुद्ध थे।’’4 इसीलिये उन्होंने जनजाग्रति के लिये पत्रकारिता का सहारा भी लिया।
‘‘सन् 1907 में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के मराठी साप्ताहिक ‘केसरी’ की विचारधारा का प्रचार हिंदी भाषा-भाषियों में करने के लिए तत्कालीन मध्यप्रांत और बरार की राजधानी नागपुर में ‘हिंदी केसरी’ निकालने के लिए एक कम्पनी बनाई गई, जिसके लिए तीन-तीन सौ रुपये के शेयर डाॅ. मुंजे, डाॅ. लिमये, नरसिंहदास चांडक और माधवराव सप्रे ने खरीदे। नए पत्र के प्रकाशन की घोषणा का विज्ञापन ‘देश सेवक’ पत्र में निकाला गया।’’5
यह पत्र पारिवारिक भावना से निकाला गया था जो पत्रकारिता के इतिहास में महŸवपूर्ण स्थान रखता है। ‘‘हिंदी केसरी’ के कार्यकर्ताओं का एक छोटा सा परिवार बना जिसके मुखिया सप्रे जी थे। अन्य सदस्य थे-जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल, लक्ष्मीधर वाजपेयी, ललीप्रसाद पाण्डेय और सिद्धिनाथ दीक्षित। जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल मुम्बई के जाने-माने समाचार पत्र ‘श्री वेंकटेश्वर समाचार’ के संपादक का पद छोड़कर सप्रे जी के बुलावे पर ‘हिंदी केसरी’ में नागपुर चले आए थे। संपादक के रूप में सप्रेजी का नाम छपता था। सप्रेजी के प्रमुख संपादकीय सहयोगी जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल, लक्ष्मीधर वाजपेयी और गंगा प्रसाद गुप्त थे। लली प्रसाद पण्डेय अपनी राष्ट्रीय भावना के कारण उसमें हाथ बँटाने के लिए अपना जमा हुआ काम छोड़कर इस परिवार में शामिल हुए थे। सिद्धिनाथ दीक्षित मुख्य रूप से प्रबंध कार्य देखते थे। शुक्ल जी, वाजपेयी और पाण्डेयजी को, मराठी भाषा में प्रवीण होने के कारण लोकमान्य तिलक के मराठी केसरी के लेखों का हिंदी अनुवाद करने और उसकी नीति के अनुरूप लेख लिखने में सुविधा थी। सप्रेजी ने नियमानुसार समाचार पत्र प्रकाशित करने का घोषणापत्र भरा। पूरी तैयारी कर ‘हिंदी केसरी’ का प्रथम अंक 13 अप्रैल 1907 को प्रकाशित हुआ। पहले अंक की 3000 प्रतियाँ मुद्रित हुईं।’’6 ‘‘हिंदी केसरी’ के मुख पृष्ठ पर, मराठी केसरी के मुखपृष्ठ पर छप रहे पं. जगन्नाथ के संस्कृत श्लोक का हिंदी में अनूदित पद्य छापा जाता था, जिसका हिंदी अनुवाद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने किया था। इसमें भारत को सोते हुए केसरी की उपमा देकर पाठकों को उसके जगाने पर उसकी उग्रता और शौर्य का विश्वास दिलाया गया था।’’7 यह स्वदेशी कागज और स्याही से छपता था। वार्षिक मूल्य डाक व्यय सहित दो रुपये था। तीन महीने के लिए मूल्य एक रुपया और नमूने की प्रति भेजने की कीमत आधा आना रखी गई थी।
‘‘हिंदी केसरी’ के प्रथम पृष्ठ पर विज्ञापन की छपाई की दरें भी प्रकाशित की गई जिसके अनुसार एक माह के लिए प्रति पंक्ति चार आना दर थी। एक महीने से अधिक समय अर्थात् आठ सप्ताह के लिए एक कालम प्रति इंच के लिए दर साढ़े तीन रुपये रखी गई थी। एक वर्ष (50 सप्ताह) के एक कालम एक इंच की दर 12 रुपये थी। कालम की लम्बाई 13 इंच और चैड़ाई सवा दो इंच थी। एक कालम में ग्रेट प्रायमर टाइप की 58 लाइनें आती थीं। समाचार पत्र इसी टाइप में छपता था। ‘हिंदी केसरी’ के प्रकाशन का देश के प्रमुख हिंदी पत्र-पत्रिकाओं ने स्वागत् किया था। मिर्जापुर की ‘आनंद-कादम्बिनी’ ने लिखा-‘हर्ष का विषय है कि आज सप्रेजी की दया और उद्योग से प्रशंसित पत्र मराठी केसरी के हिंदी प्रतिरूप का दर्शन हमारे हर्ष का हेतु हुआ है। न केवल मध्यप्रदेश से हमारी भाषा के एक नवीन साप्ताहिक पत्र के निकलने अथवा न केवल महानुभाव की ओजस्विनी लेखनी की अमृतधारा से नागरी पत्र पाठकों की तृप्ति की आशा होने ही के कारण इसका संपादन भार सप्रेजी महाशय जैसे सुयोग्य सज्जन के द्वारा होने के कारण इसकी पूर्ण सफलता की दृढ़ आशा होने से हम अधिक संतुष्ट हैं। -लेख इसके अत्यंत पुष्ट प्रयोजनी और ओजस्वी होते हैं-इसके आख्यान की आवश्यकता नहीं है। इसके मुख्य उद्देश्य स्वदेशी प्रचार और विदेशी बहिष्कार, स्वराज्य और हमारे स्वात्म गौरव की स्थापना है।’’8
