कुमार कृष्णन
आत्मा के उजास में सच को देखने और अभ्युदय का नया अध्याय रचने वाले मोहनदास करमचन्द्र गांधी का जीवन भारतीय जीवन मूल्यों में रची-बसी भरी-पूरी संस्कृति का आदर्श रहा है।स्वाधीनता के इस नायाब शिल्पी की शख़्सियत संवेदना के उन सूत्रों में गुंथी है, जहाँ मन के अथाह में शब्द, स्वर, रंग, लय और गतियों के आरोह-आरोह भी उन्हें आन्दोलित करते रहे। कलाओं से बापू के प्रगाढ़ प्रेम के अनेक क़िस्से है। गुलामी के खिलाफ़ पूरे हिन्दुस्तान को लामबंद करने वाले इस नायक को जितनी बार देखो, हर बार एक नया अक्स नुमाया होता है।
ये सच है कि महात्मा गांधी कला और कलाकारों को जीवन दर्शन के आधार पर पहचानते थे, ‘‘कला कला के लिए’’ इस उक्ति में उनका विश्वास नहीं था। गांधीजी प्रकृति की विराट सुंदरता और उसके वैश्विक प्रभाव का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि सच्ची कला वही है, जिसे लाखों लोग देखें, समझें और उससे आनंद पा सकें. यानी कला जनोन्मुखी हो और आनंदित करती हो।अपने फकीरी लिबास और कृशकाय शरीर के बावजूद गांधीजी दुनिया भर के चित्रकारों और छायाकारों के लिए आकर्षण का केन्द्र थे।वे कला को बहुत गहरे समझते थे और उसे मनुष्य की आत्मा और उसके बाहरी व्यक्तित्व के बीच एक समन्वय के रूप में देखते थे।
इतिहास गवाह है कि स्वाधीनता आंदोलन के दौरान स्वदेशी आंदोलन को और अधिक प्रभावशाली बनाने में कलाकारों ने अपना बड़ा योगदान दिया. कला की केन्द्रीय पहचान महात्मा गांधी और नेहरू जी के चित्र थे।विदेशी चित्रकार भी आंदोलन के दौरान गांधीजी की विभिन्न छवियों और ऐतिहासिक पलों को चित्रांकित कर रहे थे।गांधीजी अपने व्यस्तता के बावजूद इन चित्रकारों को समय देते थे। नंदलाल बसु ने अपने संस्मरण में लिखा कि ‘महात्मा गांधी’ हम जैसे चित्रकार तो नहीं है- किंतु मैं उन्हें सच्चा कलाकार मानता हूं क्योंकि उन्होंने अपने अलावा, अपने आदर्शों के अनुरूप अन्य लोगों को गढ़ने में कौशल दिखाया है।
गांधीजी कलाकारों का बहुत सम्मान करते थे किंतु वे कला में आध्यात्मिक ऊंचाइयों और गहन आस्था के दर्शन चाहते थे।
मन-आत्मा और शरीर एक होकर प्रगट हों, बापू की यही कामना रही।
देश और दुनिया में प्रसिद्ध कलाकारों में आचार्य नंदलाल बोस का नाम शुमार किया जाता है, जिनमें गांधीवादी कला दृष्टि थी। स्वयं महात्मा गांधी ने इनके चित्रों के तारीफ का है। नंदलाल बोस महात्मा गांधी का लाइफ साइज रेखाचित्र बनाया, जो बहुत प्रसिद्ध हुआ। गांधी जब दंडी यात्रा को निकले तो उनके हाथ में लाठी और वे सुदृढ़ कदमों से आगे बढ़ते गए। नंदलाल बोस के बनाए रेखाचित्र में निरंतर बढ़ते गांधी जी, उसमें बहुत विराट लगते हैं।
उसमें गांधी के देह से अधिक तेजोदीप्त आत्मा का चित्रण हुआ है। महात्मा गांधी ने नंदलाल बसु के बारे में कहा था कि-‘‘नंदलाल बसु ने मेरी कल्पना को साकार कर दिया है।वे सृजनात्मक कलाकार हैं, भगवान ने मुझे कला का विवेक तो दिया है, लेकिन इसे मूर्त रूप देने का कौशल नहीं दिया है़’’ भारतीय स्वाधीनता और स्वदेशी आंदोलन के प्रति अटूट आस्था रखनेवाले नंदलाल बोस मिट्टी के रंगों और हाथ से बने नेपाली कागज का इस्तेमाल करते थे। उनके बनाए हजारों चित्रों के अलावा उन्होंने शांतिनिकेतन में जो भित्तिचित्र बनाए। वे मिट्टी के साधारण रंगों से ही बने हैं, पर अनगिनत भाव अज भी व्यक्त करते हैं।
