
इस पुस्तक के उपोदघात में लेखिका अपने अर्धशतकीय हिंदी यात्रा के अनुभव का परिचय देते हुए कहती हैं- ‘दक्षिण में द्रविड़ संस्कृति एवं तेलंगाना की मूल भाषा तेलुगु के साथ हैदराबाद शहर में रहने वाले लोग उर्दू एवं दक्षिणी हिंदी की जानकारी स्वयंमेव प्राप्त कर लेते हैं।’ (पृ. ‘उपोदघात’) ‘तेलंगाना का निर्माण एवं इसकी संस्कृति’ निबंध में लेखिका ने तेलंगाना के किशोर रूप का चित्रण किया है। इस अध्याय में तेलंगाना के स्वतंत्र राज्य की गाथा का विस्तृत उल्लेख क्रमबद्धतापूर्वक किया गया है। संस्कृति और तकनीकी के समन्वय का उल्लेख करते हुए इस अध्याय में राज्य के बहुमुखी विकास के आयामों को विवेचित किया गया है। ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा- संस्कृति, खेल तथा कला के क्षेत्र में तेलंगाना के राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय योगदान का अति सुंदर परिचय देने का सफल प्रयास लेखिका द्वारा किया गया है। इसी अध्याय में बोनालु, बतुकम्मा, पोंगल, उगादि तथा जात्रा का परिचय देते हुए तेलंगाना की भव्यता को प्रस्तुत किया गया है। तेलंगाना की कला-संगीत की जीवंतता के अनोखे रूप को ‘बुरा कथा’ के माध्यम से समझाने का प्रयास लेखिका ने किया है।
तेलंगाना के भूगोल, लोकजीवन, संत शृंखला, सामाजिक समानता, सांस्कृतिक परंपरा एवं संपूर्ण पाठ सामग्री के अंतर्गत तेलंगाना की जनजाति संरचना को प्रस्तुत किया गया है। तेलुगु भाषियों की भूमि ‘त्रिलिंगा’ की भौगोलिक विवेचना की गई है। तेलंगाना के जनजातीय परिचय को उनके रहने के स्थान के अनुसार विवेचित किया गया है। राज्य की जनता के रहन-सहन एवं खान-पान को स्वास्थ्य संवर्धनकारी बताया है। वे लिखती हैं – ‘तेलंगाना प्रदेश उत्तर भारत और दक्षिण भारत की खूबियों का परिचय अपने भोजन, नृत्य और पर्वों द्वारा करता है, यहाँ का गारिजेलु उत्तर भारत की गुझियां से प्रेरित है।’ (पृ. 14)
तेलंगाना के पारंपरिक वस्त्रों एवं हस्तशिल्प का उल्लेख करती हुई लेखिका कहती हैं- ‘तेलंगाना की जनजातियाँ अपनी कढ़ाई और हथकरघे के लिए भी दुनिया भर में प्रसिद्ध है और यहाँ के लोगों के जीवन के अर्थ-उपार्जन का मजबूत आधार भी यही है।’ (पृ. 15) तेलंगाना के मयूरी, गुसाड़ी, दप्पू, लंबाडी, पेरिनि, ठंडाव तथा अन्य नृत्य का स्थान-विशेष के द्वारा बड़ा ही सुंदर परिचय दिया गया है। यहाँ की ‘रंगम कन्या’ के द्वारा वर्षपर्यंत की घटनाओं की भविष्यवाणी का लेखिका ने रोचक चित्रण किया है।
उन्होंने भारतीय संस्कृति को मध्य युग में संजीवनी प्रदान करने वाले तथ्य के रूप में तेलंगाना की संत परंपरा को महत्वपूर्ण माना है। वे लिखती हैं- ‘ये संत कवि, ‘स्वांतः सुखाय’ अथवा मात्र स्वयं पर ईश्वर की अनुकंपा के लिए ही भक्ति नहीं करते थे, बल्कि उन्होंने अपने साहित्य को संगीत के माध्यम से लोक कल्याण के निमित्त लोक हृदय में प्रवाहित किया।’ (पृ.19) इसी अध्याय में तेलंगाना के बलिदानियों तथा स्वतंत्रता सेनानियों का उल्लेख करके उन्हें गौरवपूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित किया गया है। नन्हू सिंह, शोएबुल्लाह, नरसिंह राव के साथ ही सरोजिनी नायडू, भामाशाह जी. पुल्ला रेड्डी आदि के प्रखर व्यक्तित्व का दिग्दर्शन कराया गया है। निजाम शासन के भारत विलय की विवेचना को लेखिका में सूचनात्मक शैली में प्रस्तुत किया है। निजाम के मितव्ययी किंतु दानशीलता को लेखिका ने उनकी सनक की कहानियों के साथ अत्यंत रोचक प्रस्तुति दी है। भारत पर चीन के आक्रमण के बाद पाँच टन सोना निजाम मीर उस्मान अली द्वारा दान करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से उस लोहे के बक्से को वापस मंगवा लिया गया, जिसमें वह सोना रखा गया था। इसी तरह से 25/- में कंबल खरीदने की इच्छा रखने वाले निजाम ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के लिए 100000/- देने में एक क्षण भी संकोच नहीं किया। इसी अध्याय में राज्य के मंदिर, झील, उद्यानों का परिचय दिया गया है।
तृतीय अध्याय ‘नवोदित राज्य तेलंगाना के तीव्रगामी विकास को उद्धृत किया गया है। राज्य सरकार के लोक कल्याणकारी कार्यों की योजनाओं का विस्तृत परिचय इस अध्याय में दिया गया है। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, भोजन को जन-जन तक पहुंचाने की योजनाएँ तेलंगाना को भारत का विकसित राज्य बनाती है। लेखिका ने तेलंगाना राज्य को आंध्र प्रदेश से अलग होने को वरदान स्वरूप माना है द्य इस राज्य में स्त्री सशक्तिकरण को प्रमुख रूप से उन्होंने उद्धृत किया है। विद्यानगर स्टेशन की महिला रेलकर्मियों द्वारा संचालित किए जाने को उल्लेखनीय माना है। राज्य सरकार द्वारा चलाए जाने वाले ‘आरोग्य लक्ष्मी योजना’, ‘कल्याण लक्ष्मी योजना’ तथा ‘शादी मुबारक योजना’ आदि को प्रमुख माना है। तेलंगाना के पर्यटन स्थलों का उल्लेख करते हुए ‘माॅडल स्टेट की ओर बढ़ते कदम’ की रूपरेखा उन्होंने प्रस्तुत किया है।
चतुर्थ अध्याय ‘दक्खिनी का साहित्य एवं हिंदी में ख्वाजा बंदानवाज गेसूदराज के ‘मिराजुल आशिकीन’ को पहला गद्य साहित्य माना जाता है। मुल्ला वजही के ‘सबरस’ को उर्दू की प्रथम कृति मानी जाती है। लेखिका की दृष्टि दक्खिनी हिंदी के अमानुल्लाह, फकीरा, अब्दुल हाशमी, आजाद, रहमति कासिम अली, महमूद दखिनी आदि सब पर गई है। दक्खिनी हिंदी के विकास में संत साहित्य के योगदान को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। महाराष्ट्र के ये संत दामोदर पंडित, कवित्री महादईसा, चक्रपाणि निलंबकर के ‘तीसा साहित्य’ आदि का वर्णन मिलता है। नाथ पंथ के ‘वारकरी संप्रदाय’ से नामदेव, एकनाथ, तुकाराम आदि के अभंग साहित्य में मानवतावाद की प्रतिष्ठा का चित्र उल्लेखनीय है। दक्खिनी हिंदी तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक तथा महाराष्ट्र तक विस्तार लेते हुए वली मोहम्मद वली के परिनिष्ठित साहित्य तक पहुंचने को उन्होंने चित्रित किया है। लेखिका ने पर्याप्त शोधपरक दृष्टि के साथ दक्खिनी हिंदी को तथा उसके प्रचार-प्रसार को बताया है। वे लिखती हैं- ‘भाषा का इतिहास पूर्ण रूप से लिखा नहीं जा सकता, इसी कारण हिंदी और उर्दू भाषा, भाषा के वैज्ञानिक दक्खिनी हिंदी के अध्ययन के लिए सम समान रूप से अवलंबित रहता है। इसी भाषा को मुस्लिम साहित्यकार दक्खिनी उर्दू भाषा कहते हैं।’ (पृ. 51)