‘‘सरस्वती ने मई, 1907 के अंक में लिखा-‘‘ये विचार विचारपूर्वक लिखे गए हैं।’’ ‘हिंदी केसरी’ का स्वर और चरित्र ही ऐसा था कि लोग इसे पढ़ने से नहीं चूकते थे। देशाभिमान की खबरों पर इसका जोर रहता था। 24 अगस्त 1907 के अंक में कलकत्ता हाईकोर्ट के एक फैसले की खबर ‘स्वराज्य माँगना बा-कायदा हैं शीर्षक से ‘हिंदी केसरी’ से प्रकाशित हुई।’’9
‘‘हिंदी केसरी’ में पूरे देश के स्वतंत्रता संग्राम के समाचार प्रकाशित होते थे। इससे पाठकों को आंदोलन की गतिविधियाँ, उसके फैलाव और आम जनता के योगदान की जानकारी मिलती थी। 24 अगस्त, 1907 के अंक में मद्रास, इलाहाबाद राजमहेन्द्री, कोचीन आदि स्थानों के समाचार प्रकाशित हुए। कोचीन के समाचार में लिखा गया- ‘‘राजा के कालेज के कुछ विद्यार्थियों ने एक बड़ी सभा की थी, उसमें ‘वन्दे मातरम्’ गीत गाया था और वंदे मातरम्’ का जयघोष किया था। यह खबर सुनकर दीवान ने प्रिसिंपल से इसकी कैफियत माँगी है।’’10
‘हिंदी केसरी’ के प्रकाशन के चार माह के बाद ही उसके संपादन का भार जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल को सौंपा गया और सप्रेजी पर व्यवस्था का भार था। कुछ ही दिनों में ‘हिंदी केसरी’ ने देश में अपना प्रमुख स्थान बना लिया और लोग चाव से इसे पढ़ते थे। इसकी ग्राहक संख्या छह हजार थी। सेना और पुलिस में उसका पढ़ना अपराध माना जाता था। यह बात रौलट-राजद्रोह जाँच कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में भी अंकित की है।’’11
‘‘कहना न होगा कि जीवन-भर तिलक महाराज इसी हैसियत से कार्य करते रहे और देश की मुक्ति के लिए निरंतर प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ते रहे।’’12
पत्रकारिता में हिंदी साहित्यकार
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दो दशक की पत्रकारिता हमारे लिए अपेक्षाकृत निकट है और उसमें पिछले युग की पत्रकारिता के साथ-साथ नये युग की विविधता के दर्शन होते हैं। 19वीं शती के पत्रकारों को भाषाशैली क्षेत्र में अव्यवस्था का सामना करना पड़ा था। उन्हें एक ओर अंग्रेजी और दूसरी ओर उर्दू के पत्रों के सामने अपनी वस्तु रखनी थी। अभी हिंदी में रुचि रखनेवाली जनता बहुत छोटी थी। धीरे-धीरे परिस्थिति बदली और हिंदी पत्रों ने साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में नेतृत्व करना प्रारंभ कर दिया। इस शताब्दी से धर्म और समाज सुधार के आंदोलन कुछ पीछे पड़ गए और जातीय चेतना ने धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना का रूप ग्रहण कर लिया। फलतः अधिकांश पत्र, साहित्य और राजनीति को ही लेकर चले। साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में पहले दो दशकों में आचार्य द्विवेदी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ (जनवरी 1900 ई.) का नेतृत्व रहा। ‘‘सरस्वती’ विविधविषयक पत्रिका थी। द्विवेदीजी सैद्धांतिक व्यक्ति थे। वे अपने सिद्धांतों के आधार पर संपादन करते थे और किसी से इस संदर्भ में समझौता नहीं करते। द्विवेदीजी के समय तक हिंदी का कोई प्रमाणिक हिंदी व्याकरण नहीं था। अतः वे संस्कृत व्याकरण के अनुसार हिंदी भाषा का संशोधन, संपादन करते थे।’’13 इस प्रकार देखा जाये तो ‘‘उन्होंने सबसे पहले खड़ी बोली हिंदी को व्याकरणसम्मत बनाया’’14 उन्होंने दूसरा किंतु महŸवपूर्ण कार्य यह किया कि ‘‘हिंदी की प्रारंभिक कहानियों का प्रकाशन कर हिंदी कथा-साहित्य का शुभारम्भ किया।’’15 यह भी कहा जा सकता है कि ‘‘आधुनिक हिंदी साहित्य की रचना का वास्तविक आरंभ मासिक पत्रिका सरस्वती के द्वारा हुआ।’’16
