- डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा
इधर कुछ समय से कई अत्यंत संवेदनशील विषयों के संदर्भ में अपनी विवादास्पद भूमिका के कारण मीडिया (मुद्रित और इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता) प्रश्नों के घेरे में है। इस मुद्दे पर बहस छिड़ी हुई है कि मीडिया को अधिक संवेदनशील, अधिक प्रामाणिक, अधिक विश्वसनीय और अधिक मानवीय बनना चाहिए। जबकि वह दिनोंदिन अधिक बाजारोन्मुख और अधिक अमानुषिक होता जा रहा है। इस संदर्भ में चर्चा करते समय यह ध्यान में रखना चाहिए कि वस्तुतः मीडिया से यह अपेक्षा होती है कि वह जनतांत्रिक व्यवस्था का निष्पक्ष साधन बने। यदि वह ऐसा नहीं कर पा रहा है और बाजार की शक्तियों के हाथों में खेल रहा है तो यह चिंताजनक बात है – स्वयं मीडिया के लिए भी और लोकतंत्र के लिए भी।
सूचना संप्रेषण की विकास यात्रा में इंटरनेट के आविष्कार ने एक नया ही मोड उपस्थित कर दिया है। इस अद्यतन जनसंचार माध्यम से हम घर बैठे बैठे अपने कंप्यूटर पर संदेश टाइप करके कुछ ही क्षणों में उसे विश्व के कोने में विद्यमान जन समूह तक पहुँचा सकते हैं। फेसबुक, ब्लॉग, ट्विटर, वाट्सअप आदि इंटरनेट की ही देन हैं जिनके माध्यम से सूचनाओं का आदान-प्रदान अपूर्व त्वरित गति से हो रहा है। विश्व भर में सोशल मीडिया सूचनाएँ संप्रेषित करने का मुख्य माध्यम बन चुका है। 2014 के लोकसभा चुनाव ने भी इस माध्यम की भारत जैसे महादेश में उपादेयता को भलीभाँति प्रमाणित कर दिया है।
विभिन्न वेबसाइटस, ऑडियो-वीडियो कोंफ्रेंस, चैट रूम्स, ईमेल, ऑनलाइन समूह, वेब विज्ञापन, वर्चुअल रियलीटी एन्विरोंमेंट्स, इंटरनेट टेलीफोनी, डिजिटल कैमरास और मोबाइल कंप्यूटिंग आदि इस नए सोशल मीडिया के अंतर्गत सम्मिलित हैं। अद्यतन न्यू मीडिया पारंपरिक मीडिया की तरह संगठित नहीं है। फिर भी इसकी एक विशेषता यह है कि इसका हर उपयोगकर्ता स्वयं पत्रकार है, स्वयं संपादक है, स्वयं प्रकाशक भी है। इससे इंटरनेट पर भारी मात्रा में कचरा लेखन और अराजकता की बाढ़ अवश्य आ गई है जिससे इस माध्यम की प्रामाणिकता और गंभीरता बाधित होती है। इसके बावजूद इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि इसमें दी गई सूचना सिर्फ एक क्लिक में ही पूरे विश्व में पहुँच जाती है। प्रकारंतर से, नव मीडिया ने संचार का लोकतंत्र संभव करके दिखा दिया है।
लेकिन इसका दूसरा पहलू भी विचारणीय है। वास्तव में मीडिया का काम है जनता और सरकार दोनों के सामने सच की तस्वीर पेश करना। मीडिया की आचार संहिताओं में यह कहा गया है कि उसे निष्पक्ष व निर्भीक तरीके से कार्य करना चाहिए न कि निर्णायक तरीके से। लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में मीडिया निर्णायक की भूमिका में नजर आ रहा है। कभी-कभी हम यह भी देखते हैं कि टीवी और सोशल साइटों पर तथ्यों को इस तरह पेश किया जाता है जैसे कि मीडिया, मीडिया न होकर कोई अदालत हो। ओपीनियन लीडर और इमेज बिल्डर के रूप में अद्यतन संचार माध्यमों का दुष्प्रयोग भी किसी से छिपा नहीं है।
