डाॅ. दलजीत कौर
कल पड़ोसी प्रेमचंद जी ने बताया -सतयुग आ गया। जिस सतयुग की तलाश महापुरुषों को थी। जिस के लिए संत तपस्या कर रहे थे। जिसका वर्णन केवल धर्म-ग्रंथों में था। वह आ गया। आकाश साफ, नदियाँ नीली, जल, वायु, पृथ्वी प्रदूषण रहित हो गए। चिड़ियाँ लौट आईं हैं। जीव-जंतु खुशी से नाच-गा रहे हैं। मानव मान गया कि ईश्वर कहीं बाहर नहीं मन में वास करता है। उसने घर को मंदिर मान लिया और धर्मस्थलों पर जाना छोड़ दिया। हालाँकि इससे धर्मगुरु, महंत आदि नाराज व परेशान हैं कि उनका बढ़ा हुआ पेट कैसे भरेगा? परन्तु मानव को आखिरकार समझ आ गया है कि ईश्वर के नाम पर दूध-घी नालियों में बहाने से अच्छा है कि अभावग्रस्त को दे दिया जाए। बड़े -बड़े मंदिर बनाने की बजाए अस्पताल बनाए जाएं। जिनमें जरूरतमन्दों का इलाज हो सके। जीवन में पैसों से ज्यादा दुआओं की जरूरत होती है। इसी से मानसिक संतुष्टि मिलती है।
मुझे याद आया कि पिछले हफ्ते मेरे मित्र की माताजी का स्वर्गवास हो गया। 15-20 लोग ही श्मशान घाट गए। सब कार्य करने के बाद एक घंटे के पाठ के बाद अंतिम अरदास की गई। बस 20-22 लोग ही उपस्थित हुए। मेरा मित्र प्रसन्न है। इसलिए नहीं कि उसकी माताजी का देहांत हो गया बल्कि इसलिए कि वह इसे सही मानता है। भीड़ एकत्रित करने के वह खिलाफ है। दो वर्ष पहले जब उसके पिताजी की मृत्यु हुई थी तब पिता जी की अंतिम क्रिया का कार्यक्रम पंद्रह दिन चला और तीन सौ लोगों ने एक बड़े कार्यक्रम में भाग लिया। मेरे मित्र ने न चाहते हुए भी कर्ज ले कर एक लाख रुपए इस पर खर्च किए।
माँ ने कहा -‘तेरे पिता ने सारी जिंदगी कमाया। तेरे लिए इतना किया। तू क्या उनका बड़ा नहीं कर सकता?’
और उनका बड़ा करते-करते वह खुद छोटा हो गया।
प्रेमचंद जी ने एक अन्य विषय पर प्रकाश डाला -अब तो शादी भी पांच से पचास लोगों से ही होने लगी। दूल्हा मोटरसाइकिल पर अकेला जा कर दुल्हन ले आए तो भी शादी उतनी ही मजबूत होती है जितनी 500 लोगों के साथ जाने से होती थी। कुछ समझदार लोग सतयुग का लाभ उठा रहे हैं। वे सतयुग जाने से पहले-पहले बिना खर्च के शादियां निपटा रहे हैं। मेरी मित्र की ममेरी बहन एक संस्था में उच्चाधिकारी है। साथ ही एक लड़का काम करता है। दोनों परिवारों ने बिना किसी को बुलाए शादी कर ली। लड़के वाले तो चुनरी चढ़ाकर ही शादी करना चाहते थे। पर लड़की की माँ को लग रहा था कि बिना फेरों के कैसे लड़की को भेज दें। लड़के वालों ने इसका भी हल निकाला। अपना पंडित भी साथ लाए और फेरे करवा कर बहू ले गए। दहेज की समस्या भी खत्म। बच्चों की पढ़ाई पर इतना खर्च होता है। वही दहेज मान कर लोग खुश होने लगे हैं। ऐसा तो सतयुग में ही संभव है।
एक घटना का वर्णन करते हुए प्रेमचंद जी ने कहा कि कुछ स्त्रियों में आभूषण- प्रेम अधिक होता है, कुछ में वस्त्र -प्रेम तो किसी में मेकअप -प्रेम। कुछ महान देवियों में सभी प्रेम विद्यमान होते हैं। एक पत्नी ने सुबह-सुबह पति से कहा- ‘जल्दी लौट आना आज। मुझे सूट लेने जाना है।’
पति बेचारा अपने दफ्तर के किसी तनाव में था। उसने कहा- ‘पहले जो इतनी अलमारियाँ भरी पड़ी हैं। उनको तो आग लगा लो।’