सन् 1900 से 1920 ई. तक सरस्वती के संपादन का विवरण इस प्रकार है-
‘‘-जनवरी 1900-दिसंबर 1900 ई.-संपादक समिति।
1. बाबू कार्तिकप्रसाद खत्री
2. बाबू राधाकृष्णदास
3. पं. किशोरीलाल गोस्वामी
4. बाबू जगन्नाथदास
5. बाबू श्यामसुंदरदास
– जनवरी 1901-दिसंबर 1902ई. -बाबू श्यामसुंदरदास
– जनवरी 1903-दिसंबर 1920ई. -पं0 महावीरप्रसाद द्विवेदी
– 1903 से 1920ई. के बीच द्विवेदीजी के अस्वस्थ होने पर 1910ई. में देवीप्रसाद शुक्ल ‘भगवन’ एक साल के लिए संपादक रहे।
– 1919ई. में महावीरप्रसाद द्विवेदी के पुनः बीमार होने पर इलाहाबाद में उनका कामकाज देवीप्रसाद शुक्ल देखते थे, इसलिए द्विवेदीजी जी के साथ शुक्लजी का नाम भी प्रकाशित होता था।
– जुलाई 1920 से दिसंबर 1920 तक द्विवेदीजी के साथ पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का नाम भी संपादक के रूप में छपा।
– द्विवेदीजी के लम्बे संपादन-कार्य में कई सहायकों के नाम भी आते हैं लेकिन इनके नाम कभी छपे नहीं। जैसे-पं. उदयनारायण वाजपेयी, पं. जनार्दनप्रसाद झा उर्फ जनसीदन, गणेशशंकर विद्यार्थी, हरिभाऊ उपाध्याय, पं. बदरीप्रसाद भट्ट, कामताप्रसाद गुरु, लल्ली प्रसाद पाण्डेय।’’17
इसी दौर में अनेक ऐसे संपादक व साहित्यकार थे जो कि हिंदी को गढ़ने का काम कर रहे थे। इनमें ‘‘मर्यादा’ मासिक पत्र के संपादक बद्री प्रसाद पांडेय, ‘इन्दु’ मासिक के संपादक अम्बिका प्रसाद गुप्त, ‘देवनागर’ मासिक के संपादक यशोदानंदन अखौरी के नाम स्मरणीय हैं।’’18 ‘लक्ष्मी’ के संपादक गोरेलाल मंजु, लाला भगवानदीन, माधवप्रसाद ने भी हिंदी साहित्य की बड़ी सेवा की। यही नहीं बल्कि इस समय जो राजनीतिक पत्र भी निकले, उन्होंने भी हिंदी साहित्य के लिए प्रमुख काम किया।
इन सब में एक और खास नाम आता है ‘पण्डित बालकृष्ण भट्ट’ का जिन्हें विस्मृत नहीं किया जा सकता है। ‘‘उन दिनों हिंदी के दो खास लेखक अपने-अपने ढंग से प्रसिद्ध थे- एक पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी की भाषा व्याकरण की दृष्टि से निर्दोष होती थी किंतु भाषा में रस लगभग नदारद। दूसरी ओर पं. बालकृष्ण भट्ट अपनी भाषा में व्याकरण की बहुत अधिक परवाह नहीं करते थे, किंतु उनकी भाषा बढ़िया-से-बढ़िया रसगुल्लों की तरह रस से भरी होती थी। भट्ट जी अपनी भाषा में फारसी, अंग्रेजी और अरबी तक के चालू और आमफहम शब्द और मुहावरे नगीनों की तरह जड़ देते थे।’’19 पण्डित जी जितना अच्छा लिखते थे उतना ही अच्छा बोलते भी थे। उनके पत्रकर्म और लेखन का प्रारंभ काफी पहले प्रारंभ हो गया था। ‘‘पं. बालकृष्ण भट्ट के शुरू के दिन भारतेन्दु बाबू हरीश्चंद्र के समय से मिलते हुए थे। दोनों में काफी प्रेम भी था।’’20 ‘‘भट्ट जी का ‘हिंदी प्रदीप’ मासिक पत्र हिंदी की उन्नति और विकास के संघर्ष का इतिहास है। इस पत्र में भट्ट जी ने प्रायः सभी विषयों पर लिखा है जिसमें उन्होंने हिंदी साहित्य के विभिन्न विषयों की पूर्ति की है। इस पत्र में उन्होंने हिंदी को सर्वांगीण बनाने के लिए साहित्य, समाज, राजनीति, अध्यात्म, दर्शन, वेदांत, इतिहास, खगोल, भूगोल, नीति, उपदेश, नागरिकता, आदि विषयों पर लेख लिखे हैं।’’21 ‘‘बाबू श्यामसुंदरदास के बुलाने पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित होने वाले हिंदी शब्दकोष का संपादन करने के लिए बनारस चले गये और उसे पूर्ण उपयोगी बनाने में पर्याप्त परिश्राम किया।’’22 सन् 1902 में ‘‘जयपुर से पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी के संपादकत्व में ‘समालोचक’ पत्रिका प्रकाशित हुई। यह राजस्थान की श्रेष्ठ पत्रिका थी। इसमें पुस्तक-सार, अनुवाद एवं निबंध आदि प्रकाशित होते थे।’’