भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से प्रकाशित सुप्रसिद्ध लेखिका प्रगति गुप्ता का कहानी संग्रह ‘स्टेपल्ड पर्चियाँ’ जैसे बेशुमार अनुभवों का खजाना है। प्रत्येक व्यक्ति का जीवन अनेकानेक अनुभवों से गुजरता है। हर अनुभव एक कहानी बनकर उसकी स्मृतियों में स्टेपल होती रहती है और ऐसी कई कहानियाँ परत दर परत स्टेपल होकर कई गड्डियाँ बन जातीं हैं। ऐसे ही भिन्न-भिन्न अनुभवों की कहानियाँ एक माला में पिरो कर लाई हैं प्रगति जी अपने ग्यारह कहानियों के कहानी संग्रह, “स्टेपल्ड पर्चियाँ” में।
संग्रह की प्रत्येक कहानी अलग कलेवर के साथ नया तेवर लिए भिन्न अनुभव की बात करती है
स्त्री घर की धुरी होती है। परिवार के सभी सदस्यों की जिंदगी, दिनचर्या उसके चारों तरफ घूमती है। स्त्री मात्र परिवार के बारे में सोचते हुए ही अच्छी लगती है। अपने बारे में सोचते ही वह स्वार्थी लगने लगती है। ऐसी स्त्री न पति को अच्छी लगती है और न बच्चों को।
प्रगति जी ने अपनी कहानी, ‘गुम होते क्रेडिट-कार्ड्स’ में इसी समस्या को उठाया है। पति-पत्नी दोनों डॉक्टर हैं। पति की डॉक्टरी एकदम से सही जम नहीं पाती है लेकिन महिला चिकित्सक पत्नी अपने प्रोफेशन में एकदम सफल हो जाती है। घर में पैसे की जरूरत है। पति उसे अधिक से अधिक घंटे काम करने के लिए उकसाता है। धीरे-धीरे पति भी खूब सफल हो जाता है। घर में सास-ससुर हैं। दो बड़े होते बेटे हैं। ताने-उलाहनों के बीच पत्नी किसी तरह अपना काम कर रही है। लेकिन ससुर जी के लकवाग्रस्त होने पर पति एक दिन जिन शब्दों में पत्नी से नौकरी छोड़ने की पेशकश करता है उससे मजबूर होकर पत्नी अपनी पंद्रह सालों की मेहनत दर किनार कर घर संभालने लगती है। यह योग्य पत्नी का एक तरह का भावनात्मक, आर्थिक व शारीरिक शोषण था। जब जहाँ जरूरत महसूस हुई, उस तरह से एक पत्नी व माँ व बहू का इस्तेमाल कर लिया। समय बीतता है। सास-ससुर दुनिया से चले जाते हैं और बच्चे घर से। पति-पत्नी को दोबारा नौकरी ज्वाइन करने की सलाह देता है, लेकिन अब वह अपना आत्मविश्वास खो चुकी है। अस्पताल की जो चीज़ें उसे उत्साह से भरती थीं अब डराने लगती हैं। इसी बीच एक दिन पति भी अचानक हार्ट अटैक से चले जाते हैं और पत्नी ने जिन रिश्तों के लिए अपने फिज़िकल व इमोशनल अकाउंट खाली कर दिए थे, वे सभी उसे सब तरफ से खाली कर जाते हैं। एक जाने-पहचाने विषय पर प्रगति जी की अलग अंदाज में लिखी गई यह कहानी दिल में उतरती है और पाठकको नायिका की मजबूरी के साथ बिना किसी तर्क के खड़ा कर देती है।
