पं. दीनदयाल उपाध्याय: व्यक्तित्व एवं कृतित्व

महान चिन्तक, कर्मयोगी, मनीषी एवं राष्ट्रवादी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय का भारत के राजनीतिक क्षितिज पर उदय एक महत्वपूर्ण घटना थी। वह देश के गौरवशील अतीत से भविष्य को जोड़ने वाले शिल्पी थे। उन्होंने प्राचीन भारतीय जीवन-दर्शन के आधार पर सामयिक व्यवस्थाओं के संबन्ध में मौलिक चिन्तन करके उन्हें दार्शनिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण व्यावहारिक व्याख्यायें दीं। आज के परिप्रेक्ष्य में भी उनके विचार उतने ही प्रासंगिक तथा समाज और देश के समक्ष उपस्थित समस्याओं के समाधान के लिये सुसंगत हैं।
अपने आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विचारों द्वारा पं. दीनदयाल उपाध्याय ने जन-साधारण ही नहीं, बल्कि राजनेताओं तथा विचारकों को भी समान रूप से प्रभावित किया। सरल व्यवहार, सादा जीवन, उच्च विचार तथा कर्मठता की प्रतिमूर्ति पंडित दीनदयाल जी ने अपना सारा जीवन राष्ट्र हित और चिन्तन में लगाया। भारतीय जनसंघ के संस्थापक, डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी तथा विचारक, आचार्य रघुवीर की मृत्यु के बाद आयी रिक्तता को उन्होंने आशा और विश्वास का ज्योति स्तम्भ बनकर पूरा किया। कश्मीर का आन्दोलन हो अथवा किसानों, मज़दूरों का मोर्चा, पंचवर्षीय योजना हो या अन्य कोई कठिन सामाजिक समस्या, पं. दीनदयाल जी ने गम्भीर और सारगर्भित विचार-मन्थन द्वारा जीवन पर्यन्त देश का मार्ग-दर्शन किया।
अपना सम्पूर्ण जीवन निःस्वार्थ भाव से राष्ट्र की सेवा में अर्पित करने वाले पंडित दीनदयाल जी का लक्ष्य राष्ट्र को राजनीतिकरण दृष्टि से सुदृढ़, सामाजिक दृष्टि से उन्नत तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध करना था। सच्चे भाव से राष्ट्र की सेवा करने के कारण वह एक दल के ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण देश के लिये माननीय थे। भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी गहरी आस्था सर्वविदित है। राजनीति के क्षेत्र में कार्य करतेे हुये भी वह सदैव छल-प्रपंच से दूर हरे और देश की नयी पीढ़ी के राजनीतिज्ञों के प्रेरणास्रोत बने। वह सदैव मूल्याधिष्ठापित राजनीति के प्रबल पक्षधर थे।
राजनीति तथा सामाजिक चेतना के साथ-साथ उपाध्याय जी की साहित्यिक प्रतिभा भी अनोखी थी। फुर्सत के क्षणों में अनेक विषयों पर लेख लिखने के कारण उनकी लेखन प्रतिभा का आभास उनके निकट सहयोगियों को हुआ और उन्होंने पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने सम्राट चन्द्रगुप्त की जीवनी लिखने का अनुरोध किया। पंडित जी ने प्रातःकाल के सांयकाल तक चुनार में एक घर के अन्दर बैठकर पूरी पुस्तक लिख डाली। यह पुस्तक इतनी लोकप्रिय हुई कि देश की अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ और दीनदयाल जी एक सफल साहित्यकार के रूप में उभरे। उन्होंने पत्रकारिता तथा साहित्य पूजन का कार्य भी सफलतापूर्वक किया। ‘‘राष्ट्रधर्म’’ तथा ‘‘पांचजन्य’’ जैसे लोकप्रिय पत्रों का सम्पादन किया और 1947 में राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड के संस्थापक रहे। कालान्तर में दीनदयाल जी ने दैनिक ‘‘स्वदेश’’ का भी प्रकाशन प्रारम्भ किया।
भारत विभाजन के बाद देश की आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक एवं औद्योगिक क्षेत्रों में गिरावट के कारण नये राजनीतिक नेतृत्व की आवश्यकता महसूस की गयी। इस आवश्यकता के अनुरूप महान राष्ट्रवाद, डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में अखिल भारतीय जनसंघ की स्थापना की प्रक्रिया आरम्भ होने पर पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 21, 1951 लखनऊ में प्रादेशिक सम्मेलन बुलाकर प्रदेश जनसंघ की नींव डाली। डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में 21 अक्तूबर, 1951 को दिल्ली में अखिल भारतीय जनसंघ की स्थापना के बाद दीनदयाल जी के प्रयासों से 1952 में कानपुर में जनसंघ का प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन आयोजित किया गया।