23 किंतु यह पत्रिका 1905 में बंद हो गयी। सन् 1907 में ‘‘हिंदी में राजनीतिक पत्र निकालने का प्रथम प्रयास अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी ने किया था। उन्होंने कलकत्ता से ‘नृसिंह’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन कर राजनीतिक पत्रकारिता का मार्ग प्रशस्त किया। उस पत्र के संपादक, प्रकाशक मालिक और मैनेजर वे स्वयं थे। वाजपेयी जी के सहयोगी संपादकों में वासुदेव मिश्र और छबीले दास थे। वासुदेव बंगला पुस्तक ‘जालियात क्लाइब’ का हिंदी अनुवाद करके उसका धारावहिक प्रकाशन कराते थे।’’24 अम्बिका प्रसाद वाजपेयी ने उस समय एक और बड़ा काम ‘राष्ट्रभाषा’ के लिए किया। ‘‘नृसिंह’ राजनीतिक ज्ञान देने में सचेष्ट था। हिंदी पत्रों में हिंदी भाषा और साहित्य की वकालत हुई है पर ‘नृसिंह’ ने सबसे पहले ‘राष्ट्रभाषा’ शीर्षक से चार लेख लिखे और हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने का औचित्य बताते हुए हिंदी-भाषियों को इस दिशा में कर्तव्य का निरूपण भी किया।’’25
‘‘छायावादी महाकवि जयशंकर प्रसाद की प्रेरणा से प्रसादजी के भानजे अम्बिकाप्रसाद गुप्त ने सन् 1909 में काशी से ‘इन्दु’ का प्रकाशन किया।’’26 ‘इन्दु’ के लेखकों और कवियों में राय कृष्णदास, मैथिलीशरण गुप्त, रामदहीन मिश्र, लोचनप्रसाद गौड़, निराला, हरिऔध, मुकुटधर शर्मा, कृष्णबिहारी मिश्र प्रभृति थे।’’27
माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘‘7 अप्रैल 1913 को खंडवा से ‘प्रभा’ का प्रकाशन आरंभ’’28 किया। ‘‘इसमें निर्भीक, निष्पक्ष, गवेषणापूर्ण सामग्री प्रकाशित होती थी। 1917 के पूर्व यह साहित्यिक पत्र था। उसके पश्चात् यह राजनीति-प्रधान हो गया। ‘प्रभा’ के प्रमुख लेखक और कवि थे-मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, निराला, हरिऔध, रायकृष्णदास, लक्ष्मीनारायण मिश्र, उग्र, माखनलाल चतुर्वेदी, इलाचंद्र जोशी, श्रीराम शर्मा, संपूर्णानंद, सद्गुरुशरण अवस्थी।‘‘29
इस समय के साहित्यकारों व संपादकों में एकदूसरे के प्रति सहानुभति थी। वह किसी भी सूरत में अंगेज सरकार को घेरे रखना चाहते थे। यही कारण था कि राणाप्रताप को प्रेरणास्रोत मानने वाले गणेशशंकर विद्यार्थी ने कानपुर से ‘प्रताप’ का शुभारम्भ किया। ‘‘प्रताप’ के संपादक गणेशशंकरजी के जेल जाने पर श्रीकृष्णदत्त पालिवाल, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, माखनलाल चतुर्वेदी, श्री शिरोमणि, श्रीनिवास बालाजी हार्डीकर ने पत्र का संपादन किया था।’’30
इस दौर की पत्रकारिता में हिंदी साहित्यकारों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। उन्होंने न सिर्फ साहित्यिक लेख लिखे बल्कि गोरी सरकार पर भी चोट की। यह दौर हिंदी साहित्य के इतिहास में अमर हो गया है। न सिर्फ हिंदी गद्यशैली का विकास इस दौर में हुआ बल्कि अनेक विधाओं ने भी इस दौर में जन्म लिया। तुलनात्मक आलोचना के जनक पं. पद्मसिंह इसी दौर के सशक्त हस्ताक्षर थे। निबंध, पत्र साहित्य, रेखाचित्र, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में खूब लिखा जा रहा था।
प्रमुख पत्र
‘‘अभ्युदय’ में यह अपील छापी जाती थी-‘कृपा कर पढ़ने के बाद ‘अभ्युदय’ किसी किसान भाई को दे दीजिए, पहले जहाँ ‘अभ्युदय’ की पृष्ठ संख्या 28-32 होती थी, जून 1947 के बाद वह 16 पृष्ठ का छपने लगा। दिसंबर 1947 में मुख पृष्ठ पर संचालक पद्मकांत मालवीय और संपादक देवदत्त शास्त्री के नाम थे। पृष्ठ दो पर संपादकीय टिप्पणियाँ दो या तीन विषयों पर दी जाती थी। राशनिंग व्यवस्था पर ‘अभ्युदय’ संपादक की तीखी टिप्पणी मननीय है-
कन्ट्रोल की माँ