मनोभावों को शब्दों में परोसने में प्रगति जी पूरी तरह से सक्षम हैं, इसका सशक्त परिचय मिलता है शीर्षक कहानी, ‘स्टेपल्ड पर्चियाँ’ में। कहानी की नायिका विभा नौकरी व घर संभालने वाली एक आम भारतीय स्त्री है। जिसे जिंदगी, समय या उसके आसपास के लोग अनुभवों की पर्चियाँ पकड़ाते रहते हैं जो स्मृतियों की तहों में कभी अलमारी के कोनों पर कभी साड़ी की तहों पर स्टेपल्ड हुई पड़ी रहतीं हैं। स्टेप्लर भी तो आखिर मशीन है उसकी सीमाएं तय हैं,वह खामोशी से एक सीमा के बाद स्टेपल करने के लिए न बोल देता है लेकिन विभा मशीन नहीं है। उसके पास तो शब्द हैं इसलिए उसकी ओढ़ी हुई खामोशी उसे मुकरने का मौका नहीं देती और शायद यही इंसानी हकीकत है। विभा स्टेपल्ड पर्चियों की हर बार नई गड्डियाँ बनाकर रख देती है।
पति-पत्नी के रिश्तों की गहराई से पड़ताल करती कहानी। अधिकतर दंपत्ति विशेषकर स्त्री, रिश्तों को समाज परिवार व बच्चों की खातिर खामोशी से निभाते चलते हैं। विभा के पति का आवश्यकता से अधिक खामोश व निर्लिप्त स्वभाव विभा के व्यक्तित्व को दो भागों में बाँट देता है। अंदर की विभा जो अपने लेखन में मुखरित होती है और बाहर की विभा जो खामोशी से अपने दर्द को स्टेपल्ड पर्चियों में लिख कर अपने कर्तव्य पूरे करतीं रहती है।लेकिन उसकी आँखों से, कुछ न बोल कर भी अरविंद उसका एकाकीपन चुरा ले जाता था। जहाँ बिना शब्दों के भी संवाद थे क्योंकि अरविंद उस बाहरी विभा के अंदर छिपी विभा को जानने-पहचानने में लगा था जो उसकी अपनी रचनाओं में बह रही थी।
बहुत ही खूबसूरत शब्द-शैली में लिखी कहानी। जो वास्तव में अपने शीर्षक “स्टेपल्ड पर्चियाँ” को चरितार्थ करती है।
“माँ मैं जान गई” संग्रह की अखिरी व एक सशक्त कहानी। तेरह-चौदह साल की छोटी बच्ची। माँ पियक्कड़ पति को झेलने के लिए मजबूर। आखिर बेटी को लेकर किसी और पर भरोसा कर भी तो नहीं सकती। माँ काम पर जाती तो बेटी को समझा जाती,’मुन्नी तू घर के अंदर ही रहना बेटा, बाहर बहुत जानवर हैं जो देह सूंघते हैं।’भाई बाहर खेलने जाते तो मुन्नी भी इस बात को अक्सर भूल जाती। उसे माँ के न करने का कारण समझ में नहीं आता। लेकिन एक दिन किसी ने उसकी देह को सूंघा, घर से बाहर नहीं ,बल्कि घर के अंदर ही और वो भी बेहद अपने ने। सोचती है कैसे बताए माँ को। अगर बता दिया तो जीते जी मर जाएगी क्योंकि माँ ने सारे सौदे उसके लिए ही तो किए हैं।
नन्हीं बच्चियों के साथ व्यभिचार की घटनाओं को अंजाम देने वाले अक्सर बेहद करीबी लोग होते हैं और नासमझ नाबालिग बच्ची किसी को बोल भी नहीं पाती है। स्त्री-पुरुष संबंधों की क्रूरता को स्पष्टता से दर्शाती कहानी। जहाँ स्त्री, पुरुष के साथ अलग-अलग रिश्तों को जीती है वहीं कुत्सित मानसिकता वाले पुरुषों के लिए स्त्री मात्र एक देह भर है।
“अदृश्य आवाजों का विसर्जन” संग्रह की पहली कहानी है, जो बिल्कुल अलग ही ट्रीटमेंट दे कर लिखी गई है। भ्रूण हत्याओं पर कन्या के जन्म को लेकर दोयम दर्जे की भावना रखने वाले समाज व परिवार पर बहुत सी कहानियाँ पढ़ी हैं पर प्रगति जी प्रस्तुत कहानी में यही बात जिस अंदाज में कहतीं हैं वह एकदम निराला है। पहली बार ही ऐसी कहानी पढ़ने में आई है।
