स्वामी विवेकानंद के विचार और साधना में योग विद्या का बहुआयामी समन्वय है। ज्ञान, कर्म और भक्ति की त्रिवेणी उनके व्यक्तित्व से अविरल प्रवाहित होती है और राजयोग की पराकाष्ठा उनके जीवन को सूर्य की भांति दीप्तिमान बनाती है।
विवेकानंद की मान्यता में ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की मौलिक धारणा संपूर्ण मानव जाति को अखंडता का आधार प्रदान करती है और इसी ऋषिसूत्र में समस्त समस्याओं का समाधान निहित है। योग को लेकर उन्होंने जो विचार व्यक्त किए, वह योगज्ञान का एक तरह से आधुनिक भाष्य है।
योग की अनेक धाराएं हैं। इनमें भी मंत्रयोग, हठयोग, लययोग और राजयोग को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना गया है। स्वामी विवेकानंद ने योग की इन विशिष्ट परंपराओं को विश्व के समक्ष व्यावहारिक ढंग से प्रस्तुत किया। उन्होंने राजयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि योग पद्धतियों के द्वारा जनसामान्य एवं खासतौर पर युवाओं में अध्यात्म एवं योग के प्रति समर्पण की भावना को जागरूक किया।
प्राचीन संस्कृत शब्द ‘योग’ की परिभाषा चित्तवृत्ति निरोध कहकर की गई है। इसका अर्थ यह है कि योग वह विज्ञान है, जो हमें चित्त को परिवर्तनशील अवस्था से निरूद्ध कर, उसे वश में करने की शिक्षा देता है। पिछले दो हजार, चार हजार वर्षों से लोग नई-नई धर्म-व्यवस्थाओं का अध्ययन करते आ रहे हैं। जब वे तर्को से समाधान नही कर पाते, तो कहते हैं ‘विश्वास करो।’ यदि वे शक्तिशाली हुए, तो अपना विश्वास उन्होनें बलपूर्वक लादा, आज भी ऐसा हो रहा है। लेकिन कुछ ऐसे व्यक्ति हैं, जो इस स्थिति से पूर्ण संतुष्ट नही हो पाते। वे पूछते हैं, ‘क्या निस्तार का कोई मार्ग नही है?’ भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान और गणित में, तो तुम इस प्रकार की अटकलबाजी नही करते। फिर क्या धर्म-विज्ञान इतर विज्ञानों की भांति नही हो सकता?
योग वह विज्ञान है, जो हमारे चित्त को इन परिवर्तनों में पड़ने से बचना सिखाता है। मान लो तुम मन को पूर्ण योगयुक्त अवस्था तक पहुंचाने में सफल हो गए। उस समय तुमने समस्या हल कर ली। तुम्हें बोध हो गया कि तुम क्या हो। सभी परिवर्तनों पर तुम्हारा प्रभुत्व हो गया। उसके पश्चात, तुम मन को विचरण करने दो। पर वह अब पहले जैसा मन नही रह गया। वह पूर्णतया तुम्हारे वश मे है। तुमने ईश्वर का दर्शन कर लिया। यह अनुमान का विषय नही रह गया।
किसी ग्रंथ या वेदों की नही, धर्मोपदेशों का वितंडावाद जैसी कोई चीज नही रही। तुमने स्वयं साक्षात्कार कर लिया- मैं इन परिवर्तनों से परे आत्मा हूं। मैं परिवर्तन नही हूं, यदि मैं ऐसा होता, तो उन्हें रोक ना सकता। मैं परिवर्तनों को रोक सकता हूं, इसलिए मैं स्वयं परिवर्तन कदापि नही हो सकता।
स्वामी विवेकानंद ने इसे इस रूप में प्रस्तुत किया- यदि वास्तव में मनुष्य की आत्मा का अस्तित्व है, यदि वह अमर है, यदि सचमुच ईश्वर की सत्ता है और ईश्वर जगत का शासक है, तो उसका बोध यहीं होना चाहिए। निश्चय ही ईश्वर तथा स्वर्ग संबंधी सभी विश्वास संगठित धर्मो के शूद्र विश्वास हैं। कोई भी वैज्ञानिक धर्म इस तरह की प्रस्तावना नही करता।
स्वामी विवेकानंद के विचार और साधना में योग विद्या का बहुआयामी समन्वय है। ज्ञान, कर्म और भक्ति की त्रिवेणी उनके व्यक्तित्व से अविरल प्रवाहित होती है और राजयोग की पराकाष्ठा उनके जीवन को सूर्य की भांति दीप्तिमान बनाती है।
विवेकानंद की मान्यता में ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की मौलिक धारणा संपूर्ण मानव जाति को अखंडता का आधार प्रदान करती है और इसी ऋषिसूत्र में समस्त समस्याओं का समाधान निहित है। योग को लेकर उन्होंने जो विचार व्यक्त किए, वह योगज्ञान का एक तरह से आधुनिक भाष्य है।
योग की अनेक धाराएं हैं। इनमें भी मंत्रयोग, हठयोग, लययोग और राजयोग को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना गया है। स्वामी विवेकानंद ने योग की इन विशिष्ट परंपराओं को विश्व के समक्ष व्यावहारिक ढंग से प्रस्तुत किया। उन्होंने राजयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि योग पद्धतियों के द्वारा जनसामान्य एवं खासतौर पर युवाओं में अध्यात्म एवं योग के प्रति समर्पण की भावना को जागरूक किया।