निमिषा सिंह
बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर कहते थे “औरत किसी भी जाति की हो अपनी जाति में उसकी वही स्थिति होती है जो एक दलित औरत की समाज में”। मौजूदा समय में जहां गैर दलित स्त्रियां अपने अधिकारों के लिए पितृ सत्तात्मक समाज से लड़ रही हैं। आज भी दोयम दर्जे का जीवन जी रही ये महिलाएं अपने अधिकारों की मांग कर रही हैं फिर चाहे वह समानता का अधिकार हो, समान वेतन का अधिकार हो, अपनी मर्जी से शादी करने का अधिकार इत्यादि। वहीं इसमें दलित महिलाओं की भागीदारी या उनकी आवाज काफी कम सुनाई देती है। अगर हम बात करें दलित महिलाओं के विषय में तो निसंदेह उनका जीवन स्वर्ण महिलाओं के मुकाबले कई गुना मुश्किलों भरा होता है। एक गैर दलित स्त्री का शोषण तो मात्र स्त्री होने के कारण है पर एक दलित स्त्री जाहिर है स्त्री होने का शोषण तो झेल ही रही है साथ ही दलित होने का दंश भी। अगर देखा जाए तो दलित स्त्री तिहरे शोषण की शिकार हो रही है। जाति के आधार पर, महिला होने के आधार पर और गरीब होने के आधार पर।
अधिकांशतः जब एक दलित स्त्री स्वतंत्र रूप से समाज में अपनी पहचान या एक मुकाम बनाने की कोशिश मात्र भी करती है तो उसके मनोबल को गिराने की पुरजोर कोशिश की जाती है। सदियों से दलित स्त्री को अपने थाली का भोजन समझने वाले लोगों द्वारा अभद्र एवं निंदमीय टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है।
हालांकि भारतीय समाज में दलित महिलाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है चाहे वह प्रशासनिक सेवा हो या फिर राजनीति। बावजूद इसके क्या इन्हे जातिगत टिप्पणियों से छुटकारा मिला है? जवाब है नही।
सदियों से दलित महिलाओं का शोषण जारी है फिर चाहे वो 18वीं सदी में त्रावणकोर साम्राज्य द्वारा दलित महिलाओं पर लगाया जाने वाला स्तन कर की प्रथा हो क्यों न हो। मुलाकरम एक ऐसी प्रथा जिसमे दलित महिलाओं को अपने स्तन को ढकने के बदले राज्य को टैक्स देना पड़ता था। कर की राशि स्तन के आकार के आधार पर निर्धारित की जाती थी।
1995 का भंवरी देवी रेप केस जिसने इतने बड़े देश के लोकतंत्र को अपने कानून बदलने पर मजबूर कर दिया। राजस्थान के महिला विकास प्रोग्राम से जुड़ी भंवरी देवी का गांव के ही सवर्णों द्वारा सामूहिक बलात्कार किया गया। कसूर इतना भर था कि उसने गांव में हो रहे एक बाल विवाह की सूचना अपने अधिकारियों को दी थी और सबसे बड़ा कसूर कि वह एक दलित महिला थी।
इसी वर्ष अप्रैल में बाड़मेर के पचपदरा गांव में एक दलित महिला का कथित तौर पर बलात्कार कर उसे जिंदा जला दिया गया।
इन हालातों में अगर कानून का सहारा लेने की कोशिश भी की जाती है तो पूंजीवाद और मनुवाद की दीवार खड़ी हो जाती है। कागजात बनते हैं अंदर के पन्नों पर पैराग्राफ भी बनते हैं और पेज आसानी से पलट भी दिया जाता है। इन आवाजों को वह स्थान कहां मिल पाता है? जाहिर है बदलाव जो आ जाएगा जिससे उन्हें लंबे समय से वंचित रखा गया है।
इस संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की कुछ पंक्तियां मुझे याद आती है। “कौन हूं मैं? मेरा अस्तित्व क्या है ?धीरे-धीरे मैं खाक हो जाऊंगी”