पांचवें अध्याय ‘हैदराबाद में हिंदी साहित्य, पत्रकारिता, कविता एवं अन्य लेखन के संदर्भ में दक्षिण के योगदान को भव्यतापूर्वक स्थापित किया है। उन्होंने अजंता, अध्येय, अग्रधारा, युगमानस, संकल्य, पुष्पक, पुष्पक साहित्यिकी, गोलकोंडा दर्पण, दक्षिण भारती, दक्षिण समाचार, कल्पना आदि पत्रिकाओं का हिंदी भाषा- साहित्य के परिमार्जन में अद्भुत योगदान रेखांकित किया है। आर्यभानु, पूर्णकुंभ, आंध्र प्रदेश, संगम जैसी पत्रिकाएं हिंदी के विकास में मील का पत्थर सिद्ध होती हैं। लेखिका ने सामान्य-विशेष सभी स्थानीय रचनाकारों को इस अध्याय में स्थान दिया है।
छठवें अध्याय ‘उर्दू तेलुगु साहित्य पर एक दृष्टि’ में दक्षिण की स्थानीय भाषाओं की गरिमा को स्थापित किया है। तेलुगु के साहित्य और साहित्यकारों का परिचय इस अध्याय में प्राप्त होता है। सातवें अध्याय ‘अहिंदी भाषी प्रदेश हिंदी लेखन के संदर्भ में’ लेखिका ने श्रेष्ठ तेलुगु, हिंदी लेखकों का प्रभावी उल्लेख किया है। उन्होंने सिद्ध किया है कि रामानंद, वल्लभाचार्य, पद्माकर तथा बालसौरि रेड्डी सरीखे साहित्यकार किसी हिंदी भाषी के समान अथवा अधिक ही उत्तम साहित्य का सृजन करने में सक्षम रहे हैं। उन्होंने तेलुगु भाषा की प्रकृति-संस्कृति को राष्ट्रीय स्तर प्रदान करने में तेलुगु के हिंदी साहित्यकारों की भूमिका को महत्वपूर्ण माना है। उत्तर-दक्षिण की दूरी को मिटाने में इन लेखकों का लेखन किसी महत्वपूर्ण योगदान से कम प्रतीत नहीं होता हैं। तेलुगु से हिंदी तथा हिंदी से तेलुगु में अनुवाद कार्य के माध्यम से तुलनात्मक साहित्य का सर्जन तेलंगाना में अत्यधिक हुआ है। लेखिका ने भारतीय भाषाओं के साहित्य के रागात्मक एकता को वाणी रंगा राव की इस कविता के माध्यम से चित्रित किया है –
‘कड़ी धूप में
पैदल चल रही उस लड़की को
दिख रहा है उज्ज्वल भविष्य
दिख रहा है भारत का नक्शा
भूल गई है कि वह लड़की है।’ ( पृ. 66)
आठवें अध्याय ‘हिंदी और तेलुगु की स्त्रीवादी कवयित्रियाँ एवं स्त्री विमर्श’ में लेखिका ने स्त्री विमर्श को दो टूक शब्दों में व्यक्त कर दिया है। ‘स्त्री आंदोलन के नाम पर नारी को बात अपनी बादशाहत की नहीं, बराबरी की करनी चाहिए। कई बार आंदोलनात्मक आवेग आंदोलन को गलत मोड़ दे देते हैं। नारीवादी लेखिकाएं कवयित्रियाँ चाहे किसी भी भाषा की क्यों न हो। वे अपने विभिन्न मुद्दों से अच्छी तरह परिचित हैं।’ (पृष्ठ-70) लेखिका स्त्री स्वतंत्रता को अत्यंत आवश्यक मानती हैं। तेलुगु कवयित्री की कविता में स्त्री चरित्र की झाँकी उसी रूप में स्पष्ट हुई है –
‘बचपन में कहा लोगों ने
छोटी बच्ची है, कुछ जानती वानती नहीं
बैठ जा, चुपचाप
जवानी में कहा लोगों ने
गरम खून है भला-बुरा जानती है नहीं
बैठ जा चुपचाप
बुढ़ापे में कहा फिर लोगों ने
बूढ़ी है अब करेगी भी क्या
बैठ जा चुपचाप’ (पृ. 72)
डाॅ. सुशीला टाकभौरे लिखती हैं –
‘वह सोचती है
लिखते समय कलम को झुका ले
बोलते समय बात को संभाल लें
और समझने के लिए
सबके दृष्टिकोण को देख लें।
क्योंकि वह एक स्त्री है। (पृ. 72)
लेखिका ने स्त्री लेखन की तार्किक विवेचना की है।
नवें अध्याय ‘हिंदी और तेलुगु साहित्य में मानवतावादी चेतना’ में लेखिका ने साहित्य की सार्थकता का बोध कराया है तथा साहित्य के मानवतावादी स्वरूप को प्रस्तुत किया है। रामायण, महाभारत, भगवतगीता तथा संस्कृत, हिंदी तेलुगु काव्यों में अभिव्यक्त मानवतावादी स्वर को निरूपित किया है। दसवें अध्याय ‘हिंदी और तेलुगु की नई कविता एवं विचार कविता का विवेचन’ में लेखिका ने शिल्प और संदेश दोनों स्तरों पर विवेचना की है। छायावाद से लेकर विचार अथवा वचन कविता को अभ्युदय काव्य के बाद की वे सशक्त कड़ी मानती हैं। लेखिका ने मानव समस्याओं के समाधान को पूर्णरूपेण विज्ञान में नहीं पाया है। इस संदर्भ में उन्होंने कवि बैरागी, मदिराज, रंगाराव, पी. आदेश्वर राव आदि की कविताओं को उद्धृत किया है। मध्यम वर्ग के नैतिक पतन पर लेखिका विचलित होती हैं। हिंदी की प्रयोगवादी तथा यथार्थ कविताओं के द्वारा भविष्य के प्रति आशा और विश्वास भी प्रकट करती हैं।
