गाँधी युगीन हिंदी पत्रकारिता और साहित्यकार सन् 1920 से 1947 ई.

अमन कुमार

तत्कालीन परिस्थितियाँ
गाँधी युगीन पत्रकारिता से पूर्व प्रायः सभी पत्र-पत्रिकाओं के संपादक साहित्यिक होने से उनमें साहित्य की सामग्री अधिक रहती थी किंतु ‘‘अब संपादकों की लेखनियाँ अधिकतर राजनीतिक विषयों पर अपना कौशल दिखाने लगीं और उन्हें बड़ी लोकप्रियता मिली।’’1 पत्रकारिता के लिए यह काल ‘भूमिगत पत्रकारिता’ का काल भी कहा जा सकता है। क्योंकि ‘‘जनता अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ रही थी। ऐसे ही समय में सरकार ने पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा दिया। फलतः पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन बंद हो गये। उनके स्थान पर भूमिगत पत्रिकाओं के प्रकाशन हुए। यह प्रवृत्ति 1932-33 ई. में थी। ऐसे समय चोरी-छिपे ‘रणभेरी’, ‘रणडंका’ आदि नामों से कई पत्र निकले। अतः इस धारा को ‘भूमिगत पत्रकारिता’ की संज्ञा दी गयी।’’2 सन् 1920 के बाद न सिर्फ पत्रकारिता का युग बदला बल्कि भारतीय राजनीति और साहित्य का युग भी बदल गया। 1 अगस्त 1920 को बालगंगाधर तिलक की मृत्यु हो गई और इसी वर्ष आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती के संपादन भार से मुक्ति पा ली थी। राजनीति में बड़ी तेजी के साथ महात्मा गाँधी का नाम प्रकाशित हो रहा था। यह अंग्रेज शासन का वह युग था जब वह दो विश्वयुद्ध लड़कर कमजोर हो चुका था किंतु भारत को धार्मिकता में बाँटकर अपनी सत्ता बनाये हुए था।
कांग्रेस ने गाँधी जी के नेतृत्व में सन् 1920 में असहयोग आंदोलन करने का निर्णय लिया। यह आंदोलन सन् 1922 तक चला। इस बीच आंदोलनकारियों पर जमकर अत्याचार किये। तुर्की में खिलाफत आंदोलन चला तो भारत के मुसलमान भी आंदोलन करने लगे। गाँधी जी ने इस आंदोलन में उनका साथ दिया। तभी गोरखपुर के समीप चोरीचैरा गाँव में तीन हजार आदमियों की भीड़ ने 21 सिपाहियों और 1 इंसपेक्टर को मार डाला। अहिंसा के पक्षपाति गाँधी जी को यह घटना सहन नहीं हुई और उन्होंने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। इस मामले में गाँधी जी की कड़ी आलोचना हुई और सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। जहाँ से गांधी जी फरवरी 1928 में रिहा हो पाए। असहयोग आंदोलन इतना विशाल था कि उससे भारी मात्रा में देशवासी जुड़े और अपनी ताकत का अहसास भी करा दिया। किंतु महात्मा गाँधी द्वारा यह आंदोलन वापस ले लेने से एकजुट हुये देशभक्तों के सीने में जो चिंगारी प्रज्वलित हुई वह फिर शांत न हो सकी।
1 जनवरी 1923 को चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू ने इलाहाबाद में स्वराज्य दल की स्थापना की। इस दल का उद्देश्य ‘स्वराज्य’ प्राप्त करना था। ‘‘इसके नेताओं ने ‘स्वराज’ की परिभाषा करते हुए स्वीकार किया था कि वे ‘स्वायत्त शासन’ चाहते थे। स्वराज्य दल और कांग्रेस का उद्देश्य एक ही था लेकिन दोनों के रास्ते अलग-अलग थे। स्वराज्य दल के नेताओं ने अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए विधानमण्डलों के चुनावों में सक्रिय भाग लिया। वे विधान मण्डलों द्वारा सरकार से संघर्ष करना चाहते थे। बाह्य संघर्ष के स्थान पर आंतरिक संघर्ष करने के लिए विधान मण्डलों की अधिक से अधिक सीटों पर उन्होंने अधिकार करने का प्रयास किया। वे विधान मण्डलों में इसलिए घुसे थे कि वे सरकार के कार्यों में बाधा डाल सकें। वे नौकरशाही सरकार द्वारा स्वराज्य के पथ में डाली जाने वाली कठिनाइयों का मुकाबला करना चाहते थे। विधान मण्डलों में जाकर उन्हें बजट अस्वीकार करने थे और उन सब विधेयकों का विरोध करना था जिसके कारण नौकरशाही अपनी स्थिति मजबूत करना चाहती थी।’’3