आजादी से पहले की भारतीय पत्रकारिता पर नजर डालने से यह स्पष्ट होता है कि उस समय पत्रकारों और संपादकों के समक्ष एक सुनिश्चित उद्देश्य था – राष्ट्रीयता की प्रबल भावना, अंग्रेजी शासन एवं शोषण के विरुद्ध संघर्ष तथा स्वातंत्र्य भावना। इस संदर्भ में तेलंगाना और आंध्र की पत्रकारिता के इतिहास में झाँककर देखें तो स्पष्ट होता है कि यहाँ के पत्रकारों ने भी अंग्रेजी शासन के साथ-साथ निरंकुश निजाम शासन के विरुद्ध संघर्ष के लिए जनता को चेताया। आंध्र और तेलंगाना के प्रमुख पत्रकारों में वीरेसलिंगम पंतुलु, कोंडा वेंकटप्पय्या, काशीनाथुनी नागेश्वर राव पंतुलु, नार्ल वेंकटेश्वर राव, खासा सुब्बाराव, विश्वनाथ सत्यनारायण आदि तेलुगु पत्राकरिता जगत के प्रमुख स्तंभ हैं। ये सभी प्रमुख रूप से देश की स्वतंत्रता, समाज सुधार की भावना और सामाजिक न्याय के लिए कटिबद्ध थे।
आंध्र प्रदेश राज्य निर्माण, हैदराबाद मुक्ति संग्राम, किसान आंदोलन, तेलंगाना आंदोलन आदि जनांदोलनों में पत्रकारिता की भूमिका निर्विवाद है। आजादी से पहले के पत्रकार और संपादक समाचार पत्रों को स्थापित करने तथा सुचारु रूप से चलाने हेतु प्रोनोट लिखकर पैसे लाते थे और समाचार पत्र चलाते थे। देश हित ही उन लोगों का प्रमुख उद्देश्य था। तब के पत्रकारों को जेल की यात्रा भी करनी पड़ी। लेकिन आज स्थितियाँ काफी बदल चुकी हैं। एक वह समय था जब पत्रकार सत्य से जनता को अवगत कराने के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समाचार पत्र चलाने हेतु अपना तन-मन-धन गिरवी रखते थे लेकिन आज हम यहाँ तक भी देख रहे हैं कि पत्रकार किसी न किसी राजनेता या राजनैतिक दल के चंगुल में फँसे हुए हैं। कहने का आशय है कि आज मीडिया और राजनीति का गठबंधन है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता। आज पैसा ही सब कुछ है। पूँजी जिसके पास है उसी के पास सत्ता है, और उसी के प्रति पत्रकार भी प्रतिबद्ध है। लेकिन इसके लिए केवल पत्रकारों या संपादकों को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि वे ऐसी परिस्थितियों में जी रहे हैं जिनका सामना करना हो तो उन्हें अपना ईमान गिरवी रखना ही पड़ता है। आंध्र और तेलंगाना के आंचलिक पत्रकारों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। एक ओर आर्थिक और सामाजिक समस्याएँ उनके सामने हैं तो दूसरी ओर राजनैतिक समस्याएँ। संवाददाताओं को वेतन नहीं दिया जा रहा है। अतः रोजीरोटी के जुगाड़ में मजबूर होकर वे भ्रष्टाचार का रास्ता अपना रहे हैं। ‘कलम’ को सत्ता और पैसों के आगे गिरवी रख रहे हैं। यह विडंबना की स्थिति नहीं है तो और क्या है?
आज हर क्षेत्र में बाजारवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से नजर आ रहा है। इस बढ़ते बाजारवाद के प्रभाव से मीडिया भी नहीं बच पाया है। इसमें संदेह नहीं कि भूमंडलीकरण ने बाजारवाद को मीडिया के पंखों पर ही बिठाकर दुनिया की सैर कराई है। आज मीडिया मिशन नहीं, व्यवसाय है। व्यावसायिक होते ही मीडिया ने खबरों को माल की तरह बेचना प्रारंभ कर दिया। यहाँ तक कहा जा सकता है कि मीडिया और बाजार ने तो महानायकों की परिभाषा भी बदल दी। वे रातों रात किसी को भी महानायक बना सकते हैं। पहले तो मीडिया मूल्यों और सरोकारों की बात करता था लेकिन अब वह प्रोफिट/ लाभ व पैसा कमाने की होड़ में शामिल हो गया है। पेड न्यूज ने तो और भी भ्रामक स्थिति पैदा कर दी है। इसके अलावा लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ में कोर्पोरेट का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है जो आने वाले समय में बेहद खतरनाक साबित हो सकता है। दरअसल राजनैतिक और आर्थिक शक्तियाँ यह भली प्रकार जानती हैं कि जनसंचार माध्यम यदि जनता के हाथ में रहेंगे तो एक न एक दिन उनका प्रयोग जनता के अधिकारों की लड़ाई के लिए किया जाएगा। इसलिए ये शक्तियाँ ऐसा होने से पहले ही जनसंचार पर पूरी तरह हावी हो जाना चाहती हैं। सत्ता और पैसा जिनके पास है, वे मीडिया को अपने लिए इस्तेमाल करते हैं, कर रहे हैं – इसे लोकतंत्र के लिए श्रेयस्कर नहीं माना जा सकता।
