यशवंत सिंह, जिस वैचारिक सत्ता की विरासत हैं, उसने भारतीय राजनीति में बेखौफ़ इंदिरा की तानाशाही का विरोध किया था

@अरविंद सिंह
जिस कालखंड में हमारी पीढ़ी की सियासी समझ और राजनीतिक चेतना का विस्तार हो रहा था, और नेताओं के दृश्य और अदृश्य चुंबकीय व्यक्तित्व एवं आभा मंडल के ज़द में जाने का दौर,एक परंपरा का रूप लेता जा रहा था। जिस व़क्त जेपी की ख़ुमारी और नशे के भावनात्मक वाष्प में पिघलती भारतीय राजनीति की नर्सरी में नई कोपले फूंट रहीं थीं।
इंदिरा का सियासी सूरज चढ़ाई पर था और उनकी सियासी ताकत का चरमकाल उन्हें एक देश का पर्याय बनाता जा रहा था। लोग ये कहना शुरू कर दिए थे कि -इंदिरा भारत बन चुकीं हैं और भारत का मतलब इंदिरा हो चुका है।’
आपातकाल इंदिरा की ताकत और तानाशाही का आखिरी सबसे कठोर निर्णय था और इस निर्णय के विरुद्ध इंदिरा के बेहद करीबी रहे युवातुर्क चंद्रशेखर ने तानाशाही के विरुद्ध जेपी का साथ देना उचित और जनतांत्रिक समझा, इंदिरा का नहीं। लिहाजा पूरा देश जेलखानों में तब्दील होता चला गया। बोलने, लिखने और सोचने के माध्यमों पर सरकारी पहरा लग गया, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र, अपने सबसे विकृत स्वरूप को प्राप्त हो चुका था। सभी बड़े नेता और जनतांत्रिक व्यवस्था जेल में थी या फिर शांत थीं। ऐसे समय में चन्द्रशेखर,जेपी के बाद, युवाओं की पहली पसंद बन चुके थे। और देश का हिंदी पट्टी का युवा, विशेषकर उत्तर प्रदेश के पूर्वी पट्टी का, उनमें अपना आदर्श और भविष्य देख रहा था। क्योंकि वे व्यक्ति नहीं वैचारिक संस्था बन चुके थे। एक नायक के रूप में चद्रशेखर बहुतों के दिलों दिमाग में जम चुके थे।
चंद्रशेखर के उसी नायकत्व के आभा मंडल में एक गाँव से निकला युवा, उनमें अपना आदर्श और गाडफादर देख रहा था। और मन ही मन उनके विचारों को आत्मसात कर रहा था। चंद्रशेखर के हजारों शिष्यों में से यह युवा,समय की रेखा पर भीड़ से अलग उनके विचारों और राजनीतिक परंपराओं का वाहक बनता गया और जब देश में आपातकाल थोपा गया तो यह युवा इसके विरोध में आवाज उठा, आजमगढ़ जेल भेज दिया गया।जहाँ वह चंद्रशेखर के विचारों का विस्तारक बन गया। आज वही युवा, उत्तर प्रदेश विधान परिषद का सदस्य रहा और 68 साल के अनुभव से पका उत्तर प्रदेश की संसदीय राजनीति का कुशल चितेरा है। नाम है यशवंत सिंह और कर्म है सियासत को माध्यम बनाकर लोगों के जीवन में परिवर्तन लाना। लोगों की सेवा करना।
आज यशवंत सिंह का जन्मदिन है और सियासत में अपनों की मदद करने का जज़्बात तथा दलीय बंधन से ऊपर समाजवादी जमीन से विचारों का प्रवाह, उन्हें हमारे समय के सियासतदांओं से अलग बनाता है। 80के दशक में जब समाज और सियासत में तेजी से बदलाव महसूस किया जा रहा था और लोग आत्मनिष्ठ तथा आत्मकेंद्रित होते जा रहे थे। उस समय यशवंत सिंह इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरा कर रहे थे। और इस काबिलियत के बल पर नौकरी करके अच्छी सेवा में जा सकते थे। पूरा अवसर और परिवेश था, लेकिन यशवंत ने ऐसा नहीं किया, बल्कि जन पीड़ा और चंद्रशेखर का तूफा़नी व्यक्तित्व उन्हें लोगों की आवाज और जनसेवक बनने को प्रेरित किया। फिर क्या यशवंत सिंह, चंद्रशेखर को नेता मानकर सियासी मैदान में उतर गयें। जनता पार्टी में जुड़कर सियासत के नये क्षितिज की ओर निडर बढ़ते चले गये। पार्टी के युवा शाखा से जुड़कर, जब इस युवा ने हुंकार भरी तो बहुतों की तंद्रा भंग हो गयी। पहली बार सन1989 में आजमगढ़ के मुबारकपुर विधानसभा क्षेत्र से देश की सबसे पुरानी और बड़े, सूबाई पंचायत में पहुंचे तो जनता में अपने नेता के प्रति एक प्रेम का उन्माद सा दिखा।
बताते हैं कि यशवंत सिंह ने अपनी राजनीति के शुरूआती दिनों में जितना पैदल अपने विधानसभा क्षेत्र में घूमें, उतना शायद ही कोई पैदल टहला होगा। उनके पुराने साथी और अभिन्न सहयोगी, जो अब इस दुनिया में नहीं है रघुपति सिंह ने कभी इस पंक्तिकार से कहाँ था कि ‘-यशवंत सिंह इतना पैदल जनसंपर्क किया करते थे कि एक चप्पल एक दिन में टूट जाती थी। लोग थक जाते थे लेकिन यशवंत सिंह नहीं थकते थे। एक पुरानी स्कूटर, जिसका चालक रहा भानु जो आज भी होमगार्ड की नौकरी करते हैं बताता है कि-‘ नेताजी को लेकर हम क्षेत्र भर घूमते थे। रात में जहाँ भी देखते कि कोई बत्ती जल रही है। वहाँ पहुंच जाते, परिचय बताते और फिर भोजन और सोने की व्यवस्था वहीं होती। वह दौर आज के दौर से बिल्कुल अलग था। तब लोगों में प्रेम और समर्पण के भाव प्रबल थे, पैसे का कीमत आदमी से ज्यादा नहीं था।’
यशवंत उत्तर प्रदेश की बसपा सरकार में राज्यमंत्री भी रह चुके हैं और दो बार विधायक तथा समाजवादी पार्टी से लगातार तीर बार विधान परिषद सदस्य तथा भाजपा से एमएलसी रहें हैं। लेकिन यशवंत इससे भी बड़े एक ऐसे नेता हैं जो बिना किसी भेदभाव के लखनऊ के दारूलशफा आवास के पास ‘चंद्रशेखर चबूतरे’ पर बैठते हैं,लोगो को सुनते हैं। और शाम को उनकी भोजन और सोने की व्यवस्था भी करते हैं,बिना यह पूछे और जाने कि आने वाला व्यक्ति उनके क्षेत्र और जिले का है या नहीं। यह गुण उनमें, उनके सियासी गाडफादर चंद्रशेखर से आता है। चंद्रशेखर ने पदयात्राएं की और वे अपने दिल्ली स्थित आवास पर लोगो को भोजन के लिए पूछते और सेवा भी करते थे। आज उन्हीं के नाम पर उन्हीं को समर्पित ‘चंद्रशेखर स्मारक ट्रस्ट’ आजमगढ़ के रामपुर गाँव में स्थापित कर चंद्रशेखर की विरासत और अनुभवों संजोने का काम कर रहे हैं। जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएँ नेता जी। आप शतायु हों!
अरविंद सिंह
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक है)

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