अरविंद जयतिलक
अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ‘साइंस’ का यह खुलासा चिंतित करने वाला है कि सदी के अंत तक दो तिहाई ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे। पत्रिका से जुड़े अध्ययकर्ताओं का मानना है कि दुनिया के 83 प्रतिशत ग्लेशियर साल 2100 के अंत तक विलुप्त हो सकते हैं। उनका यह आंकलन 2,15,000 जमीन आधारित ग्लेशियर पर आधारित है। यह पहली बार नहीं है जब जलवायु परिवर्तन की मौजूदा प्रवृत्तियों के कारण ग्लेशियरों के अस्तित्व पर मंडराते खतरे का आंकलन किया गया है। अभी गत वर्ष पहले ही प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय जर्नल ‘नेचर’ से खुलासा हुआ था कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते एशियाई ग्लेशियरों के सिकुड़ने का खतरा बढ़ गया है। इसे बचाने की कोशिश नहीं हुई तो सदी के अंत तक एशियाई ग्लेशियर अपने कुल भाग का एक तिहाई खत्म हो सकते हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक अगर वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने में सफलता मिली तब भी पर्वतों से 36 प्रतिशत बर्फ कम हो जाएंगे। कैंब्रिज विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा भी दावा किया जा चुका है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से आने वाले एक-दो वर्षों में आर्कटिक समुद्र की बर्फ पूरी तरह समाप्त हो जाएगी। उनके इस आंकलन का आधार अमेरिका के नेशनल स्नो एंड आइस डाटा सेंटर की ओर से ली गयी सैटेलाइट तस्वीरे हैं। इन तस्वीरों के मुताबिक आर्कटिक समुद्र के सिर्फ 11.1 मिलियन स्क्वेयर किलोमीटर क्षेत्र में ही बर्फ बची है। यह पिछले तीस साल के औसत 12.7 मिलियन स्क्वायर किलोमीटर से कम है। वर्ष 2007 की इंटरगवर्नमेंटल पैनल की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर के करीब 30 पर्वतीय ग्लेशियरों की मोटाई अब आधे मीटर से भी कम रह गयी है। हिमालय क्षेत्र में पिछले पांच दशकों में माउंट एवरेस्ट के ग्लेशियर 2 से 5 किलोमीटर सिकुड़ गए हैं और 76 फीसद ग्लेशियर चिंताजनक गति से सिकुड़ रहे हैं। वैज्ञानिकों का दावा है कि ग्लेशियर का बर्फ पिघलने से समुद्र गर्म होने लगा है। यह स्वाभाविक भी है कि जब बर्फ की परत मोटी नहीं बचेगी तो पानी सूर्य की किरणों को ज्यादा मात्रा में सोखेगा ही। जर्नल नेचर क्लाइमेट में ही प्रकाशित एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री से कम रखने की सिर्फ 5 प्रतिशत ही संभावना है। पृथ्वी का वातावरण पूर्व औद्योगिक काल की तुलना में तकरीबन एक डिग्री गर्म हो चुका है। इससे सदी के अंत तक तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस वृद्धि हो जाएगी। गौरतलब है कि पेरिस जलवायु समझौते के तहत तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने का लक्ष्य रखा गया है लेकिन ऐसा संभव कर पाना मुश्किल है। वैज्ञानिकों की मानें तो वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री वृद्धि से इस क्षेत्र के तापमान में 2.1 डिग्री वृद्धि होगी। अगर ऐसा हुआ तो फिर हिंदुकुश पर्वत शंृखला का तापमान 2.3 डिग्री और उत्तरी हिमालय का 1.9 डिग्री अधिक हो जाएगा। अगर तापमान अपने मौजूदा स्तर पर भी स्थिर बना रहा तब भी ग्लेशियर कई दशकों तक अनवरत गति से पिघलते रहेंगे। वैज्ञाानिकों का अनुमान है कि ग्लेशियर के पिघलने में तेजी आयी तो बाढ़ का खतरा उत्पन होगा और समुद्र के जल में भारी वृद्धि होगी। इससे समुद्रतटीय शहरों के डूबने का खतरा बढ़ जाएगा। याद होगा अभी गत वर्ष ही मैक्सिको की खाड़ी में स्थित लुईसियाना का डेलाक्रोइस शहर देश-दुनिया में खूब चर्चा का विषय बना। उसका कारण यह है कि यह शहर धीरे-धीरे समुद्र में समा रहा है। यहां समुद्र का पानी शहर एक बड़े हिस्से को निगल चुका है। विगत एक सौ साल में लुईसियाना की 1880 स्क्वायर मील जमीन भी डूब चकी है। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि औसतन 17 स्क्वेयर मील जमीन हर साल गंवानी पड़ रही है। ऐसा माना जा रहा है कि अगर कहीं बड़ा समुद्री तूफान आया तो शहर का काफी हिस्सा समुद्र में समा सकता है। 