संगठनात्मक कुशलता के कारण पंडित दीनदयाल जी को कानपुर अधिवेशन में अखिल भारतीय जनसंघ का महामंत्री पद सौंपा गया। उन्होंने इस दायित्व का निर्वाह 1967 में कालीकट में सम्पन्न पार्टी के अधिवेशन तक किया। पार्टी को मजबूत बनाने में अहम् भूमिका निभाने के लिये पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी को 1967 के अन्त में भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष चुना गया।
तत्कालीन सरकार द्वारा 1948 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबन्ध लगाने के साथ ही प्रमुख नेताओं के विरुद्ध दमनात्मक कार्रवाई आरम्भ हुई और दीनदयाल जी द्वारा संचालित सभी समाचार-पत्रों का प्रकाशन बन्द कर दिया गया। उस समय उपाध्याय जी ने अपनी कुशाग्र बुद्धि का परिचय देते हुये अख़बार के स्थान पर दूसरे समाचार-पत्रों का प्रकाशन आरम्भ कर अपनी बात पाठकों तक पहुँचायी। ‘पांचजन्य’ बन्द होने पर उन्होंने ‘‘हिमलाय’ पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया और हिमालय पर प्रतिबन्ध लगने पर ‘देशभक्त’ का प्रकाशन प्रारम्भ कर दिया।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारतीय संस्कृति, अर्थशास्त्र तथा राजनीति के प्रकाण्ड पंडित थे। इन विषयों पर उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक तथा भारतीय परिवेश के अनुरूप हैं। निर्धन एवं गरीबों के लिये अन्त्योदय जैसे कल्याणकारी कार्यक्रम उन्हीं के आर्थिक चिन्तन पर आधारित हैं। अपने आर्थिक चिन्तन की व्याख्या उन्होंने इस प्रकार की है-‘आर्थिक योजनाओं तथा आर्थिक प्रगति का माप समाज के ऊपर की सीढ़ी पर पहुँचे व्यक्ति से नहीं, नीचे स्तर पर विद्यमान व्यक्ति से होगा। आज देश में ऐसे करोड़ों मानव हैं, जो मानव के किसी भी अधिकार का उपभोग नहीं कर पाते। शासन के नियम और व्यवस्थायें, योजनायें और नीतियां, प्रशासन का व्यवहार और भावना इनको अपनी परिधि में लेकर नहीं चलती, प्रत्युत उन्हें मार्ग का रोड़ा ही समझा जाता है। हमारी भावना और सिद्धान्त है कि वह मैले-कुचैले, अनपढ़, सीधे-सादे लोग हमारे नारायण हैं। हमें इनकी पूजा करनी है। यह हमारा सामाजिक एवं मानव धर्म हैं जिस दिन इनको पक्के, सुन्दर घर बनाकर देंगे, जिस दिन हम इनके बच्चों और स्त्रियों को शिक्षा और जीवन-दर्शन का ज्ञान देंगे, जिस दिन हम इनके हाथ और पांव की बिवाइयों को भरेंगे और जिस दिन इनको उद्योगों और धन्धों की शिक्षा देकर इनकी आय को ऊँचा उठा देंगे, उस दिन हमारा भ्रातृभाव व्यक्त होगा। ग्रामों में जहाँ समय अचल खड़ा है, जहाँ माता और पिता अपने बच्चों के भविष्य को बनाने में असमर्थ हैं, वहाँ जब तक हम आशा और पुरुषार्थ का सन्देश नहीं पहुँचा पायेंगे, तब तक हम राष्ट्र को जागृत नहीं कर सकेंगे। हमारी श्रद्धा का केन्द्र, आराध्य और उपास्य, हमारे पराक्रम और प्रयत्न का उपकरण तथा उपलब्धियों का मानदण्ड वह मानव होगा, जो आज शब्दशः अनिकेत और अपरिग्रही है।’
विश्व भरे में चलने वाले आज के सभी राजनैतिक, सामाजिक तथा आर्थिक अधूरे ‘वादों’ (इज्मस) के ऊपर उठकर उन्होंने एक अनूठे, मौलिक एवं सर्वांगपूर्ण ‘‘एकात्म मानववाद’’ की अभिनव और व्यावहारिक परिकल्पना दी, जिसमें मानव के सर्वांगीण विकास पर विशेष बल दिया गया है। उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि कैसे ‘नर’ से ‘नारायण’ बनने के सोपान तय किये जा सकते हैं।
पंडित दीनदयाल जी देश की एकता और अखण्डता की रक्षा के प्रति पूरी तरह समर्पित थे। उन्होंने अपने जीवन के हर क्षण को समाज सेवा में लगाया। उन्होंने परिस्थिति में पराजित होकर सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया। निडर स्वभाव, मधुरवाणी किन्तु विचारों की दृढ़ता के धनी पंडित दीनदयाल के संघर्षपूर्ण जीवन में सदैव कर्म की श्रेष्ठता को स्थापित किया। उन्होंने व्यक्तिगत सुख-सुविधा की कभी भी परवाह नहीं की। वह सच्चे अर्थों में कर्म योगी थे। ऐसे महामानव को मैं आदर के साथ स्मरण कर श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। उनके जीवन, आदर्शों और सिद्धांतों से प्रेरणा प्राप्त कर तथा उनके दिखाये मार्ग का अनुसरण करके हम भारत को एक महान एवं गौरवशाली राष्ट्र बनाने में सफल हो सकेंगे।
स्रोत- उत्तर प्रदेश सन्देश (सितंबर 1991)

कल्याण सिंह (पूर्व  मुख्यमंत्री उ.प्र.)

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