चोर बाजारी है, इस कलियुगी सुरसा के मुँह में सरकार और जनता दोनों के ईमान समा गए हैं। सरकारी कर्मचारी घूस लेते हैं और जनता घूस देकर चोर बाजारी करती है। इन हरामखोरों और बेईमानों के पीछे नेकनीयत, ईमानदार गेहूँ के साथ घुन की भाँति पीसे जा रहे हैं।
कण्ट्रोल की माँ ब्रिटिश शासन की अंतिम यादगार है जिसे अविलम्ब दफनाने के साथ कण्ट्रोल की माँ चोरबाजारी का खात्मा करना सरकार का कर्तव्य है।
घूस लेना, घूस देना, और चोर बाजारी करना देशद्रोह है। यदि सरकार इनको दंड देने में दया अथवा ढिलाई करेगी तो वह जनता और देश के साथ दगा करेगी।
कण्ट्रोल से पहले उसकी माँ चोरबाजारी को खत्म करना, राष्ट्रीय सरकार की कसौटी है।’’31
‘‘हिंदी केसरी’’ का जिक्र हम ऊपर कर ही चुके हैं। परंतु सरस्वती ने जो आदर्श रखा था, वह अधिक लोकप्रिय रहा और इस श्रेणी के पत्रों में उसके साथ कुछ थोड़े ही पत्रों का नाम लिया जा सकता है, जैसे ‘भारतेन्दु’ (1905ई.), नागरी हितैषिणी पत्रिका, बाँकीपुर (1905ई.), नागरीप्रचारक (1906ई.), मिथिलामिहिर (1910ई.) और इंदु (1909ई.)। ‘सरस्वती’ और ‘इंदु’ दोनों हिंदी की साहित्यचेतना के इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण हैं और एक तरह से हम उन्हें उस युग की साहित्यिक पत्रकारिता का शीर्शमणि कह सकते हैं। ‘सरस्वती’ के माध्यम से आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और ‘इंदु’ के माध्यम से पंडित रूपनारायण पांडेय ने जिस संपादकीय सतर्कता, अध्यवसाय और ईमानदारी का आदर्श हमारे सामने रखा वह हिंदी पत्रकारिता को एक नई दिशा देने में समर्थ हुआ। ‘‘आर्य महाविद्यालय, ज्वालापुर (हरिद्वार) से मई 1909 में पद्मसिंह शर्मा और नरदेवा शास्त्री के संपादकत्व में हिंदी मासिक पत्र ‘भारतोदय’ का प्रकाशन हुआ।’’32
हम इस दौर के पत्रों में ‘कर्मयोगी’, ‘हिंदी केसरी’ (1904-1908 ई.), ‘अभ्युदय’ (1905 ई.), ‘प्रताप’ (1913 ई.), आदि के रूप में हिंदी राजनीतिक पत्रकारिता को कई डग आगे बढ़ाते पाते हैं। प्रथम महायुद्ध की उत्तेजना ने एक बार फिर कई दैनिक पत्रों को जन्म दिया। कलकत्ता से ‘कलकत्ता समाचार’, ‘स्वतंत्र’ और ‘विश्वमित्र’ प्रकाशित हुए, बंबई से ‘वेंकटेश्वर समाचार’ ने अपना दैनिक संस्करण प्रकाशित करना आरंभ किया और दिल्ली से ‘विजय’ निकला।
महावीरप्रसाद द्विवेदी हिंदी के पहले लेखक थे, जिन्होंने आलोचकीय दृष्टि से भी देखा था। उन्होंने वेदों से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक के संस्कृत-साहित्य की निरंतर प्रवाहमान धारा का अवगाहन किया था एवं उपयोगिता तथा कलात्मक योगदान के प्रति एक वैज्ञानिक नजरिया अपनाया था। उन्होंने श्रीहर्ष के संस्कृत महाकाव्य नैधीय चरितम् पर अपनी पहली आलोचना पुस्तक नैषधचरित चर्चा नाम से लिखी (1899), जो संस्कृत-साहित्य पर हिंदी में पहली आलोचना-पुस्तक भी है। फिर उन्होंने लगातार संस्कृत-साहित्य का अन्वेषण, विवेचन और मूल्याँकन किया। उन्होंने संस्कृत के कुछ महाकाव्यों के हिंदी में औपन्यासिक रूपांतर भी किया, जिनमें कालिदास कृत रघुवंश, कुमार संभव, मेघदूत, किरातार्जुनीय प्रमुख हैं।
संस्कृत, ब्रजभाषा और खड़ी बोली में स्फुट काव्य-रचना से साहित्य-साधना का आरंभ करने वाले महावीर प्रसाद द्विवेदी ने संस्कृत और अंग्रेजी से क्रमशः ब्रजभाषा और हिंदी में अनुवाद-कार्य के अलावा समालोचनात्मक लेखन किया। उनकी मौलिक पुस्तकों में नाट्यशास्त्र (1904 ई), विक्रमांकदेव चरितचर्या (1907 ई.), हिंदी भाषा की उत्पत्ति (1907 ई.) और संपत्तिशास्त्र (1907 ई.) प्रमुख हैं तथा अनूदित पुस्तकों में शिक्षा (हर्बर्ट स्पेंसर के एजुकेशन का अनुवाद, 1906 ई.) और स्वाधीनता (जान स्टुअर्ट मिल के आॅन लिबर्टी का अनुवाद, 1907 ई.)।
सरस्वती पत्रिका