2016 में हुए एक अध्ययन के मुताबिक पिछले सौ साल में समुद्र का पानी बढ़ने की रफ्तार पिछली 27 सदियों से ज्यादा है। वैज्ञानिकों की मानें तो अगर धरती का बढ़ता तापमान रोकने की कोशिश न हुई तो दुनिया भर में समुद्र का स्तर 50 से 130 सेंटीमीटर तक बढ़ सकता है। गौरतलब है कि आर्कटिक क्षेत्र में आर्कटिक महासागर, कनाडा का कुछ हिस्सा, ग्रीनलैंड (डेनमार्क का एक क्षेत्र) रूस का कुछ हिस्सा, संयुक्त राज्य अमेरिका (अलास्का) आइसलैंड, नार्वे, स्वीडन और फिनलैंड में भी ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर पृथ्वी के तापमान में मात्र 3.6 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होती है तो आर्कटिक के साथ-साथ अण्टाकर्टिका के विशाल हिमखण्ड भी पिघल जाएंगे और समुद्र के जल स्तर में 10 इंच से 5 फुट तक वृद्धि हो जाएगी। चिंताजनक तथ्य यह भी कि ग्लेशियरों के टूटने से भारी तबाही का भी सामना करना पड़ रहा है। अभी गत वर्ष पहले उत्तराखंड राज्य के चमोली जिले के नीती घाटी स्थित रैणी क्षेत्र में ग्लेशियर टूटने से भारी मची तबाही मची थी और व्यापक स्तर पर जन-धन का भी नुकसान हुआ था। इस हादसे में तकरीबन दो सैकड़ा से अधिक लोग लापता हुए थे और कइयों लोगों की जान गयी थी। एनटीपीसी का तपोवन प्रोजेक्ट और ऋषि गंगा हाइडेल प्रोजेक्ट पूरी तरह तबाह हो गया था। वर्ष 2013 में केदारनाथ की त्रासदी भी देखा गया जब चैराबाड़ी ग्लेशियर के टूटने से मंदाकिनी नदी ने विकराल रूप धारण कर लिया था जिसमें हजारों लोगों की जान गयी। उत्तराखंड राज्य की ही बात करें तो यहां जोशी मठ में पहाड़ धंसने की घटना चिंता का सबब बनी हुई है। लिहाजा ग्लेशियरों के टूटने की संभावना भी बढ़ गयी है। लेकिन विडंबना है कि ग्लेशियरों पर बनी समिति की सिफारिशों पर अभी तक पूरी तरह अमल नहीं हुआ है। नतीजा हर वर्ष ग्लेशियर टूटकर मानव के लिए मौत का शबब बन रहे हैं। उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड सरकार द्वारा ग्लेशियरों को लेकर गठित विशेषज्ञ समिति ने 7 दिसंबर, 2006 को कई तात्कालिक और दीर्घकालिक सिफारिशें की थी। इस सिफारिश में प्रदेश सरकार के आपदा प्रबंधन एवं पुनर्वास विभाग को सुझाव दिया गया था कि ग्लेशियरों से पैदा होने वाले खतरों से बचाव के लिए उपाय तलाशा जाए। इस सिफारिश में उन आबाद इलाकों को चिन्हित करने को कहा गया जो ग्लेशियरों से पैदा होने वाले खतरे से प्रभावित हो सकते हैं। इसके साथ ग्लेशियरों के पीछे खिसकने के हाइड्रोलाॅजिकल और क्लाइमेटोलाॅजिकल आंकड़े भी जमा किए जाने की सिफारिश की गयी। ऐसा इसलिए कि इन आंकड़ों के आधार पर ही आने वाली बाढ़ और ग्लेशियरों से पानी के बहाव की माॅनिटरिंग की जा सकेगी। इस सिफारिश में यह भी कहा गया कि प्रदेश में स्थापित होने वाले हर हाइड्रोप्रोजेक्ट के लिए नदियों के उदगम क्षेत्र में मौसम केंद्र स्थापित किए जाएं तथा भागीरथी घाटी की केदार गंगा और केदार बामक के आसपास के ग्लेशियल झीलों की माॅनिटरिंग की जाए। इस तात्कालिक उपाय के अलावा कुछ दीर्घकालीन उपाए भी सुझाए गए। मसलन ग्लेशियरों एवं ग्लेशियल झीलों के बड़े परिमाण के मानचित्रों के साथ की इनवेंट्री बनायी जाए। माॅनिटरिंग सिस्टम को मजबूत करने के लिए एडब्ल्यूएस नेटवर्क के जरिए पर्यावरण एवं बर्फ, ग्लेशियल झीलों उनके बनने और संभावित खतरे की लगातार माॅनिटरिंग हो। साथ ही बर्फ के गलने और उस पर अवसाद तथा मलबे के भार का आंकलन हो। लेकिन इस दिशा में कारगर पहल होता नहीं दिख रहा है। उत्तराखंड ही नहीं बल्कि भारत का जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश समेत उत्तर-पूर्व के कई राज्य हिमालय की गोद में बसे हैं। ऐसे में यहां के लोगों की ग्लेशियर टूटने और बर्फीले तूफान की चपेट में आने की संभावना बनी रहती है। भू-स्खलन और बादल फटने की घटनाएं भी सर्वाधिक रूप से इन्हीं राज्यों में होती है। इन घटनाओं में अब तक हजारों लोगों की जान जा चुकी है। पर्यावरणविदों का कहना है कि ग्लेशियरों के पिघलने, टूटने, और बर्फीले तूफान का प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन, वनों की अंधाधुंध कटाई और ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन जिम्मेदार है। चिंता की बात यह भी है कि हिमालयी क्षेत्रों में मानकों को ध्यान में रखे बगैर सैकड़ों बांधों का निर्माण हो रहा है। इन बांधों ने ग्लेशियरों की जड़ें हिला दी हैं।