
पुस्तक समीक्षा
मनुष्य के सूक्ष्म मनोविज्ञान ,राजस्थान की सुगंध और किसी भी व्यक्ति की विविध परिस्थितियों को लिए हिन्दी संस्मरण विधा का एक मर्मस्पर्शी संग्रह ‘रोही की रोजड़ी’ जून,2025 में प्रकाशित हुआ है। लेखिका हैं संतोषी।
एक कौतूहल हैं ‘रोही’ और ‘रोजड़ी’ ! ये हिन्दी विशेष के पाठकों के लिए अपरिचित शब्द हैं। समीक्षक को स्वयं इनके अर्थ लेखिका से पूछने पड़े। रोही—जंगल और रोजड़ी—नीलगाय ! संग्रह में ‘रोही की रोजड़ी’ दो बार प्रयुक्त हैं– एक, संस्मरण ‘रोही की रोजड़ी’ में ही और दूसरा,संस्मरण ‘मन्नी माई’ में, परंतु अपना विशेष अर्थ यह पहले संस्मरण में ही उपस्थित करता है –”मैडम जी ! यह भी किसी का बेटा है। फिर म्हारो काँई। म्हे तो रोही में रमेड़ी रोजड़ी हा। रोज या पगथल्या बीच जाणे कितना काँटा आर-पार होवे। और जाणे कितनाक भूँटा होवे है।” रमकी, एक जीता-जागता चरित्र ; एक ग्रामीण और निर्धन स्त्री, जो एक बच्चे को बचाने के लिए जोहड़ में उतर जाती है, उसे बचा लाती है। रमकी का कुछ दिनों पूर्व ही ऑपरेशन हुआ था। ऐसे अनेक सच्चे पात्र लेखिका ने अपने इन संस्मरणों में पिरोये हैं, जो एक शिक्षिका के रूप में कार्य करते हुए उन्हें मिले।
संतोषी की विशिष्टता उनका चिंतन है ! प्रत्येक संस्मरण में वे अपने चिंतन के प्रतिफल में प्राप्त दर्शन की लिखती हैं, जो सूक्तियों में हमारे समक्ष आता है। संस्मरण ‘वे दस दिन’ में वे लिखती हैं–”रिश्ते चाहे पहचान के हों या फिर अजनबी , ये सच्चे प्रेम से बुने होते हैं। जो छलावे रहित दूध जैसी प्रकृति लिए होते हैं। ज़रा-सी छल रूपी छाँछ की एक बूंद मात्र से वे फट जाएँ। मिठास के साथ बनने वाले मट्ठे व मक्खन के गुण को ख़त्म कर देती हैं।”
संतोषी अपने संस्मरणों में राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों के जीवन, उनकी भाषा ,उनके सुख दुःख, उनके सहयोगी स्वभाव सब कुछ को प्रस्तुत करती हैं। उन पात्रों के लिए उन्होंने उन्हीं की भाषा राजस्थानी को लिया है और अपने लिए हिन्दी को। राजस्थानी के अनेक शब्द हिन्दी के पाठकों के लिए अपरिचित हो सकते हैं, लेकिन लेखिका ने संस्मरण इतनी सजीवता तथा भावुकता से लिखे हैं कि अगला शब्द आते-आते पाठक को पिछले अपरिचित शब्द के अर्थ का बोध हो जाता है। वे मनुष्य की सच्चाई को अंततः एक आदर्श के साथ प्रकट करती हैं । प्रायः प्रत्येक संस्मरण में वे भावों का ऐसा ,आत्मा को स्पर्श करने वाला, शब्द सौंदर्य प्रकट करती हैं कि आंखें नम हो जाती हैं, यह लेखन शक्ति अब कम ही लेखकों के पास है !
संतोषी एक उदात्त लेखिका हैं। उनके इन संस्मरणों में अनेक सामान्य , निर्धन और ऐसे लोग भी आये हैं, जो दुनिया की सच्चाई की दृष्टि से अनमोल और प्यारे हैं , तो इन्हीं संस्मरणों में से एक महान् लेखक बिज्जी भी हैं। हिन्दी के पाठक उन्हें श्री विजयदान देथा के नाम से जानते हैं।
अपने सच और गंभीरता में इन संस्मरणों में अनेक स्थानों पर भोला हास्य भी है, जो शिष्टता से हमारे समक्ष आता है। संस्मरण ‘सिलेंडर,’ एक मकान का किस्सा , जिसमें कई लोग किराये पर रहते हैं। मकान में सुर्रर्रर्रर्रर्रर्रर … की आवाज से अन्य लोगों को लगता है किसी का सिलेंडर आवाज कर रहा है। लेखिका बाथरूम में नहाने गयी। अब अंश देखिए –
” मैडम जी , जल्दी बाहर आओ,मकान में सिलेंडर फटने वाला है।”
” किसके रूम का ?….”