शताब्दी के पूर्वार्ध में राष्ट्रीय आंदोलन ने नंदलाल बसु जैसे महान कलाकार भारत में पैदा किए। वे दोनों एक दूसरे महान कलाकार अवनींद्र नाथ ठाकुर के शिष्यों में थे। नंदलाल बसु उस कला आंदोलन की देन थे जो देशभक्त की तरह सोचता, समझता और काम करने की इच्छा से प्रेरित था।
नंदलाल बसु की दृष्टि उनको महात्मा गांधी के बहुत निकट लाई। कहा जाता है कि महात्मा गांधी के संपर्क में आने के बाद नंदलाल बसु की कला में एक नया मोड़ आया। राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत बसु ‘असहयोग आंदोलन’, ‘नमक-कर विरोध आंदोलन’ आदि में सक्रिय भूमिका में थे। आज़ादी की लड़ाई के दौरान पारंपारिक और राष्ट्रीय अवधारणाओं के मेल से जो आधुनिक अवधारणाएँ संकल्पित हुई थीं, उनका प्रभाव तत्कालीन कलाकारों की कला में आ रहा था। हाशिए पर रख छोड़ी गई स्त्रियों की क्षमता और शक्ति को गांधी जी ने पहचाना और आज़ादी की लड़ाई में उसका सदुपयोग किया। नंदलाल बसु के हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में बनाए एक विशेष पोस्टर शृंखला में औरत की आध्यात्मिक शक्तियाँ चित्रित हुईं थीं।
दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद गांधी 1915 में कुछ समय के लिए शांति निकेतन में ठहरे थे जहाँ उनकी भेंट रवींद्रनाथ टैगोर से हुई थी। ‘मैं ऐसा साहित्य और ऐसी कला चाहता हूँ जिसमें करोड़ों लोगों से संवाद की संभावना हो।’ यह महात्मा गांधी का कला दर्शन था।
नंदलाल बोस कहा करते थे, कि बापू सभी कलाकारों के लिए एक प्रेरणा थे। उन्होंने गांधी को आदर्श मानते हुए उनकी यात्रा की चित्रकारी की थी। ‘दांडी मार्च’ नामक यह चित्र 1930 में बनाया गया था। यह तस्वीर दिल्ली में “नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट” में स्थायी रूप से प्रदर्शन पर है। वर्ष 1930 में बनाई गई यह पेंटिंग आज दिल्ली में स्थित “नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट” का हिस्सा है। इस पेंटिंग को नंद लाल बोस ने बनाया है। गाँधी ने गुलामी के दिनों में अंग्रेजों के खिलाफ दांडी मार्च निकालकर विरोध प्रदर्शन किया था।1930 के प्रसिद्ध दांडी मार्च की शुरूआत और महात्मा गांधी की अगुवाई शुरु किया गया था जिसे चित्रकार ने काले और सफेद रंग में चित्रित किया है। यह छवि आधुनिक भारतीय कला का एक अद्भुत उदाहरण है।
नंद लाल बसु की कला की सारी प्रेरणा भारतीय संवेदना की प्रतीक थी। 1936 में महात्मा गांधी अपने विचारों को फलितार्थ देखना चाहते थे। इसलिए अखिल भारतीय कांग्रेस के अधिवेशन में ग्रामीण कला और क्राफ्ट की एक कला प्रदर्शनी लगवाई गई थी। परिकल्पना गांधी की थी और नंदलाल बसु ने उसे साकार किया था। महात्मा गांधी ने उस अधिवेशन के पहले नंदलाल बसु को सेवाग्राम में बुलवाया और अपना दृष्टिकोण समझाया। हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में भी इसी प्रकार की प्रदर्शनी की रचना हुई थीं। दोनों ही जगहों पर गांधीवादी कला दृष्टि अभिव्यक्त हुई। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि उन प्रदर्शनियों की कोई निशानी बची नहीं है।
कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में नंदलाल बसु और यामिनी राय, दोनों ने मिलकर कुछ म्यूरल बनाए थे।
