डाॅ. जी. नीरजा
अहिंसा प्रचंड शस्त्र है। इसमें परम पुरुषार्थ है। यह भीरु से दूर-दूर भागती है, वीर पुरुष की शोभा है, उसका सर्वस्व है! यह शुष्क, नीरस, जड़ पदार्थ नहीं है, यह चेतनमय है। यह आत्मा का विशेष गुण है। आप मानो या न मानो, मैंने इसका वर्णन परम धर्म के रूप में किया है। इसे अपनाकर तो देखिए जरा। मैं इस भारत को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद करना चाहता हूँ। शक्तिशाली करना चाहता हूँ। मैं इस धरती पर ईश्वर का राज चाहता हूँ। एक ऐसी रामराज्य की स्थापना करना चाहता हूँ जिससे मेरे देशवासी आराम से जीवन यापन कर सके। मैं यही चाहता हूँ कि मेरे देश के सभी नागरिक आरामदायक जिंदगी व्यतीत करें। आप सोच रहे होंगे कि मैं कौन हूँ! तो सुनिए, मुझे सब महात्मा कहकर पुकारते हैं। बच्चे मुझे प्यार से बापू कहते हैं। माता-पिता ने तो मुझे मोहनदास नाम दिया। परिवार वाले प्यार से ‘मोहनिया’ बुलाते हैं। जाति के बनिये हैं। गांधी का अर्थ ‘मोदी’ होता है, लेकिन हमारे पूर्वज तीन पीढ़ियों से बनिये का काम नहीं कर रहे हैं। काठियावाड़ के देशी राजाओं के यहाँ दीवान का काम करते आ रहे हैं।
2 अक्टूबर, 1869 को मेरा जन्म गुजरात के पोरबंदर में हुआ। मेरे पिता हैं करमचंद उत्तमचंद गांधी। सब लोग उन्हें काबा गांधी कहकर पुकारते हैं। पिता जी ब्रिटिश राज्य में एक छोटी सी रियासत के दीवान हैं। मेरी माता पुतलीबाई भक्ति भाव युक्त गृहिणी हैं। 14 वर्ष में पदापर्पण करते ही कस्तूर बाई मकनजी से मेरा विवाह संपन्न हुआ। उनका नाम छोटा करके कस्तूरबा कर दिया गया। बाद में सब उन्हें ‘बा’ कहने लगे। हमारा यह विवाह एक तरह से बाल विवाह है, जो समाज में प्रचलित है। जीवन के 19 वें साल में मैं लंदन चला गया बैरिस्टर की पढ़ाई करने के लिए। समुद्र के पार जाना महापाप समझा जाता है। बैरिस्टर पढ़ने के लिए विलायत जाने के कारण मुझे जाति से बहिष्कृत कर दिया गया। जाने से पहले मैंने अपनी माँ को वचन दिया कि वहाँ जाने के बाद भी मैं माँस-मदिरा के सेवन से दूर रहूँगा। इस वचन को मैं आजीवन निभाता रहा। बैरिस्टर बाबू बनने के बाद मैं भरत लौट आया। लौट आने के बाद मुंबई में वकालत करने लगा, लेकिन कोई खास सफलता नहीं मिली। राजकोट में मुकदमे की अर्जियाँ लिखने लगा। लेकिन इसे भी छोड़ना पड़ा। 1893 में एक भारतीय फर्म से नेटाल दक्षिण अफ्रीका में एक वर्ष के करार पर वकालत करना स्वीकार किया। वह ब्रिटिश साम्राज्य का ही भाग था।
दक्षिण अफ्रीका के प्रवास ने मेरा जीवन बदल दिया। वहाँ जाने के बाद मुझे काले और गोरे के भेदभाव का सामना करना पड़ा। प्रथम श्रेणी की टिकट होने के बावजूद मुझे तीसरी श्रेणी में यात्रा करने के लिए मजबूर किया गया। जब मैंने इन्कार किया तो मुझे बेरहमी से ट्रेन से बाहर फेंका गया। इस तरह मुझे अनेक बार शिकार होना पड़ा। मेरे अंदर एक चिंगारी सुलगने लगी। दक्षिण अफ्रीका में मेरे देशवासियों के साथ हो रहे अन्याय को देखकर मेरा खून खौलने लगा। तब मैंने निश्चय किया कि इस शोषण के विरोध में आवाज उठाऊँगा। अपनी स्थिति के लिए प्रश्न करूँगा। अपने देशवासियों को सम्मान दिलाऊँगा।