इन संस्मरणों की लेखिका एक संवेदनशील कवयित्री भी हैं, जिसका प्रभाव संग्रह के अंतिम संस्मरण ‘बारिश’ में बहुत सुंदर और काव्यात्मक रूप में है। एक अंश द्रष्टव्य है –
“यह देख। अब बूँद नहीं, सच में बारिश बरसेगी। और देखना बारिश की बादली जब भी उमड़ेगी, तुम्हारे ना कहने से अब पहले की तरह बिन बरसे नहीं जाएगी। बल्कि बरसेगी।”
“राजस्थान सरकार ने भर्तियाँ खोल दी हैं।” हाथ में अखबार दिखाते हुए कह रहे थे, “यह देखो। शिक्षक भर्ती के लिए राजस्थान लोक सेवा आयोग परीक्षा आयोजित करवाएगा।” यह पूरा संस्मरण बारिश और नौकरी पर पति पत्नी के संवादों का है, जो अप्रतिम है और रोचक भी !
लेखिका शिक्षिका हैं, इसलिए अनेक संस्मरण उनके शिक्षण के स्थानों के हैं। लेखिका ने किस प्रकार बांगड़ों की ढाणी में व्यक्तिगत प्रयासों ने ना केवल शिक्षकों के प्रति उनके टूट चुके विश्वास को जोड़ती हैं, वरन् उस क्षेत्र में एक विद्यालय की स्थापना भी करवाती है, इसका उल्लेख संस्मरण ‘विद्यालय भवन’ में है, जो अत्यंत प्रेरक है।
संस्मरणों की प्रस्तुति अत्यंत स्वाभाविक है।लगभग पाँच दशक पूर्व तक की स्मृतियों से आज तक की स्मृतियों को लेखिका ने सजीवता से प्रस्तुत किया है। इन्हें ‘कथेतर’ लिखने की अपेक्षा, यदि ‘संस्मरण’ ही लिखा जाता, तो अधिक ठीक था। लेखन में विराम चिह्नों की महत्ता है, लेखिका इस दृष्टि से विचार कर सकती हैं या ऐसा हो सकता है कि वह उनके कहने की विशिष्ट शैली हो ! उर्दू के शब्दों की वर्तनी, विशेषतः नुक्ता को लेकर सावधानी अपरिहार्य है ! पूरे संग्रह में प्रूफ की त्रुटियां नहीं हैं, यह बड़ी बात है ! लेखिका के पास सशक्त भाषा और शैली हैं, जो ईश्वर प्रदत्त हैं। वे सोचकर नहीं लिखतीं ; जो लिखती हैं, वह पूर्णतः विचारित होता है ; आवश्यक नहीं उसी समय का ; जाने कितने जन्मों का , उनका यह गुण उनके संस्मरणों को उच्च स्तर प्रदान करता है। इन संस्मरणों का समग्र कथ्य राजस्थान की माटी की वे आवाज़ें भी हैं, जो प्रायः मौन रह जाती हैं ; बिना स्त्री विमर्श पर चिल्लाए स्त्री विमर्श भी है और सबसे बड़ा तथा अनुकरणीय है इनका सच्चा होना, सबसे जुड़े तो ये हैं ही ! अनेक सुंदर सूक्तियां, जो लेखिका के जीवन का निष्कर्ष हैं, स्थान- स्थान पर हैं ।
इस संग्रह में संतोषी के 28 संस्मरण संग्रहित हैं। ये संस्मरण लेखिका की लघु आत्मकथा भी हैं और विराट सामाजिक स्थितियों का सशक्त आंकलन भी ! गांभीर्य इतना कि इधर हिन्दी साहित्य में विविध विमर्शों के नाम पर जो छिछलापन आ गया था, उसकी क्षतिपूर्ति यह संस्मरण संग्रह अकेला ही करता है, पाठक इस तक पहुंचे बस !
संग्रह का आवरण चित्र संग्रह के समग्र कथ्य को बहुत सुंदरता से प्रकट करता है।
हिन्दी के वे पाठक,जो गंभीर और प्यारे संस्मरणों का अभाव लंबे समय से अनुभव कर रहे हों, संतोषी के संस्मरण-संग्रह ‘रोही की रोजड़ी’ को निर्द्वंद्व होकर ख़रीद सकते हैं !
संस्मरण-संग्रह ‘रोही की रोजड़ी’ हिन्दी संस्मरण विधा का एक महत्त्वपूर्ण संग्रह है !
* समीक्षित पुस्तक : रोही की रोजड़ी ( कथेतर )
संस्मरण-संग्रह
* लेखिका : संतोषी
* आवरण : अनुप्रिया
* संस्करण : प्रथम , जून, 2025
* मूल्य : ₹ 250/-
* प्रकाशक : वेरा प्रकाशन, जयपुर
* समीक्षक : डॉ. सम्राट् सुधा
रुड़की, उत्तराखंड
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