दूसरे और तीसरे दशकों में नंदलाल बसु और बंगाल स्कूल के अनेक कलाकारों को गांधीवादी अवधारणाएँ प्रिय रहीं।
कलागुरु अवनीन्द्रनाथ ठाकुर,अनन्य प्रेरक रविन्द्रनाथ ठाकुर और प्रख्यात चित्रकार गगनेन्द्रनाथ ठाकुर के सानिध्य में अपनी कलाचर्या में निरंतर गतिशील एवं सक्रिय नंदलाल ने अपनी परंपरा और धरोहर की श्रेष्ठता को आनिवार्य रूप से ध्यान में रखा और उपादानों तथा उपस्करों का आवश्यकतानुसार उपयोग भी किया,जिनमें भारतीय समाज को नित्यनूतन एवं प्रासंगिक बनाए रखने की क्षमता थी। उनके असंख्य चित्रों में आख्यानों, प्रारूपों,प्रतीकों, चिन्हों,रूपकों के साक्षात्कार होते हैं,जिनके ताने—बाने से भारतीय कला की पहचान बन चुकी है। यह उत्कर्ष तक गयी। नंदलाल बोस की कला साधना भारतीय कला आंदोलन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व है। बिहार के एक मुंगेर के हवेली खड़गपुर 3 दिसम्बर 1882 का जन्मे, पले-बढ़े नंदलाल बोस काल अध्ययन के लिए कोलकाता आए और फिर सारे कला जगत के होकर रह गए।
जिस दौर में नंदलाल बोस कोलकाता आए उस दौर में राजनीतिक परिदृष्य तनावपूर्ण थे। जब सोसाइटी द्वारा संचालित आट्स स्कूल में पाश्चात्य चित्रण पद्धति पर अकारण जोर दिया जाने लगा। रवीन्द्र नाथ के भतीजे गगनेन्द्रनाथ टैगोर ने इस पाठ्यक्रम का निर्धारण किया था और पाश्चात्य शैली के प्रशंसक होने के नाते वे इसमें किसी हेर फेर के लिए कतई तैयार नहीं थे। सन 1919 में इण्डियन सोसायटी ऑफ ओरियन्टल आर्ट स्कूल से नंदलाल बोस ने स्वयं को अलग करने का निश्चय कर लिया।
भारतीय कला एवं कलाकारों को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से ‘गगेन्द्रनाथ ठाकुर‘ ने ‘ई.वी. हैवल‘ एवं सर जॉन बुडराॅफ के सहयोग से सन् 1907 में कलकत्ता में ‘इण्डियन सोसायटी ऑफ ओरियन्टल आर्ट‘ की स्थापना की, जिसके प्रथम संचालक ‘लार्ड किचनर‘ थे। सोसायटी के लगभग 35 सदस्यों में से ज्यादातर अंग्रेज ही थे। सन् 1908 ई. में संस्था ने एक चित्र प्रदर्शनी का आयोजन किया, जिसमें ‘अवनीन्द्रनाथ‘ ‘गगेन्द्रनाथ‘, ‘नन्दलाल बोस‘, ‘शैलेन्द्र नाथ डे‘, ‘के. वैकटप्पा‘ आदि के कार्यों की प्रशंसा विदेशी तथा भारतीय विद्वानों ने की। सन् 1919 ई. में ‘ओ.सी. गांगोली‘ के संपादन में कला-पत्रिका ‘रूपम‘ का प्रकाशन किया।
1919 में ही जालियांवाला बाग नृशंस हत्याकांड और राजशाही के दमनचक्र के खिलाफ आंदोलनकारियों ने खुली बगावत शुरू कर दी। रवीन्द्र नाथ टैगोर ने नंदलाल बोस के शांतिनिकेतन चले जाने का प्रस्ताव स्वयं रखा। गुरु अवनींद्र नाथ टैगोर के विशेष आग्रह पर आर्ट्स स्कूल में आंशिक सेवा देते रहे।ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ रवीन्द्र नाथ टैगोर ने ‘सर’ की उपाधि लौटा दी, जालियांवाला बाग नृशंस हत्याकांड और बर्बरता के खिलाफ अपना वक्तव्य जारी किया। महात्मा गांधी और उनके तमाम सहयोगी अंग्रेजों का भारत छोड़ने के लिए असहयोग आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार करने लगे थे। 1920 में लार्ड रोनाल्डस शांति निकेतन परिदर्शन का पधारे और उन्होंने कहा संबंधी गतिविधियों का बढ़ाने के लिए सरकारी अनुदान का पेशकश की तो रवीन्द्र नाथ उनके अनुरोध के स्वीकार नहीं कर पाए। इस पृष्ठभूमि और प्रश्नभूमि के साथ नंदलाल बोस यह तय कर चुके का थे कि उन्हें क्या करना है और उनकी कला सर्जना का दिशा क्या होगी?