सरस्वती हिंदी साहित्य की प्रसिद्ध रूपगुणसंपन्न प्रतिनिधि पत्रिका थी। इस पत्रिका का प्रकाशन इलाहाबाद से सन् 1900 ई. के जनवरी मास में प्रारंभ हुआ था। 32 पृष्ठ की क्राउन आकार की इस पत्रिका का मूल्य 4 आना मात्र था। इसके संपादक थे- जगन्नाथदास रत्नाकर, श्यामसुंदर दास, राधाकृष्ण दास, कार्तिक प्रसाद और किशोरी लाल। दूसरे वर्ष केवल श्यामसुंदरदास ही इसके संपादक रहे। 1903 ई. में महावीर प्रसाद द्विवेदी इसके संपादक हुए और 1920 ई. तक रहे। इसका प्रकाशन पहले झाँसी और फिर कानपुर से होने लगा था। महवीर प्रसाद द्विवेदी के बाद पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, देवीदत्त शुक्ल ठाकुर, श्रीनाथ सिंह, पुनः पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, देवीलाल चतुर्वेदी और श्रीनारायण चतुर्वेदी संपादक हुए। 1905 ई. में काशी नागरी प्रचारिणी सभा का नाम मुखपृष्ठ से हट गया।
इस युग के अन्य महत्त्वपूर्ण पत्र इस प्रकार है-
मासिक, काव्य कलानिधि, मिर्जापुर (1900 ई.), मासिक, जैन मित्र, बंबई (1900 ई.), मासिक, छत्तीसगढ़ मित्र, बिलासपुर (1900 ई.), मासिक, सुदर्शन, काशी (1900 ई.), मासिक, जासूस, गहमर, गाजीपुर (1900 ई.), साप्ताहिक, भारत रत्न, पटना (1901 ई.), मासिक, आरोग्य सुधानिधि, कलकत्ता (1901 ई.), मासिक, कत्र्तव्य सुधानिधि, प्रयाग (1901 ई.), मासिक, गोपाल पत्रिका, लखनऊ (1901 ई.), मासिक, नूतन व्यापारी, मेरठ (1901 ई.), मासिक, जाट हितकारी, आगरा (1901 ई.), मासिक, पांचाल पंडिता, जालंधर (1901 ई.), मासिक, हिंदी मास्टर, नरसिंहपुर (1901 ई.), मासिक, जीवनपथ, लाहौर (1901 ई.), पाक्षिक, आर्य सेवक, नरसिंहपुर (1901 ई.), मासिक, अनाथरक्षक, अजमेर (1902 ई.), मासिक, समालोचक, जयपुर (1902 ई.), मासिक, काव्य सुधाकर, सीतापुर (1902 ई.), मासिक, वसुंधरा, लखनऊ (1902 ई.), साप्ताहिक, आर्य वनिता, जबलपुर (1902 ई.), साप्ताहिक, गया समाचार, गया (1902 ई.), साप्ताहिक, दूध समाचार, मिर्जापुर (1902 ई.), साप्ताहिक, बृजवासी, वृंदावन (1902 ई.), साप्ताहिक, जैन, भावनगर (1902 ई.), मासिक, अबला हितकारक, मुरादाबाद (1903 ई.), मासिक, स्त्री दर्पण, प्रयाग (1903 ई.), मासिक, कायस्थ कुल भास्कर, इटावा (1903 ई.), मासिक, धर्मोपदेशक, बरेली (1903 ई.), मासिक, लक्ष्मी, गया (1903 ई.), मासिक, लक्ष्मी उपदेश लहरी, काशी, (1903 ई.), मासिक, वाणिज्य सुखदायक, काशी (1903 ई.), मासिक, समय, कलकत्ता (1903 ई.), मासिक, धर्म पंच, मेरठ (1903 ई.), मासिक, कवींद्र वाटिका, प्रयाग (1903 ई.), मासिक, रसिक लहरी, कानपुर (1903 ई.), मासिक, मोहिनी, कन्नौज (1903 ई.), साप्ताहिक, गढ़वाल समाचार, गढ़वाल (1903 ई.), साप्ताहिक, नारद, छपरा (1903 ई.), साप्ताहिक, हित वार्ता, कलकत्ता (1903 ई.), साप्ताहिक, जयाजी प्रताप, ग्वालियर (1903 ई.), साप्ताहिक, बिहारी, बंबई (1904 ई.), पाक्षिक, देश उपकारक, (1904 ई.), मासिक, आर्य ग्रन्थावली, लाहौर (1904 ई.), मासिक, संस्कृत रत्नाकर, लाहौर (1904 ई.), साप्ताहिक, सत्यवादी, गुरुकुल कंगड़ी (1904 ई.), मासिक, भारतेन्दु, काशी (1905 ई.), मासिक, स्वदेश बांधव, आगरा(1905 ई.), साप्ताहिक, स्वदेश बंधु, लाहौर (1905 ई.), भारत सर्वस्व, जयपुर (1905 ई.), मासिक, सनातन धर्म, काशी (1905 ई.), मासिक, स्वदेश बांधव, (1905 ई.), मासिक, स्वदेश बंधु, (1905 ई.), नागरी हितैषिणी पत्रिका, (1905 ई.), मासिक, रसिक रहस्य, जौनपुर(1906 ई.), त्रि-भाषी मासिक पत्र -हिंदी, गुजराती, मराठी- स्वदेशी, (1906 ई.), मासिक, भारत भानु, हरिपुर हरदा (1906 ई.), साप्ताहिक, अभ्युदय, प्रयाग (1907 ई.), साप्ताहिक, हिंदी केसरी, नागपुर (1907 ई.), मासिक, देवनागर, कलकत्ता (1907 ई.), मासिक, नृसिंह, कलकत्ता (1907 ई.), मासिक, भारत भूमि, मुरादाबाद (1907 ई.), मासिक, विद्या भास्कर, झालर पाटन (1907 ई.), मासिक, उपन्यास काशी (1907 