1901 में मैं भारत लौट आया, लेकिन नेटाल के भारतीयों के कारण मुझे फिर से एक बार वहाँ जाना पड़ा। काले कानून (भारतीयों के लिए पंजीकरण करने वाला विधेयक) के संदर्भ में मुझे संघर्ष करना पड़ा। जून 1914 में उस कानून को वापस लिया गया। 1915 में मैं पुनः भारत लौट आया। लौटने से पहले इंग्लैंड गया था। भारत लौटने के बाद शांतिनिकेतन, हरिद्वार, पूना, मुंबई, राजकोट और पोरबंदर में कुछ समय व्यतीत किया। 25 मई, 1915 को अहमदाबाद में सत्याग्रह आश्रम स्थापित किया। यहाँ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं। सब लोग आपस में मिलजुलकर रहने लगे। हँसी-खुशी समय बिताने लगे, लेकिन जब यहाँ रहने के लिए अछूत परिवार आया तो मुझे और कस्तूरबा को अनेक तरह से कष्ट उठाने पड़े। लोगों ने अपनी असहमति व्यक्त की, लेकिन मैं उस परिवार को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। आर्थिक सहायता बंद हो चुकी। भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं। मुझ पर ऐसा संकट पहली बार नहीं आया था। हर बार अंतिम घड़ी में प्रभु ने मदद भेजी है।
दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद मुझे श्री गोपालकृष्ण गोखले ने परिस्थितियों को दो वर्ष तक मार्गदर्शक के रूप में अवलोकन करने की सलाह दी, लेकिन देश की परिस्थितियों को देखकर मैं अपने आप को रोक नहीं सका। करता तो क्या करता। चंपारन, खेड़ा और अहमदाबाद के स्थानीय सत्याग्रहों में भाग लेने लगा। प्रथम महायुद्ध के बाद राष्ट्रीय नेताओं को यह आशा थी कि युद्ध में दिए गए सहयोग के लिए अंग्रेज शासन भारतीयों को नागरिक सुविधाएँ और अधिकार प्रदान करेगा, लेकिन इसके विपरीत भारत को मिला रोलट एक्ट और जलियाँवाला बाग कांड। यह सब देखकर मैं आंदोलित हो उठा। असहयोग आंदोलन आरंभ करने के लिए मजबूर हो गया। देशवासियों के मन से डर की भावना समाप्त हो चुकी थी। हर भारतवासी के मन में राष्ट्रीय प्रेम और आत्म सम्मान की भावनाएँ जाग चुकी थीं। मैंने इस आंदोलन को अहिंसा के बल पर शुरू किया था, लेकिन सब की आस्था इस अहिंसा पर नहीं थी। चोरी-चोरा नामक स्थान पर हिंसा-कांड हुए। मेरी आस्था टूटी। अनेक बार मुझे जेल भी जाना पड़ा। जेल से छूटने के बाद मैंने यह देखा कि हिंदू-मुस्लिम एक-दूसरे से लड़ रहे थे। सांप्रदायिक दंगों से मेरा मन आहत हो उठा। मैंने यह महसूस किया कि जब देशवासी आपस में एक नहीं होंगे तो हमें गुलामी से मुक्ति नहीं मिलेगी। इसके लिए तो पहले एक ऐसी भाषा की आवश्यकता महसूस हुई जो देश के कोने-कोने के लोगों को आपस में बाँध सके, एक सूत्र में पिरो सके। मैंने सब जगह पैदल ही यात्रा की और मुझे यह विश्वास हो गया कि हिंदी ही वह भाषा है जिसमें सब को जोड़ने की शक्ति है।