चूँकि स्वराज्य दल का उद्देश्य पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करना था। इसलिए ‘‘विधान मंडलों से बाहर वे महात्मा गाँधी के रचनात्मक कार्य का पूरा समर्थन करते और कांग्रेस संगठन द्वारा मिलकर उस काम को चलाते। वे शोषण के सब रास्ते और हिन्दुस्तान से बाहर जाने वाली संपत्ति को रोकना चाहते थे। उसके लिए उन्होंने एक आर्थिक नीति तैयार की थी। वे चाहते थे कि मजदूरों का शोषण न हो और कारखानों की उन्नति भी हो। चितरंजन दास ने भावी रूपरेखा स्पष्ट करते हुए कहा था कि बजट को रद्द करके, नौकरशाह के प्रस्तावों को अस्वीकृत करके और विभिन्न विधेयकोें को रोक कर वे 1919 के अधिनियम की कार्यप्रणाली में बाधाएं उपस्थित करके सरकारी कामकाज को ठप्प कर देंगेे। स्वराज्य दलीय नेताओं ने यह भी घोषित किया था कि अगर हमने देखा कि नौकरशाही, स्वार्थ और हठ का सविनय अवज्ञा के अनुसार मुकाबला नहीं किया जा सकता तो हम बिना किसी संकोच गाँधी जी के नेतृत्व में काम करेंगे।’’4
यह वह समय था जब देश का हर व्यक्ति आजादी के पक्ष में खड़ा था। कुछ लोग महात्मा गाँधी के अहिंसावादी विचारों से प्रभावित थे तो कुछ लोग गर्म दल के विचारों से। 8 फरवरी 1924 को स्वराज्य पक्ष को केन्द्रीय असेमबली में मोतीलाल नेहरू का एक महŸवपूर्ण प्रस्ताव पास कराने में सफलता मिली। प्रस्ताव में माँग की गयी थी कि एक गोल मेज सम्मेलन किया जाये जो पूर्ण उत्तरदायी शासन के आधार पर हो और हिन्दुस्तान के लिये एक संविधान की सिफारिश करे। ब्रिटिश सरकार को स्वराज्य दल के कारण कई बार मुहँ की खानी पड़ी।
भारत में अब तक समाचार पत्रों के प्रकाशन की संख्या काफी बढ़ चुकी थी। जो भी हरकत अंग्रेज करते उसकी सूचना भारत के आम आदमी को मिलने लगी। इससे यह हुआ कि आजादी के दीवानों ने पूर्ण आजादी प्राप्त करने की कसम ही खा ली। इस दौर में साहित्यकारों ने भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और इस दौर के साहित्य को आजादी का साहित्य बना डाला। जिससे चिढ़कर अंग्रेजों ने तमाम पुस्तकों और अख़बारों को जप्त किया।
‘‘गाँधी जी स्वयं पत्रकार थे और पत्रकारिता को वे वैचारिक क्रांति का एक सशक्त माध्यम मानते थे।’’5 1919 में गाँधी ने यंग इंडिया का संपादन किया और इसके माध्यम से अपने राजनीतिक दर्शन कार्यक्रम और नीतियों का प्रचार किया। 1933 के बाद उन्होंने हरिजन (बहुत सी भाषाओं में प्रकाशित साप्ताहिक) का भी प्रकाशन शुरू किया। पंडित मोतीलाल नेहरू ने 1919 ई. में इलाहाबाद से इंडीपेंडेंट (अंग्रेजी दैनिक) का प्रकाशन शुरू किया। स्वराज पार्टी के नेता ने दल के कार्यक्रम के प्रचार के लिये सन् 1922 ई. में दिल्ली में के.एम. पन्नीकर के संपादकत्व में हिन्दुस्तान टाइम्स (अंग्रेजी दैनिक) का प्रकाशन शुरू किया। इसी काल में लाला लाजपत राय के सहयोग के फलस्वरूप लाहौर से अंग्रेजी राष्ट्रवादी दैनिक प्युपल का प्रकाशन शुरू किया गया।