दलित की लड़की को कोई भी कहीं भी कैसे भी, खेत में उठाकर ले जाता है और बलात्कार कर देता है. मैं चाहूं तो आपको आकड़े दिखा सकती हूं किन्तु आज मेरा उद्देश्य आप तक दलित बहनों का दर्द पहुँचाना ही है। आधिकांश मामलो में दलित महिलाएं आसानी से स्वीकार कर लेती है कि कोई उनकी मदद नहीं करेगा और न्याय पाने का प्रयास मात्र भी नहीं करती।
पिछले साल एक लंबे अंतराल के बाद मेरा गांव जाना हुआ। बिहार के सुल्तानगंज के नजदीक बसा एक छोटा सा गांव” नोनसर”। आदर्श ग्राम की श्रेणी में रखा गया है इस गांव को। गांव में दलितों में भी दलित माने जाने वाले मुसहर जाति की एक बड़ी आबादी यहां रहती है इसलिए सरकार द्वारा इस गांव को सुविधा संपन्न बनाने की कवायद जारी है। आजादी से पहले अभाव में अपना जीवन गुजर बसर कर पेट भरने के लिए मूसा यानी चूहा मारकर खाने वाली जाति, मुसहर जाति। सालो बाद गांव जाना हुआ तो खेतों से बढ़ते हुए मैं हमारे टोले से थोड़ी दूर बसे एक बस्ती में पहुंच गई। पक्के मकान ,चापाकल कुल जमा सरकारी योजनाओं का लाभ मिलता दिखा मुझे उस बस्ती में।
9 या 10 साल की एक छोटी बच्ची जो कुछ झाड़ू जैसी चीज बनाती दिखी।खजूर के पत्ते चारों ओर बिखरे पड़े थे। पूछने पर उसने बताया कि वह स्कूल नहीं जाना चाहती। वह गांव के अंदर तो जाना चाहती है पर जा नही सकती। उसकी दुनिया उसके टोले से ही शुरु होकर उसके टोले में ही खत्म हो जाती है। जोर देने पर अपने काम को छोड़ थोड़ा ऊपर देखकर उसने झिझकते हुए कहा कि स्कूल में और बस्ती के बाहर सभी छेड़ते हैं। मुसहरनी, मुसहरनी कहते है। कुछ देर के लिए सन्नाटा था वहां। ना आगे उसने कुछ बोला और ना ही कुछ और पूछने की हिम्मत थी मुझमें। हां मन में कई सवाल जरूर थे।
महज 10 साल की एक छोटी सी बच्ची को यह पता था कि उसका जन्म ही एक ऐसी स्थिति में हुआ है जिससे वह छुटकारा नहीं पा सकती। उसे पता है कि वह अस्पृश्य है। उसके छू भर जाने से बस्ती के बाहर के लोग भ्रष्ट हो सकते हैं और उन्हे स्वयं को स्वच्छ करना पड़ेगा। स्कूल में हो रहे भेदभाव के बावजूद वो पढ़ना चाहती थी पर जातिगत टिप्पणियों ने शायद उसके मनोबल को बुरी तरह से तोड़ कर रख दिया है।
ऐसा ही एक वाकया मेरे साथ कोरोना काल में भी हुआ। लॉकडाउन में जागरूकता अभियान के तहत हम उत्तर प्रदेश की निभाना गांव में मास्क वितरण कर रहे थे। मेरी मुलाकात 33 वर्षीय गुड्डी देवी से हुई। बातों हो बातों में मुझे पता चला कि वो भंगी समुदाय से है और मैला ढोने का काम करती है। पूरे दिन 8 से 10 घरों में टट्टी उठाने के बदले उन्हें चंद सूखी रोटियां मिलती है जो दूर से ही फेंक दी जाती हैं। कभी कभी शादी ब्याह में कुछ पैसे और कपड़े मिल जाते है। साथ ही उन लोगों के बर्तन या उनका शरीर इनसे बिल्कुल नहीं छूना चाहिए इन्हे इस बात का ध्यान रखना पड़ता है। अपने आंसुओं को छुपाने की कोशिश करती गुड्डी ने कहा शायद यह कलंक तभी खत्म होगा जब हम मरेंगे। हालांकि मैनुअल स्कैवेंजर्स ऐक्ट 2013 को अस्तित्व में आए 10 साल हो गए पर क्या मैला उठाने वाली इन दलित महिलाओं के जीवन में कुछ बदला है? सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की स्वरोजगार योजना के तहत इन महिलाओं के पुनर्वास की कोशिश जारी है पर हां यह भी सच है कि जब तक इस काम को करने वाले अंतिम व्यक्ति तक यह प्रयास पहुंच नहीं जाता यकीन मानिए मेरे पास गुड्डी के इस सवाल का कोई जवाब नहीं है ”हमारे विषय में सोचने वाला कौन है?”