शांतिनिकेतन के सहज और अकृत्रिम वातावरण ने शासकीय हस्तक्षेप और बंद कमरे में दी जानेवाली कला शिक्षा के जड़ता का तोड़ने का उपक्रम किया था। रविन्द्रनाथ का गुरु प्रेरणा ने केवल नंदलाल के चित्र को ही उद्वेलित नहीं किया बल्कि इसे समग्र भारतीय कला मनीषा का उनमुक्त गगन प्रदान किया। अपने ऋषि व्यक्तित्व के कारण उन्होंने नंदलाल में उन सारी संभावनाओं का देख लिया था जो कला भवन की प्रस्तावित संकल्पना और उसके आचार्य पद की गरिमा के सर्वथा अनुरूप होता।
1920 ईसवी में शांतिनिकेतन के कला भवन से जुड़े और 1951 तक अध्यक्ष के पद पर कार्य करते रहें आरंभ में नंदलाल बोस ने कई चित्र भारतीय किसानों पर बनाए लेकिन बाद में पेड़ों मकानों तथा प्राकृतिक चित्रों उनको अधिक आकर्षित करते वह एक विशेष प्रकार की आलौकिक शक्ति की अनुभूति करते उन्होंने शिव काली उमा यम सावित्री बुद्ध गंधारी आदि सभी महत्वपूर्ण देवी देवताओं तथा महापुरुषों के चित्र बनाएं उनकी प्रकाशित कृतियों में शिल्पकथा शिल्पचर्चा आदि प्रमुख हैं।
नंदलाल उन व्यक्तियों में से थे जो शांति से अपना कार्य करते थे और विनम्र स्वभाव के थे लेकिन उनके अंदर एक विचित्र प्रकार की प्रशासनिक क्षमता थी और अपने निकटतम लोगों के बीच में उनकी गहरी समझ तथा उनका वाक चातुर्य प्रसिद्ध था उनके अनुसार परंपरागत कला तथा आधुनिक कला में संघर्ष नहीं है।
नंदलाल बोस के आरंभिक चित्रों में सती और सती का देह त्याग पहले ही चर्चा हो चुके थे। इन्हें इंडियन सोसाइटी अब ओरिएंटल आर्ट द्वारा पांच सौ रुपये से पुरस्कृत किया जा चुका था। अन्य चर्चित चित्रों में दमयन्ती स्वयंवर, गरुड़स्तम्भ के सामने चैतन्य, अहिल्या उद्धार, सिद्धार्थ एवं घायल हंस उल्लेखनीय हैं। मां क्षेत्रमणि देवी एक धर्मपरायण महिला थी और बचपन से ही नंदलाल ने रामायण, महाभारत, चंडीमंगल,मनसा मंगल तथा व्रत अनुष्ठानों से जुड़ी कहानियां सुन रखी थीं। हवेलीखड़गपुर के कस्वे के कुम्हारों को मूर्तियां गढ़ते और घर में व्रत त्योहारों के समय अल्पना के अभिप्रायों तथा प्रतीकों को ध्यान से देखना उनका स्वभाव और व्यसन हो चुका था।उनके पिता पूर्णचंद्र बोस ऑर्किटेक्ट तथा महाराजा दरभंगा की रियासत के मैनेजर थे। पढ़ाई लिखाई में बुरे होने के कारण पिता कृष्णचंद्र बसु ने आगे की पढ़ाई के लिए कोलकाता भेज दिया, लेकिन कालेज की पढ़ाई पूरी करने की जगह गवर्नमेंट आफ आर्ट कालेज में दाखिल हो गए और इसके बाद एक से एक चित्रों का निर्माण का जो क्रम चला, वह उनके कला संसार निरंतर समृद्ध करता चला गया। उनकी धनी प्रतिभा का परिचय एक से एक दिग्गज कलाकारों,कलाप्रेमियों और कला जगत के मर्मज्ञों अवनीन्द्रनाथ ठाकुर,आनंद केंटिश स्वामी, ई बी हावेल, सिस्टर निवेदिता से आरंभ होकर 1910 में रविन्द्रनाथ ठाकुर से हुआ तो उन्हें यह प्रतीत हुआ अब उनका छोटा सा रंग —पटल अछोर आकाश तक अपनी गरिमा विखेर सकेगा। नंदलाल बोस पर तो गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने कविता भी लिखी है। भारतीय कला जगत के उनका आत्मदान अद्वितीय है।