‘‘जबलपुर के साहित्यप्रेमियों ने राष्ट्रसेवा लि. के नाम से एक संस्था स्थापित की थी। इसी संस्था के तत्वावधान में 17 जनवरी 1919 ई. को साप्ताहिक ‘कर्मवीर’ का प्रकाशन आरंभ हुआ। माधवराव सप्रे प्रधान संपादक बनाये गये। संपादक माखनलाल चतुर्वेदी थे।’’6 इस पत्र ने भारतीय के खून में निर्भीकता भर दी। ‘‘सन् 1920 में कलकत्ता से ‘स्वतंत्र’ साप्ताहिक प्रकाशित हुआ। इसके संपादक सुप्रसिद्ध पत्रकार पं. अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी थे। वाजपेयी जी जैसे अनुभवी सिद्धांत प्रिय एवं सफल पत्रकार के मार्गदर्शन में ‘स्वतंत्र’ चमक उठा था किंतु ब्रिटिश शासन के तीव्र दमन से इसे शीघ्र ही रंगमंच से लुप्त हो जाना पड़ा।’’7
1923 के बाद धीरे-धीरे समाजवादी, साम्यवादी विचार भारत में फैलने लगे। वर्कर्स एंड प्लेसंट पार्टी आफ इंडिया का एक मुखपत्र मराठी साप्ताहिक ‘क्रांति’ था। मर्ट कांसपीरेसी केस के एम जी देसाई और लेस्टर हचिंसन के संपादकत्व में क्रमशः स्पार्क और न्यू स्पार्क (अंग्रेजी साप्ताहिक) प्रकाशित हुआ। माक्र्सवाद का प्रचार करना और राष्ट्रीय स्वतंत्रता एवं किसानों मजदूरों के स्वतंत्र राजनीतिक आर्थिक संघर्षों को समर्थन प्रदान करना इनका उद्देश्य था। इसी वर्ष ‘‘दिल्ली से श्री इन्द्रवाचस्पति द्वारा संचालित ‘अर्जुन’ साप्ताहिक ने भी अपना अच्छा स्थान बना लिया था।’’8 और ‘‘1925 से 35 के बीच में श्री सिद्धनाथ माधवनाथ आगरकर द्वारा संपादित ‘हिंदी स्वराज्य’ (खण्डवा)’’ के तेवर भी देखने लायक थे।
गाँधीजी ने 4 जून 1903 में ‘इंडियन ओपिनियन’ साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन किया। जिसके एक ही अंक में अंग्रेजी, हिंदी, तमिल, गुजराती भाषा में छः काॅलम प्रकाशित होते थे। उस समय गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका में रहते थे। अंग्रेजी में यंग इंडिया और जुलाई 1919 से हिंदी-गुजराती में ‘नवजीवन’ का प्रकाशन आरंभ किया। इन पत्रों के माध्यम से अपने विचारों को जनमानस तक पहुँचाया। उनके व्यक्तित्व ने जनता पर जादू सा कर दिया था। उनकी आवाज पर लोग मर-मिटने को तैयार हो गये। इन पत्रों में प्रति सप्ताह महात्मा गाँधी के विचार प्रकाशित होते थे। ब्रिटिश शासन द्वारा पारित कानूनों के कारण जनमत के अभाव में ये पत्र बंद हो गये। बाद में उन्होंने अंग्रेजी में ‘हरिजन’ और हिंदी में ‘हरिजन सेवक’ तथा गुजराती में ‘हरिबंधु’ का प्रकाशन किया तथा ये पत्र स्वतंत्रता तक छापते रहे। गाँधी जी भारतीय जनमानस के हृदय में गहरे बैठ चुके थे। ‘‘18 मार्च 1919 के ‘काले कानून’ तथा अन्य सरकारी कानूनों को तोड़ने के लिए महात्मा गाँधी जी ने एक समिति निर्मित की, लोगों से सत्याग्रह की प्रतिज्ञा करायी और 30 मार्च 1919 को हड़ताल करने की अपील की। इस अपील के जवाब में पूरे देश ने अपनी जातीय जागृति का परिचय दिया।’’9 इस दौर में गाँधी जी की प्रेरणा से शिक्षा के नये-नये संस्थान खुले ‘‘राष्ट्रीय संस्थाओं के संस्थापन और संगठन की ओर गांधी जी की विशेष रुचि थी।’’10