वहां रहने वाली कुछ और महिलाओं से मैने कोविड से परहेज के विषय में बात करने की कोशिश की तो एक महिला चिल्ला पड़ी ..चले जाओ यहां से। हमारे बच्चे नमक और रोटी पर जी रहें है। दूध नसीब नही होता उन्हे। स्वच्छता की बात कर रही हो। हम तो गंदगी और मानव अपशिष्टों के साथ ही काम करते है। हम क्या करेंगे ? हमारी देखभाल करने वाला कौन है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि गंदगी जब इन लोगों के आत्मा तक पहुंच जाती होगी तब शायद ये सोचती होंगी उन्हे क्या करना चाहिए या क्या कहना चाहिए। उस दिन शायद उस महिला के सब्र का बांध टूट चुका था।
दिल्ली के होस्टल में रहकर नर्सिंग की पढ़ाई करने वाली रेती समुदाय की बंगारू से जब मेरी बात उनके समुदाय की समस्याओं को लेकर हुई हुई तो उन्होंने बताया कि मेरी मां और दादी सफाई कर्मचारी थी। मुझे पढ़ाने के लिए, मेरी छात्रवृत्ति के लिए मां काफी संघर्ष कर रही थी तो आसपास के लोगों ने कहा, चाहे कितना भी पढ़ लिख लेगी बनेगी वह सफाई कर्मचारी ही। एक बार घर पर झाड़ू गिर गया और मैं उसे उठाने गई तो दादी चीख पड़ी…..झाड़ू को मत छूना। इस बात को लेकर दादी इतनी जुनूनी थी कि मेरे झाड़ू को छू लेने मात्र से ही मुझे हमेशा के लिए शौचालय साफ करने वाली घोषित कर दिया जाएगा। बंगारू ने आगे कहा कि यहां हॉस्टल में हमारे समुदाय की एक सफाई कर्मचारी है। जब मैंने अपने भाषा में उनसे बात करने की कोशिश की तो उन्होंने मना करते हुए कहा कि यहां सभी हमारी जाति के विषय में जान जायेंगे और हम दोनो को अपमानित करेंगे। बंगारू दुखी थी कि उनके ही लोग अपनी जाति और भाषा पर शर्म महसूस कर रहे हैं। यहां तक कि अपनी पृष्ठभूमि से इंकार कर रहे है। यह सच है कि मानव मल को मनुष्य द्वारा साफ करने के पेशे से अभी भी लोगों को मुक्ति नहीं मिल पाई है। इसमें क्षेत्रों का पिछड़ापन लोगों में गरीबी और पुरानी व्यवस्था आड़े आ रही है।
जोगिन प्रथा ।आज भी भारत के कई हिस्सों में परंपरा यह मांग करती है कि दलित लड़की को मंदिर में देवी को समर्पित किया जाए। जिसके बाद उससे यह अपेक्षा रखी जाती है कि वो पुजारी के साथ ही गांव के अन्य पुरुषो के साथ यौन संबंध बनाए।
हज्ज्मा नाम की एक दलित महिला जो स्वयं इस प्रथा की शिकार रही है बताती है कि नई बच्चियों के जोगिन बन जाने से पुरानी जोगिनो को मंदिर के बाहर फेंक दिया जाता है। उन्हे कोई खाना देने वाला नही होता। तिरस्कृत और अपमानित जीवन।
बचपन में ही जोगिन बनी हज्जमा ने जब इस प्रथा का विरोध करते हुए अपने पसंद के लड़के से विवाह की इच्छा जताई तो उन्हें अपने ही समाज के लोगों का विरोध सहना पड़ा।। उनसे कहा गया कि अब तुम गांव की संपत्ति हो। तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम सब के साथ हमबिस्तर हो। तुम्हारे इस कदम से सारा गांव शापित हो जाएगा। 3 वर्षों के लंबे संघर्ष और सरकारी संगठनों की मदद से हज्जमा की शादी हो पाई। आज वह स्वयं उन दलित बहनों के लिए लड़ती है जो उनकी तरह पीड़ित है। सुदूर गांवों में आज भी जोगिन प्रथा के नाम पर दलित बच्चियों और महिलाओं का शोषण जारी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि हज्ज़मा हो ,गुड्डी हो, बंगारू हो या झाड़ू बनाती वह बच्ची। इन सबों का दर्द कठोर हृदय को पिघला कर रख देने के लिए काफी है। इन सारे शोषण को जड़ से खत्म करने के लिए व्यापक स्तर पर एकजुट होकर भारतीय समाज को जागरुक कर शोषित दलित स्त्रियों को शिक्षित कराने और उन्हें समाज में बराबरी का अधिकार दिलाने के लिए वृहद स्तर पर काम करना होगा। हालांकि सवर्णों के प्रभुत्व वाले सभी क्षेत्रों में दलित महिलाओं के प्रवेश और अस्तित्व का मुद्दा अभी भी एक बड़ी चुनौती है।