1917 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के भरूच अधिवेशन में मैंने यह प्रस्ताव रखा कि हिंदीतर प्रांतों में हिंदी के प्रचार को स्वतंत्रता आंदोलन के अंग के रूप में ही चलाया जाए। 1918 इंदौर में हिंदी साहित्य सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन हुआ। उसमें मुझे सभापति चुना गया। मैंने अपने भाषण में यह कहा कि हिंदी को हमें व्यावहारिक रूप में अपनाना चाहिए। हमें ऐसा उद्योग करना चाहिए कि एक वर्ष में राजकीय सभाओं में, कांग्रेस में, प्रांतीय भाषाओं में और अन्य समाज और सम्मेलनों में अंग्रेजी का एक भी शब्द सुनाई नहीं पड़े। हम अंग्रेजी का व्यवहार बिल्कुल त्याग दें। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनने का गौरव प्रदान करें। हिंदी ही हिंदुस्तानी की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए, क्योंकि मैं यही मानता हूँ कि हिंदी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है। दक्षिण में हिंदी प्रचार-प्रसार के लिए उसी वर्ष मद्रास में दक्षिण भारत हिंदुस्तानी प्रचार सभा की स्थापना हुई। 1927 तक इसका संचालन हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा ही होता रहा। 1927 में इसे दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा नाम से पंजीकृत किया गया।
21 दिसंबर, 1929 को जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन संपन्न हुआ। उसमें पूर्ण स्वराज का संकल्प लिया गया। 26 जनवरी, 1930 को पूर्ण स्वराज्य दिवस मनाया गया। 14 फरवरी, 1930 को साबरमती आश्रम में संपन्न बैठक में अवज्ञा आंदोलन करने का निश्चय किया गया। 12 मार्च, 1930 को मैंने अपने साथियों के साथ दांडी यात्रा शुरू की। 5 अप्रैल को नमक कानून भंग किया। 1931 में इंग्लैंड में संपन्न गोलमेज सम्मेलन में मैंने सभी वयस्कों के मताधिकार की माँग की। यह सम्मेलन एक ढकोसला सिद्ध हुआ। भारत लौटकर 1932 में मैंने सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया। अनेक बार मुझे जेल की यात्रा करनी पड़ी। मैंने अपने सपने को टूटते हुए देखा। 1939 में विश्व दूसरे महायुद्ध से ग्रस्त हो गया। मुझे यह आशा थी कि ब्रिटिश सरकार शीघ्र ही भारत को स्वतंत्र घोषित करेगी, लेकिन वायसराय की घोषणा से मेरी आशा टूट गई। क्रिप्स से बातचीत के बाद 8 अगस्त, 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ। अनेक संघर्षों के बाद अंत में वह दिन आ ही गया- 15 अगस्त, 1947। भारत स्वतंत्र हुआ। खुशी के स्थान पर सब के चेहरे पर मातम छा गया। भारत दो टुकड़ों में बँट गया – भारत और पाकिस्तान। मैंने भारत को सिर्फ और सिर्फ स्वतंत्र देखना नहीं चाहा। मैंने यही चाहा कि हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई सब आपस में मिलजुलर रहेंगे। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है! मैंने जिस भारत का सपना देखा उसमें हिंसा, पक्षपात, भ्रष्टाचार, छुआछूत और अन्याय का कोई स्थान नहीं था। लेकिन मेरा स्वप्न कभी पूरा नहीं हो सका।
अलविदा दोस्तों!
30 जनवरी, 1948
गांधी जी ने जिस रामराज्य को स्थापित करने का स्वप्न देखा, वह स्वप्न बनकर ही रहा गया। भारत भले ही अंग्रेज शासन से मुक्त हुआ, लेकिन आपसी फूट और षड्यंत्रों की गिरफ्त में आज भी है। आज भी गांधी जी का नेतृत्व भारत के लिए चाहिए।