उन्हें अपने जीवन काल में अनेक सम्मानों से सम्मानित किया गया। सन 1954 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। सन 1956 में उन्हें ललित कला अकादमी का फेल्लो के रूप में चुना गया। ललित कला अकादमी का फेल्लो चुने जाने वाले वे दूसरे कलाकार थे। सन 1957 में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें ‘डी.लिट.’ की उपाधि से सम्मानित किया गया।विश्वभारती विश्वविद्यालय ने उन्हें देशीकोत्तम की उपाधि से नवाज़ा।
कलकत्ता के ‘अकादेमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स’ ने उन्हें ‘सिल्वर जुबली मैडल’ दे कर सम्मानित किया।सन 1965 में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल ने उन्हें “टैगोर जन्म सदी पदक” दिया।16 अप्रैल, 1966 को इस महान और विश्वविख्यात चित्रकार का देहांत हो गया। उनकी जन्मभूमि हवेली खड़गपुर में साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था ‘संभवा’ द्वारा उनकी आदमकद प्रतिमा स्थापित की गई। भागलपुर में भी नंदलाल बोस की प्रेरणा से उनके शिष्य बंकिमचंद बनर्जी ने कलाकेंद्र की स्थापना की और वहां भी उनकी आदमकद प्रतिमा स्थापित है। बिहार में नंदलाल बोस के नाम से कोई शिल्प संस्थान नहीं है।इस क्षेत्र केे झील रोड निवासी संजय सिंह का कहना है कि पटना के बाद बिहार में कला शिल्प के नाम पर भागलपुर में कला केंद्र तो हैं, लेकिन उनकी जन्मभूमि पर कोई शिल्प संस्थान बनाने या खोलने की दिशा में कोई सरकारी पहल क्यों नहीं हो रही है? वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान मुंगेर पहुंचे नरेंद्र मोदी ने भी अपने संबोधन की शुरुआत नंदलाल बसु को याद करते हुए की थी। अंगिका भाषा में उन्होंने जब मंच से कहा- नंदलाल बसु की धरती को प्रणाम करै छी, तो तालियों से हवाई अड्डा मैदान गूंज उठा। तालियों ने यह उम्मीद जगाई थी कि मुंगेर का मान बढ़ाने वाले नंदलाल बसु की स्मृति को जिंदा रखने के लिए जरूर कदम उठाए जाएंगे। इंतजार अब भी जारी है। मुंगेर के बुद्धिजीवियों को अब भी उम्मीद है कि उनके नाम पर खडग़पुर में कला महाविद्यालय खोले जाएंगे। सेवानिवृत्त प्राचार्य रामचरित्र प्रसाद सिंह ने कहा कि नंदलाल बसु की प्रतिभा के कायल बापू भी थे । तीन दिसंबर 2003 में भागलपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ. रामाश्रय यादव ने नंदलाल बसु शोध संस्थान और सभागार का शिलान्यास किया था। लेकिन, अभी तक शोध संस्थान और सभागार का निर्माण नहीं किया जा सका। विधान पार्षद संजीव ने भी विधान परिषद में आचार्य नंदलाल बसु की उपेक्षा का मामला उठाया। अनुमंडलाधिकारी के यहां से भी प्रस्ताव भेजा गया। लेकिन, नंदलाल बसु की स्मृति को जिंदा रखने की कवायद कागजी प्रक्रिया में उलझ कर रह गई है।
कुमार कृष्णन
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