आज भले ही मीडिया का इतना विस्तार हो गया हो लेकिन इसका प्रारंभिक व पारंपरिक रूप मुनादी करने और नाटक खेलने का था। इसकी व्यापक संबोध्यता को देखते हुए ‘नाट्यशास्त्र’ में भरतमुनि ने जहाँ इसकी भाषा के मृदु, ललित, गूढ़ शब्दार्थ से हीन और जनपद सुखबोध्य होने की बात कही थी वहीं यह भी निर्देश दिया था कि जो चीज लोक रुचि एवं लोक मर्यादा के विरुद्ध हो उसका सार्वजनिक प्रस्तुतीकरण नहीं करना चाहिए। यह बात मीडिया पर भी उतनी ही लागू है जितनी नाटक या ललित कलाओं पर, क्योंकि दोनों ही जनसंचार के माध्यम है। लेकिन आज मीडिया की रुचि किस में है! संचार मूल्य वहाँ है जहाँ कुछ गोपनीय है, सनसनीपूर्ण है; उत्तेजना, आक्रामकता और हिंसा आज बाजार और मीडिया दोनों के ही बीज शब्द बन गए हैं। इसीलिए विशेषज्ञों का कहना है कि मीडिया में अपराध, उसमें भी विशेष रूप से बलात्कार, का कवरेज प्रथम श्रेणी पर है।
विज्ञापन और फिल्मों को ही देख लीजिए। ये रुचि का परिष्कार करने के बजाय रुचि में विकृति पैदा करने वाले होते जा रहे हैं। उदाहरण के लिए साहित्यिक कृतियों के रूपांतरण को ही लें। टीवी धारावाहिक या फिर कमर्शियल फिल्म के रूप में किसी साहित्यिक कृति का रूपांतरण करते समय इतना ज्यादा उत्तेजक मसाला भर दिया जाता है कि कृति का मूल उद्देश्य मिट जाता है।
समाचार पत्र हो या इलेक्ट्रोनिक मीडिया या फ़िल्मी जगत, कोई भी स्वतंत्र नहीं हैं। करोड़ों का लेन-देन होता है। जिस तरह से ‘फिल्म इंडस्ट्री’ कहा जाता है उसी तरह आज मीडिया भी ‘इंडस्ट्री’ बन चुका है। समाचार पत्र को भी ‘पेपर इंडस्ट्री’ कहा जा रहा है। अर्थात यह भी व्यवसाय बन चुका है। यह किसी से छिपा नहीं है कि वर्तमान परिस्थितियों में प्रिंट मीडिया तथा इलेक्ट्रोनिक मीडिया दोनों राजनैतिक पार्टियों के अधीन हैं। आज मीडिया स्वतंत्र नहीं है। मीडिया की आचार संहिता में भी बदलाव नजर आ रहा है। राजनेता अपनी पार्टी के प्रचार-प्रसार हेतु निजी टीवी चैनल्स चला रहे हैं। आंध्र और तेलंगाना की बात करें तो वाई एस राजशेखर रेड्डी ने अपनी पार्टी के प्रचार-प्रसार के लिए ही ‘साक्षी’ समाचार पत्र और ‘साक्षी’ टीवी चैनल की स्थापना की थी। इसी प्रकार तमिलनाडु में ‘कलैन्यर’ टीवी डीएमके का पक्षधर है। कहना न होगा कि इन समाचार पत्रों और चैनलों में वास्तविक स्थितियों पर पर्दा डालकर उन्हें अपने मालिक के राजनैतिक हित की दृष्टि से वक्र रीति से दिखाया जाता है। मीडिया को जनहित के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए लेकिन आज वह हत्याकांड, चोरी, धोखाधड़ी आदि को जरूरत से ज्यादा हाइलाइट करके दिखा कर जनता को गुमराह भी कर रहा है। यह भी देखा जा सकता है कि इस क्षेत्र में ‘क्षमता’ या टैलेंट की कोई कदर नहीं बस प्रशासन का इष्ट पात्र होना भर काफी है।
आज मीडिया लोकतंत्र के बारे में जनता को शिक्षित करने में भी असफल है। जो चीज सामाजिक रूप से वर्जित है उसे मीडिया खुलेआम दिखा रहा है। सेक्स और वायलेंस जरूरत से ज्यादा भरा हुआ है। जनता को शिक्षित करना तो दूर उसे भड़काने का काम कर रहा है। यदि यह भी कहा जाय कि मीडिया जातिभेद को भडकाने का भी काम कर रहा है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
