
मृत्यु भोज करने के बजाए अपने प्रियजन की जीते जी बेहतरीन देखभाल करना ,
रहन सहन, खानपान, तथा स्वस्थ्य का पूरा ख्याल रखना ही काफी है – ओजस्वी
चितोडगढ 20 जून
जिस कुप्रथा के कारण जमीन जायदाद बिक जाऐ, कर्ज के भार में पुरा परिवार दब कर रह जाऐ, इस आत्मघाती कुप्रथा के कारण बच्चो को , परिजनो को बॅधुवा मजदूर रहना पड जाऐ, फिर भी यह सभी कुछ जानते हूऐ कि इस प्रथा के कारण जीवन कर्ज में डूबकर जीवन नष्ट हो जाना है। फिर भी इसे सीने से चिपकाऐ रहने से बाज नही आ रहे है।
इससे तो यह बहतरीन होगा कि अपने परिजन के निधन पर मृत्यु भोज ना करके, उनके नाम से समशान बनवाऐ, शमसान में सुविधा बनवाऐ, अपने बेठने के लिए स्थान बनवाऐ, विधालयो में कोई भी कमी हो तो उसे पुरा कराऐ। लेट बाथ बनवाऐ, पानी की टिकिया लगवाऐ।
पुस्तकालय खुलवा दें। कोई कमरे बनवाकर उसमें पढाने की अतिरिक्त क्लास लगवाऐ। हास्पीटल में कमरा बनवाकर दें। समाज हित में जन कल्याणकारी काम में सहयोग कर सकते है। जो चिर स्थाई होता दिखाई भी दे।
मरने वाले के घर पर सांत्वना देने जाना ही ठीक है, जीमण खाने जाना तो बहूत गलत है।
अपने किसी परिजन के निधन पर दाह संस्कार में सामिल होना ही अंतिम कार्य समझा जाऐ।
जीते जी तो आपने कुछ भी समझा नही, मरने के बाद आप घी धूप करो तो इससे क्या फायदा ?
ओजस्वी यह भी लिखकर जागरुक करते है कि आसमान को देखा, उसकी ओर बढे ओर चंद्रमा तक जाकर आ भी गये। मगर स्वर्ग को किसने देखा कि मरने के बाद स्वर्ग मिलता है, मृत्यु भोज ना करने से स्वर्ग नही मिलता। आज तक कौन गया है स्वर्ग को, जिसने आकर बताया हो कि में स्वर्ग में जाकर आया हू। जीते जी स्वर्ग गया नही।
मरने के बाद आकर आज तक किसी ने बताया नही कि स्वर्ग होता भी? मृत्यु भोज नही करने से किसी की आत्मा भटकती हो तो उस आत्मा को बताऐ कि
वह इस लेखक से बात करें। यह सरासर गलत है कि मृत्यु भोज नही करने से किसी की आत्मा को स्वर्ग नही मिलता वरन स्वर्ग नर्क जेसा कुछ भी नही है। किसी के निधन, मृत्यु होने पर भी जीमण करके उत्सव मनाना कहां की मानवता है? पिता की सम्पति अपने पुत्र पुत्रियो की ही होती है,पगडी बॅधने , नही बंधने से कुछ फर्क नही पडता।
मृत्यु होने के बाद, अपने को कर्ज में डूबोकर जीमण करवाकर खाना ओर इसके करने से जमीन मकान तक बिक जाना , जीवन को बरबाद कर दे तो ऐसा सामाजिक रिवाज को निभाने से फायदा क्या है?
बात की जाती है कि समाज में शिक्षा की कमी के कारण ऐसा किया जाता हे,देखने में तो यह आता हे कि
पढे लिखे लोग तो ओर भी बढ चढकर इस प्रथा को बहूआयामी रूप देकर वाह वाही लुटने में लग कर ओर भी अधिक खर्च करते देखे जा रहे है।
ज्ञात हो कि इस संदर्भ के लेखक मदन सालवी ओजस्वी ओर इनका परिवार वर्षो से किसी मृत्यु भोज में ना तो जाते हे ओर नही ही ऐसा कुछ करते है, वरन वर्षो से मृत्यु भोज की रोकथाम के लिए अभी तक अनेको पहल भी कर चुके है किन्तु इस कुप्रथा की जडें आदतन इतनी गहरी है कि इसे उखाड फेकने के लिए ओर अधिक हर तरफ से वास्तविक समाज सुधारकों की जरूरत है। हम से पहले भी महापुरूष कहलाने वाले अनेक लोगों ने भी भरसक इस कुप्रथा के खात्मे के लिए प्रयास किये, मगर पुरी तरह से सफलता फिर भी ना मिली। सती प्रथा की तरह इस प्रथा का भी अंत बहूत ही आवश्यक है।
मदन सालवी ओजस्वी
सामाजिक सुधारवादी लेखक
चितोडगढ राजस्थान
20-6-2023
95888-32673
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