समुद्र के किनारे एक चट्टान पर अपने सूक्ष्म रूप में शरीर से निष्कासन के बाद आवाजें आदमजात समाज के शरीर में अपनी अल्प यात्रा के अनुभव बयां कर रहीं है। समुद्र साक्षी बन सुन रहा है। वे सब आत्माएं कन्याओं की हैं जो या तो माँ की कोख में ही मार दी गई या जन्म के बाद। जिन्होंने अल्प समय में ही वीभत्स यातनाएं सही हैं। आखिर में सभी आत्माएं अपनी पीड़ा सुना कर समुद्र में विसर्जित हो जातीं हैं। बहुत ही अद्भुत व रोचक अंदाज में लिखी मार्मिक कहानी है।
कहानी, “तमाचा” भी संग्रह की एक बहुत ही सशक्त कहानी है और इसका कथानक वर्तमान पीढ़ी की जीवन-शैली पर एक जबरदस्त तमाचा है। कहा जाता रहा है कि जब हम एक लड़के को शिक्षित करते हैं तो सिर्फ़ एक व्यक्ति शिक्षित होता है लेकिन यदि एक लड़की को शिक्षित करते हैं तो एक पूरा परिवार शिक्षित होता है। लेकिन कुछ प्रतिशत मगरुर लड़कियों ने इस वक्तव्य को झुठला दिया। उन्हें आजादी और शिक्षा का वास्तविक मतलब समझ नहीं आता। नई पीढ़ी के लड़कों में अच्छे बदलाव दिखाई देते हैं लेकिन कुछ लड़कियां त्याग व समर्पण का मतलब नहीं समझती तब उनका हश्र कहानी की नायिका भूमि जैसा ही होता है। इसलिए लड़की हो या लड़का दोनों के लिए यह आवश्यक है कि वे अपने अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों को भी याद रखें।
दिल दिमाग को झिंझोड़ती कहानी, “काश” सरल सहज शब्दों में बहुत कुछ कह जाती है। स्त्री किसी भी उम्र में छली जा सकती है क्योंकि उसके मन की कोमलता और मनचाहे पुरुष से मन की चाहत पाने की तृष्णा उसके हृदय में हमेशा रहती है। लेकिन पुरुष के लिए वह एक सिर्फ साधन भर है। चाहे जिंदगी बिताने की बात हो या कुछ पलों का सुकून हो। बहुत खूबसूरत कहानी, जो पाठकों तक अपनी बात पहुँचाने में पूरी तरह सफल रही है।
कहानी “ खिलवाड़” भी अपने सामयिक कथानक के कारण दिल में उतरती है। युवा पीढ़ी के लिए माता-पिता के विचार, निर्णय, सोच समझ सब आउटडेटेड हो गए हैं। उनकी जिंदगी है वो अपनी जिंदगी जैसी चाहें जिएं। चाहे जैसी लाइफ स्टाइल रखें। लेकिन कहानी का एक वाक्य ही पूरी कहानी का निचोड़ है- “परिवार में किसी की भी जिंदगी सिर्फ उन्हीं की नहीं होती।सभी की जिंदगी का मूल्य एक दूसरे के लिए होता है” लेकिन अक्सर यह बात एक उम्र बीत जाने के बाद समझ आती है।
संग्रह की अन्य कहानियाँ भी अपने अलग-अलग विशिष्ट कथानक के कारण प्रभावित करती हैं। मैं इतने सुंदर कथा संग्रह के लिए प्रगति गुप्ता जी को हार्दिक बधाई देती हूं।
लेखिका-सुधा जुगरान
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देहरादून
उत्तराखंड