गाँधी जी न सिर्फ आम आदमी बल्कि दूसरे स्वतंत्रता प्रेमियों और भारत के बुद्धिमान वर्ग में भी प्रभावी हो चुके थे। उस दौर में निकलने वाले सभी पत्र भी गाँधी जी से प्रभावित हुए बिना न रह सके। ‘‘मतवाला 31 मई, 1924 की एक संपादकीय टिप्पणी की अन्तिम पँक्तियां द्रष्टव्य हैं- यदि आप स्वतंत्रता के अभिलाषी हैं, अपने देश में स्वराज्य की प्रतिष्ठा चाहते हैं, तो तन, मन और धन से अपने नेता महात्मा गांधी के आदेशों का पालन करना आरंभ कीजिए।’’11 मतवाला इस दौर का महŸवपूर्ण साहित्यिक पत्र था। ‘‘मतवाला के प्रकाशन की प्रेरणा बंगला-साप्ताहिक पत्र ‘अवतार’ से मिली थी। यह हास्यरस का पत्र था। हिंदी में ऐसा पत्र नहीं था। इस अभाव की ओर कलकत्ता के तत्कालीन हिंदी हितैषियों का ध्यान गया। इनमें प्रमुख थे मुंशी नवजादिक लाल, पण्डित सूर्यकांत त्रिपाठी, बाबू शिवपूजन सहाय और ‘बालकृष्ण प्रेस’ के मालिक महादेव प्रसाद सेठ।’’12 मतवाला का प्रारंभ 20 अगस्त 1923 ई. रविवार को इलाहाबाद से प्रारंभ हुआ था। ‘‘‘मतवाला’ की साहित्यिक उपलब्धि के रूप में हमने ‘निराला’ का नामोल्लेख किया है। ‘निराला’ के पूर्ववर्ती काव्य के प्रकाशन का श्रेय ‘मतवाला’ को है। ‘मतवाला’ का यह सबसे बड़ा साहित्यिक अवदान है। निराला के अतिरिक्त उसके अन्य विशिष्ट लेखकों की रचनाएँ प्रायः छपती थीं। उनमें प्रमुख नाम इस प्रकार हैं: हरिऔध, चतुरसेन शास्त्री, प्रेमचंद, प्रसाद तथा उग्र जी ‘मतवाला मण्डल’ के सदस्यों में थे। उनकी अनेक कहानियाँ और कविताएँ इस पत्र में प्रकाशित हुई थीं। ये अधिकांश कहानियाँ इनमें छपी थीं जिन्हें पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने ‘घासलेटी साहित्य’ कहा था। उग्र की कहानी पर श्रीरामनाथ ‘सुमन’ की एक समीक्षा भी प्रकाशित हुई थी। हिंदी के विशिष्ट पुराने-नये लेखकों का सचित्र परिचय भी प्रकाशित होता था। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, बाबू श्यामसुंदर दास, हरिऔध जी, जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी, पं. नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ, रामगोविन्द त्रिवेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी, राधाचरण गोस्वामी, नाथूराम शंकर शर्मा, सुमित्रानंदन पंत इत्यादि साहित्यकारों का सचित्र परिचय ‘मतवाला’ में प्रकाशित हुआ था।’’13
1930 और 1939 के बीच मजदूरों किसानों के आंदोलनों का विस्तार हुआ और उनकी ताकत बढ़ी। कांग्रेस के नौजवानों के बीच सामाजवादी साम्यवादी विचार विकसित हुए। इस तरह स्थापित कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने अधिकारिक पत्र के रूप में ‘कांग्रेस सोशलिस्ट’ का प्रकाशन किया। कम्युनिस्ट के प्रमुख पत्र ‘नेशनल फ्रंट’ और बाद में ‘प्युपलस्’ वार थे। ये दोनों अंग्रेजी सप्ताहिक पत्र थे। एम. एन. राॅय के विचार अधिकारिक साम्यवाद से भिन्न थे। उन्होंने अपना अलग दल कायम किया जिसका मुखपत्र था ‘इंडीपेंडेंट इंडिया’।
इस दौर की पत्रकारिता विकास कर रही थी मगर अंग्रेजी और हिंदी के पत्रों में दूरियां भी बढ़ रही थीं किंतु सरकारी निर्ममता के बावजूद समाचारपत्रों की संख्या निरंतर बढ़ रही थी। डाॅ. गिरिराजशरण अग्रवाल और चंद्रमणि रघुवंशी इस काल के पत्रों की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार बताते हैं-