इतना कह कर वह दफ्तर चला गया। उसकी माँ नीचे कपड़े धोने लगी। तभी पड़ोस की औरत ने आकर उन्हें बताया कि आप के घर के ऊपरी हिस्से में आग लगी है। इतना धुँआ देखकर पड़ोसियों ने फाॅयर ब्रिगेट को फोन कर दिया। किसी ने पति को भी फोन कर दिया। बस वही सूट बचा था जो उस महान स्त्री ने पहना था और उसने बड़ी सरलता से कहा -‘पति ने ही मुझे आग लगाने को कहा था। ‘जब से सतयुग आया है उस स्त्री ने भी कोई मांग नहीं की है। कपड़े की दुकान पर मालिक दुकान के पुतलों को कपड़े दिखाकर, उनसे बातें कर मन बहला रहे हैं। लोग फालतू चीजे खरीदते ही नहीं। दिखावे की प्रवृत्ति रही ही नहीं।
लोग आत्मनिर्भर हो गए हैं। अपना काम स्वयं करने लगे हैं। बाहर के खाने को जहर मानने लगे हैं। घर का बना साफ-सुथरा खाना खाने लगे हैं। घर में पकवान बनने लगे हैं। जिसे खाना बनाना नहीं आता था। वह भी बनाने लगा है। घर की सफाई स्वयं करने लगे हैं समाएँ घर पर हैं और मुन्ना भी अब दिन में आया के पास और रात में मम्मी के पास नहीं रहता। वह बेचारा जो सोच रहा था कि मेरी दो मम्मियां हैं। एक दिन की और एक रात की। उसे भी असली माँ की पहचान हो गई है। पिता उसकी सोच के कारण कलंकित होने से बच गया है।
निंदा और निंदक का मूल से नाश हो गया। लोग अपने घरों में, परिवार में व्यस्त हैं। ईश्वर का नाम ले रहे हैं। जो आंटियां सारा दिन इधर -उधर चुगलियां करती थीं। वे भी अपने-अपने घरों में हैं। चाहे उनके लिए यह किसी सजा से कम नहीं है और उन्हें खाना पचाने में मुश्किल हो रही है। कुछ फोन पर अपनी भड़ास निकाल रही हैं और कुछ तो घर में ही उत्पात मचा रही हैं। हाँ! सुधार अवश्य हुआ है।
कुछ साल पहले मेरी मित्र की शादी की पच्चीसवीं सालगिरह थी। जब हम पार्टी में गए तो मेरी मित्र काफी जवान दिखने का प्रयास कर रही थी। बालों पर उसने विशेष रूप से दो-तीन तरह का रंग करवाया था। मेरे पति ने उसके पति से कहा -‘आज तो आप भी दाढ़ी रंग लेते। आपकी पत्नी तो आपसे बहुत जवां दिख रही है। वे सीधे -सादे इंसान हैं। उन्होंने जवाब दिया -‘यार! जब जवानी में मुँह काला नहीं किया तो अब बुढ़ापे में क्यों करना। इसे बनने दो पंद्रह साल की।’
जब से कलयुग आया है लोगों ने बाल रंगने छोड़ दिए हैं। मेरी 75वर्षीय मासी जी को डाॅक्टर ने यहाँ तक कह दिया कि यदि आप बाल रंगने नहीं छोड़ेगी तो आपकी आँखों की रौशनी चली जाएगी। पर मजाल है कि उन्होंने डाॅक्टर की बात सुनी हो। मगर अब उन्होंने भी रंग को तिलांजलि दे दी। मेरी बहन के जेठजी जिनके दाढ़ी रंगने से होंठ और मुँह सूज जाते थे पर वे कभी एक भी बाल सफेद नहीं रहने देते थे। अब सफेद बालों में नजर आने लगे हैं एक दिन उनके मित्र का वीडिओ फोन आया तो वह बेचारा उन्हें पहचान ही न पाया। उसने कहा -यार! तू तो इतना बूढ़ा लग रहा है जैसे बस अभी मरने वाला है। तुझे देखकर मुझे भी अपनी मौत से डर लगने लगा है। तू जल्दी इन्हें काला कर ले।’
एक पति इसलिए खुश हैं कि ब्यूटी पार्लर बंद हो गए। उनका कहना है कि पहली बार उनके पैसों की इतनी बचत हुई है। क्योंकि हजारों रुपए उनकी पत्नी नख-शिख सौंदर्य पर खर्च करती थी। बाजार नहीं जाना तो सजना-संवरना बंद। अब वह घर पर बेसन, हल्दी, दही इस्तेमाल कर रही है। जो समय वह ब्यूटी पार्लर में बिताती थी वह घर पर बिता रही है। उसकी सास भी बहू को घर में देखकर खुश है। कल मैं उनसे मिलने गई तो माता जी से बात हुई -‘माताजी कोरोना बीमारी आई है। इसलिए स्कूल-काॅलेज, शहर, गांव, देश सब बंद हैं।’
उन्होंने मेरी तरफ ऐसे देखा कि जैसे मैं कोई मूर्ख हूँ और बोली -‘सतयुग आया है। सतयुग।’ उनके चहरे का भाव देखकर मुझे भी लगने लगा शायद सतयुग आ गया।
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