आज यह भी किसी से छिपा नहीं है कि विश्वविद्यालयों में भी भ्रष्ट राजनीति पनप चुकी है। वे भी गुंडागर्दी के अड्डे बनते जा रहे हैं। कुलपति सत्ता पार्टी के द्वारा संचालित हो रहे हैं। विद्यार्थियों को मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा है। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय का उदाहरण सबके सामने है। रोहित वेमुला की आत्महत्या के मामले में राजनैतिक हस्तक्षेप के कारण जो भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई, मीडिया ने उसके संबंध में सही तथ्यों को पड़ताल करके सामने लाने की जिम्मेदारी नहीं निभाई, बल्कि टीआरपी बटोरने के लिए अपुष्ट तथ्यों को ही परोसकर एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर दी कि समाज के विभिन्न समूहों के बीच आरोप, प्रत्यारोप और घृणा को उकसावा मिला। ऐसे सनसनीखेज मामलों में संयम बरतना सीखना मीडिया के लिए अभी भी बाकी है। इससे पहले भी विगत वर्षों में तिरुपति के श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय, तमिलनाडु के पच्चैयप्पा कॉलेज, हैदरबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय आदि अनके विश्वविद्यालयों में इस तरह की स्थितियाँ सामने आ चुकी हैं। उस समय भी जनता एवं विद्यार्थियों को भड़काने का काम किया है मीडिया ने।
यह भी नहीं कहा जा सकता है कि निष्पक्ष भाव से काम करने वाले पत्रकार हैं ही नहीं। लेकिन ऐसे लोगों को उंगलीयों पर गिना जा सकता है। वस्तुतः आज फिर एक ऐसे आंदोलन या स्वतंत्रता आंदोलन की जरूरत है ताकि मीडिया अपने खोए हुए सम्मान और स्वतंत्रता को प्राप्त कर सके।
अंत में मुझे यह और कहना जरूरी लग रहा है कि अद्यतन मीडिया ने भाषा के रूप को भी बदल डाला है। आए दिन तरह-तरह के भाषा रूप उभर रहे हैं। विज्ञापनों की नई शब्दावली (नो उल्लू बनाविंग) गढ़ने से लेकर लोक प्रतीकों और लोक मिथकों तक का नए ढंग से प्रयोग मीडिया कर रहा है। इससे हिंदी भाषा एक नया अक्षेत्रीय रूप उभर रहा है। इस तरह के प्रयोगों से मीडिया की भाषा में कोड मिश्रण व परिवर्तन की प्रवृत्ति बढ़ चुकी है। इसे एक प्रकार से हिंदी की सार्वदेशिक स्वीकार्यता की दृष्टि से अच्छा ही कहा जा सकता है। लेकिन संदर्भ और स्थिति पर आधारित इस प्रकार के भाषा मिश्रण की भी कुछ सीमाएँ होती हैं। परंतु मीडिया ऐसी सब सीमाओं का अतिक्रमण ‘बाजार की भाषा’ अपना ली है।
हम सब जानते हैं कि मीडिया का मूलभूत लक्ष्य सूचना, मनोरंजन और जनशिक्षा है। इन तीनों के बाद ही मुनाफ़ा कमाने का स्थान आता है। लेकिन विडंबना यह है कि आज मुनाफ़ा प्रथम स्थान पर है। यह अन्य लक्ष्यों पर हावी हो रहा है। यह भी कहा जा सकता है कि एक-दूसरे के साथ व्यावसायिक प्रतियोगिता की होड़ में मीडिया की अनुशासनहीनता और संवेदनहीनता बढ़ रही है तथा पत्रकारिता के मानदंड कहीं पीछे छूटते जा रहे हैं। कहना होगा कि जहाँ एक तरफ अद्यतन मीडिया ने सूचना के लोकतंत्र को संभव बनाया है वहीं यह भी देखने में आ रहा है कि यह मीडिया जब पूँजीपति या सत्ता के हाथ में चला जाता है तो वह लोकतंत्र का वाहक न रहकर मुनाफे का माध्यम अर्थात बाजार का दास बन जाता है।
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डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा/ एसोसिएट प्रोफेसर/ उच्च शिक्षा और शोध संस्थान/ दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा-मद्रास/ टी. नगर/ चेन्नै – 600017
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