ग्यारहवें अध्याय ‘दक्षिण में हिंदी की स्थिति एवं शिक्षा के क्षेत्र में इसका स्थान’ निर्धारित करती हुई लेखिका ने हिंदी को जनसाधारण की ऐसी भाषा माना है, जिन्हें जनता ने आकार देने का कार्य किया है। लेखिका ने तेलंगाना राज्य में सरकार द्वारा हिंदी की उपेक्षा पर चिंता व्यक्त की है। वे कहती हैं, ‘मातृभाषा के पश्चात अघोषित रूप से विविधता में एकता के सिद्धांत वाले भारतवर्ष में सार्वजनिक रूप से हिंदी का चलन बढ़े, ताकि हम सात्विक गर्व से अपने राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी का उल्लेख कर सके।’ (पृ. 93)
बारहवें अध्याय ‘तेलंगाना के साहित्यिक क्षेत्र में हिंदी की कवयित्रियाँ’ में लेखिका द्वारा नगरद्वय की हिंदी लेखिकाओं में डाॅ. इंदु वशिष्ठ, प्रो. ज्ञान अस्थाना, डाॅ. प्रतिभा गर्ग, डाॅ राम द्विवेदी, सुषमा वैद्य, सुषम वेदी, ज्योति नारायण, माधवी, पुष्पा वर्मा, मीना मूथा, शशि राय, विनीत शर्मा, सुनीता लूला प्रभृति का परिचयात्मक उल्लेख किया गया है। तेरहवें अध्याय ‘दक्षिण में आंध्र एवं तेलंगाना की हिंदी पत्रकारिता का इतिहास’ में लेखिका ने बहुभाषी तेलंगाना की भारतीय छवि को प्रस्तुत किया है। उन्होंने हिंदी के विकास में पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका का गौरवपूर्ण उल्लेख किया है। लेखिका ने तेलंगाना में पत्रकारिता के युगांतरकारी स्वरूप की गहन समीक्षा की है। इस संदर्भ में आर्यभानु, दक्षिण भारतीय, संगम, डेली हिंदी मिलाप, स्वतंत्र वार्ता तथा शुभ लाभ आदि को उल्लेखित किया है। चैदहवें अध्याय ‘तेलंगाना एवं आंध्र प्रदेश- हिंदी लेखक एवं साहित्यकार’ में आंध्र प्रदेश राज्य के जन्म और आंध्र प्रदेश से तेलंगाना राज्य के जन्म तथा दक्खिनी हिंदी के साहित्य संसार का विस्तृत विवेचन किया है। इस अध्याय में लेखिका का श्रम शोधपरक प्रतीत होता है।
पन्द्रहवें अध्याय ‘तेलंगाना की हिंदी पत्रकारिता में पुरुष पत्रकारों का योगदान’ में पुरुष प्रधान समाज में पुरुष पत्रकारों के कार्य को अलग से रेखांकित किया है। इसी तरह से सोलहवें अध्याय में ‘आंध्र प्रदेश एवं वर्तमान तेलंगाना की महिला पत्रकारों का योगदान’ प्रस्तुत किया है। आधी दुनिया के बौद्धिक कार्य को विशेष संदर्भ इस पाठ में दिया गया है। इस प्रकार यह पुस्तक अपने समग्र स्वरूप में लेखिका डाॅ. अहिल्या मिश्र द्वारा हिंदी भाषा साहित्य की अन्यतम सिद्ध होती है। हिंदी अध्यापक, प्राध्यापक, पाठक वर्ग तथा शोधार्थीगण इस पुस्तक से अवश्य लाभान्वित होंगे। इसी आशा के साथ लेखिका की शोध दृष्टि की सराहना की जानी चाहिए।
समीक्षित पुस्तक
पुस्तक ः तेलंगाना प्रदेश एवं हिंदी की स्थिति
लेखिका ः डाॅ. अहिल्या मिश्र
समीक्षक ः डाॅ.सुषमा देवी
प्रकाशन ः गीता प्रकाशन, हैदराबाद
पृष्ठ ः 256
संस्करण ः 2023
मूल्य ः 399
डाॅ. सुषमा देवी