ई.), नागरीप्रचारक (1907 ई.), पाक्षिक, सम्राट, कालाकाँकर (1908 ई.), साप्ताहिक, भारतवासी, प्रयाग (1908 ई.), मासिक, कमला, भागलपुर (1908 ई.), पाक्षिक, क्षत्रिय मित्र, बनारस (1908 ई.), पाक्षिक, कर्मयोगी, प्रयाग (1909 ई.), इंदु (1909), मासिक, नवजीवन, काशी (1909), मासिक, शिक्षा प्रकाश, जबलपुर (1909 ई.), मासिक, हिमकारिणी, जबलपुर (1909 ई.), साप्ताहिक, मारवाड़ी, नागपुर (1909 ई.), मासिक, भारतोदय, ज्वालापुर-हरिद्वार (1909 ई.), मासिक, मर्यादा, प्रयाग (1910 ई.), मिथिलामिहिर (1910 ई.), साप्ताहिक, शुभचिंतक, रीवा (1910 ई.), मासिक, जीवन, कानपुर (1911 ई.), मासिक, धम्र्म कुसुमाकर, कानपुर (1911 ई.), मासिक, भास्कर, मेरठ (1911 ई.), मासिक, मनोरंजन, आरा (1912 ई.), मासिक, औदुम्बर, काशी (1912 ई.), सप्ताहिक, प्रताप, कानपुर (1913 ई.), मासिक, प्रभाव, खण्वा (1913 ई.), प्रताप (1913 ई.), मासिक, सम्मेलन पत्रिका, पत्रिका, प्रयाग (1913 ई.), मासिक, नवनीत, काशी (1913 ई.), मासिक, समस्यापूर्ति, पटना (1913 ई.), साप्ताहिक, पाटलिपुत्र, पटना (1914 ई.), मासिक, बाल मनोरंजन, आगरा-मालवा (1914 ई.), मासिक, विद्यार्थी, प्रयाग (1914 ई.), साप्ताहिक, प्रभात, लाहौर (1914 ई.), मासिक, शारदा-विनोद, जबलपुर (1915 ई.), साप्ताहिक, विजय, दिल्ली (1915 ई.), मासिक, ज्ञानशक्ति, गोरखपुर (1915 ई.), साप्ताहिक, युगान्तर, प्रयाग (1915 ई.), मासिक, मनोरमा, मंडी धनौरा (1916 ई.), त्रैमासिक, भारत हितैषी, देहरादून (1916 ई.), दैनिक, विश्वमित्र, कलकत्ता (1917 ई.), मासिक, बालसखा, इलाहाबाद (1917 ई.), मासिक, बालबोध, बनारस (1917 ई.), मासिक, चंद्रप्रभा, सनावद (1917 ई.), मासिक, जननी, कलकत्ता (1917 ई.), मासिक, ब्रह्मचारी, ऋषिकुल, हरिद्वार (1918 ई.), अर्द्धसाप्ताहिक, सर्चलाइट, पटना (1918 ई.), मासिक, स्वार्थ, काशी (1918 ई.), मासिक, कालिन्दी, रामनगर (1918 ई.), मासिक, हिंदी गल्प माला, काशी (1918 ई.), साप्ताहिक, सत्याग्रही, गाँधी जी द्वारा रोलेक्ट एक्ट के विरोध में (1919 ई.), साप्ताहिक, स्वदेश, गोरखपुर (1919 ई.), साप्ताहिक, भविष्य, इलाहाबाद (1919 ई.), दैनिक, विजय, दिल्ली (1919 ई.), आदि।
इन बीस वर्षों में हिंदी के मासिक पत्र एक महान साहित्यिक शक्ति के रूप में सामने आए। शृंखलित उपन्यास कहानी के रूप में कई पत्र प्रकाशित हुए- जैसे उपन्यास 1901ई., हिंदी नाविल 1901ई., उपन्यास लहरी 1902ई., उपन्याससागर 1903ई., उपन्यास कुसुमांजलि 1904ई., उपन्यासबहार 1907ई., उपन्यास प्रचार 1912ई.। केवल कविता अथवा समस्यापूर्ति लेकर अनेक पत्र उन्नीसवीं शतब्दी के अंतिम वर्षों में निकलने लगे थे। वे चले रहे। समालोचना के क्षेत्र में ‘समालोचक’ (1902ई.) और ऐतिहासिक शोध से सम्बंधित ‘इतिहास’ (1905ई.) का प्रकाशन भी महŸवपूर्ण घटनाएँ हैं।
पत्रकारिता का तिलक युग देशभक्त वीरों और साहित्यकारों से संपन्न रहा है। यह युग इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है कि हिंदी साहित्य को इस युग में न सिर्फ उच्चकोटि के साहित्यकार मिले बल्कि उच्चकोटि का साहित्य भी उपलब्ध हुआ है।
संदर्भ
1. कृष्णबिहारी मिश्र, हिंदी पत्रकारिता, भारतीय ज्ञानपीठ, पृ. 289
2. कृष्णबिहारी मिश्र, हिंदी पत्रकारिता, भारतीय ज्ञानपीठ, पृ. 292
3. डाॅ. शंकर बसंत मुदगल, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास, चंद्रलोक प्रकाशन, कानपुर, पृ. 92
4. कृष्णबिहारी मिश्र, हिंदी पत्रकारिता, भारतीय ज्ञानपीठ, पृ. 295
5. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 605
6. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 605
7. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 605
8. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 606
9. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 606
10. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 606
11. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 606
12. कृष्णबिहारी मिश्र, हिंदी पत्रकारिता, भारतीय ज्ञानपीठ, पृ. 293
13. हिंदी पत्रकारिता भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, डाॅ. धीरेन्द्र सिंह, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 62
14. हिंदी पत्रकारिता भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, डाॅ. धीरेन्द्र सिंह, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 63
15. हिंदी पत्रकारिता भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, डाॅ. धीरेन्द्र सिंह, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 63
16. गंगानारायण त्रिपाठी, हिंदी पत्रकारिता एवं गद्यशैली का विकास, शांति प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 46
17. डाॅ. धीरेन्द्रनाथ सिंह, हिंदी पत्रकारिता: भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, विश्वविद्याल प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 65
18. गंगानारायण त्रिपाठी, हिंदी पत्रकारिता एवं गद्यशैली का विकास, शांति प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 47
19. हिंदी की दशा और पत्रकारिता, संपा. धनंजय भट्ट ‘सरल’, दो शब्द से, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, पृ. 14
20. हिंदी की दशा और पत्रकारिता, संपा. धनंजय भट्ट ‘सरल’, दो शब्द से, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, पृ. 14
21. हिंदी की दशा और पत्रकारिता, संपा. धनंजय भट्ट ‘सरल’, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, भूमिका से पृ. 3
22. हिंदी की दशा और पत्रकारिता, संपा. धनंजय भट्ट ‘सरल’, दो शब्द से, हिंदी साहित्य सम्मेलन, भूमिका से पृ. 17
23. डाॅ. धीरेन्द्रनाथ सिंह, हिंदी पत्रकारिता: भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, विश्वविद्याल प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 67
24. डाॅ. धीरेन्द्रनाथ सिंह, हिंदी पत्रकारिता: भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, विश्वविद्याल प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 68
25. डाॅ. धीरेन्द्रनाथ सिंह, हिंदी पत्रकारिता: भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, विश्वविद्याल प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 68
26. डाॅ. धीरेन्द्रनाथ सिंह, हिंदी पत्रकारिता: भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, विश्वविद्याल प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 70
27. डाॅ. धीरेन्द्रनाथ सिंह, हिंदी पत्रकारिता: भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, विश्वविद्याल प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 71
28. डाॅ. धीरेन्द्रनाथ सिंह, हिंदी पत्रकारिता: भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, विश्वविद्याल प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 72
29. डाॅ. धीरेन्द्रनाथ सिंह, हिंदी पत्रकारिता: भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, विश्वविद्याल प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 74
30. डाॅ. धीरेन्द्रनाथ सिंह, हिंदी पत्रकारिता: भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, विश्वविद्याल प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 75
31. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 604
32. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 626