निधि ‘मानसिंह’ की दो लघुकथा

1

( इन्सानियत )

रघु, जितना हो सके उतनी तेज रिक्शा चला रहा था। अचानक दूर से एक व्यक्ति हाथ हिला कर उसकी ओर रिक्शा
रोकने का इशारा करता हुआ दौडा चला आ रहा था। रघु ने रिक्शा रोकी तो वो आदमी बोला – उसे लाल बत्ती के पास
वाले अस्पताल में जाना है। रघु ने मना करते हुए कहा कि वो उस ओर नही जा रहा है। लेकिन, उस व्यक्ति की पत्नी
दर्द से कराह रहीं थी उसे लेबर पेन लगे थे। रघु के मना करने के बाद भी वो दोनों पति-पत्नी रिक्शा में बैठ गये। उस
औरत की हालत देखकर रघु ने रिक्शा लाल बत्ती की ओर घुमा लिया।
अस्पताल पहुंचकर उस व्यक्ति ने रघु से कहा – मै अपना सामान रिक्शा में से बाद में ले जाऊंगा, पहले मै
अपनी पत्नी को एडमिट करा दूं। रघु, साहब – साहब, सुनिये – सुनिये कहता रह गया। बार – बार रघु के फोन पर फोन
आ रहे थे। उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करें? रघु बड़ी बैचेनी से उस व्यक्ति का इंतजार कर रहा था।
15 मिनट के बाद रघु को वह व्यक्ति आता दिखाई दिया। रघु ने कहा – साहब अपना सामान लीजिए और मेरा किराया
मुझे दे दीजिए, मै बहुत जल्दी में हूँ। उस व्यक्ति ने मिठाई का डिब्बा उसकी ओर करते हुए कहा – मै एक प्यारी सी
बेटी का पिता बन गया।
अगर, तुम ठीक समय पर मेरी पत्नी को अस्पताल नहीं पहुंचाते तो मेरी पत्नी और बेटी नही बचती। अब तुम
बताओं ऐसी क्या बात है जो तुम इतनी जल्दी में हो? उस व्यक्ति ने रघु से पूछा। रघु ने बताया कि उसकी पत्नी का
एक्सीडेंट हो गया है और वह अस्पताल में एडमिट है। उसे खून की बहुत जरूरत है। इसलिए मै, खून के इंतजाम के
लिए भाग दौड़ कर रहा हूं। उस व्यक्ति ने अच्छी तरह पैक की हुई एक शीशी उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा – ये लो "खून
की शीशी" डाक्टर ने मेरी पत्नी के लिए मंगाई थी। लेकिन, इसकी जरूरत नहीं पडी। मै इसे ब्लड बैंक मे वापिस देने
जा रहा था। अब इसे तुम ले लो तुम्हें इसकी बहुत जरूरत है। रघु की आंखों में खुशी के आंसू आ गये। रघु ने हाथ
जोड़कर उस व्यक्ति का धन्यवाद किया। लेकिन, उस व्यक्ति ने कहा – धन्यवाद की कोई आवश्यकता नहीं तुमनें
हमारी मदद करके अपनी इन्सानियत दिखाई लेकिन, ‘अब मेरी बारी थी ‘

 

2

( दो किश्त )

6महीने से घनश्याम अपनी बीमारी से जूझ रहा था। लेकिन, अब उसकी हिम्मत जवाब दे गई और उसने चारपाई
पकड़ ली। गांव के डाक्टर, हकीम, वैद्यों सब ने हाथ खड़े कर दिए। और शहर जाने की सलाह दी। घनश्याम के पास
5बीघा जमीन थी जो उसने दो किश्तों मे, ढाई-ढाई बीघा करके लाखों दुख उठाने के बाद खरीदी थी। लेकिन, बेटी की
शादी करने के लिए उसे ढाई बीघा जमीन बेचनी पडी। अब उसके पास जो ढाई बीघा जमीन बची थी वो, उसमें ही
अपना गुजर – बसर करता था। घनश्याम की यही आखिरी इच्छा थी कि मरने से पहले रतन का ब्याह करके उसकी
जमीन उसे सौंपकर आंखें बंद कर ले।
घनश्याम का बेटा रतन शहर की एक फैक्ट्री में काम करता था रहने के लिए उसके पास दो तीन चारपाई की
कोठडी थी। रतन की मां ने, रतन को पिता की बीमारी का तार लिख भिजवाया। रतन तार मिलते ही अगली गाड़ी से
आकर पिता और मां को लेकर शहर आ गया। कई दिनों की मुश्किलों के बाद रतन ने अपने पिता को शहर के बड़े
अस्पताल में भर्ती करवा दिया। अस्पताल में ना दवाईयों का इंतजाम ना खाने का और ना रहने का। डाक्टर आते और
दवाइयों का पर्चा रतन के हाथ में थमा जाते। आठ दिनों में ही रतन की सारी जमा पूंजी खत्म हो गई और उसके पिता
की हालत ठीक होने की जगह और बिगड़ती जा रही थी। रतन को कुछ भी नहीं सूझ रहा था। ऊपर से उसकी मां का रो-
रोकर बुरा हाल था। रतन का एक दोस्त उससे मिलने अस्पताल में आया। तो, उसने उसे शहर के एक बड़े डाक्टर के व
उसके अस्पताल के बारे में बताया। रतन तनिक भी देर ना करते हुए अपने पिता को वहां ले गया। बड़े अस्पताल के
डाक्टर ने रतन से कहा कि तुम्हारे पिता का ओपरेशन करना पडेगा। और बहुत बड़ा खर्चा होगा। रतन के पास अब
कोई पूंजी नही थी सिवाय उस ढाई बीघा जमीन के। उसने अपने पिता का जीवन बचाने के लिए वो बची हुई ढाई बीघा
जमीन भी बेच दी। डाक्टर ने घनश्याम का ओपरेशन किया और उसको बचा लिया। घनश्याम ने रतन से पूछा – मेरे
ओपरेशन के लिए इतना रुपया कहाँ से लाये? तब रतन ने पिता से ढाई बीघा जमीन बेचने की बात कही। जमीन
बिकने का सदमा घनश्याम बर्दाश्त नहीं कर पाया और चल बसा। रतन दोनों हाथों से सिर पकडकर एकदम खामोश
दीवार से सटकर बैठ गया। उसकी मां जोर – जोर से छाती पीटकर रो रही थी रतन की आंखों में आंसू थे और वो यही
सोच रहा था कि पिता जी ने अपने जीते जी 5बीघा जमीन दो किश्तों मे खरीदी थी और उनके मरने से पहले ही ये
जमीन दो किश्तों में बिक गई।
निधि ‘मानसिंह’
कैथल हरियाणा
nidhisinghiitr@gmail.com

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