1. भारतीय और ऐंग्लो इंडियन पत्रों के बीच की खाई चैड़ी हो गई। सभी भारतीय समाचार-पत्रों ने स्वतंत्रता का समर्थन किया, यद्यपि उनमें से कुछ पत्र महात्मा गाँधी की नीति और कार्यों से असहमत थे। इसके विपरीत ऐंग्लो इंडियन पत्रों ने सरकारी नीति का समर्थन किया। यद्यपि ये नीतियां स्पष्ट रूप से अनुचित प्रतीत होती थीं।
2. समाचारपत्रों के सम्बंध में सरकार की नीति बड़ी निमर्म थी। समाचारपत्रों से जमानतें माँगी जाती थीं और अधिकतर जमानतें जब्त कर ली जाती थीं और फिर से नई जमानत माँगी जाती थी। बहुत से पत्रकारों को जेल भी काटनी पड़ी।
3. समाचारपत्रों की माँग लगातार बढ़ती जा रही थी, यद्यपि अधिकांश लोकप्रिय पत्रों की प्रसार संख्या 2000 से अधिक नहीं थी।
4. इकन्नियां दैनिक पत्र अधिकाधिक संख्या में छपने लगे।
5. पहले के कानूनों को और भी कठोर बना दिया गया तथा समाचारपत्रों का दमन करने के लिए नए कानून बनाए गए।
6. बहुतों के लिए पत्रकारिता एक पेशा बन गई।
7. निर्धनता के बावजूद पत्रकार को सर्वत्र आदर तथा प्यार मिलता रहा।
8. बहुत से युवक युवतियाँ पत्रकारिता के सहारे प्रांतीय तथा राष्ट्रीय नेता बन गए।
9. समाचार जानने की उत्कंठा लोगों में पराकाष्ठा तक पहुँच गई और शिक्षित-अशिक्षित सभी लोग समाचारों में दिलचस्पी लेने लगे।14
पत्रकारिता में हिंदी साहित्यकार
यह युग पत्रकारिता का विशेष युग कहलाया जायेगा। ‘‘सन् 1920 में ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’ के साथ आज का श्री गणेश हुआ था। हिंदी में दैनिक ‘लंदन टाइम्स’ जैसा स्तरीय दैनिक समाचारपत्र प्रकाशित करने का संकल्प शिवप्रसाद गुप्त ने अपने विश्वभ्रमण में लिया था।’’15 शिवप्रसाद गुप्त ने ‘आज’ का प्रकाशन ‘ज्ञान मंडल’ वाराणसी से शुरू किया था। पहले संपादक श्री प्रकाश हुए। यह पत्र राजनीति के साथ-साथ सांस्कृतिक और साहित्यिक सेवा का पक्षधर था। बाबूराव विष्णु पराड़कर ‘आज’ की बेहतरीन देन हैं। यही नहीं ‘आज’ ने मुकन्दी लाल श्रीवास्तव, कालिका प्रसाद, विनोददत्त झा, राधावल्लभ सहाय, कमलापति त्रिपाठी, विशम्भर नाथ, परमेश्वरी लाल गुप्त, सूर्यकुमार वेदालंकार, रमाकांत श्रीवास्तव, रामनाथ सुमंत, शंभुनाथ सिंह, डाॅ. परमात्मा शरण, कृष्ण कुमारी मिश्र, महावीर प्रसाद गहमरी आदि प्रसिद्ध लेखक दिये हैं।
प्रारंभ में ‘‘दैनिक ‘आज’ का प्रातः कालीन संस्करण केवल काशी नगर तक ही सीमित था। तब ग्रामीण पाठकों के लिए 11 मार्च 1922 को ‘आज’ का अर्द्धसाप्ताहिक संस्करण भी आरंभ किया गया, जिसके कुल साठ अंक निकले।’’16
इस काल के साहित्यकारों में माधवराव सप्रे, माखनलाल चतुर्वेदी, विष्णुदत्त शुक्ल, रामवृक्ष बेनीपुरी, विनय मोहन शर्मा, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, डाॅ. भगवानदास, काशी प्रकाश जायसवाल, शंकर सहाय सक्सेना, प्राणनाथ विद्यालंकार, द्वारका प्रसाद मिश्र, केसी देसाई, प. गंगाशंकर मिश्र, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, शिवपूजन सहाय, नवजादिकलाल श्रीवास्तव, महादेवी वर्मा, जय शंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, पं. नर्मदा प्रसाद मिश्र, सुभद्रा कुमारी चैहान, केशव प्रसाद पाठक, मैथिली शरण गुप्त, रघुवर प्रसाद द्विवेदी, लाला भगवान ‘दीन’, लज्जा शंकर झा, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, सेठ गोविन्द दास, पं. कांता प्रसाद गुरु, गिरिजादत्त शुक्ल ‘गिरीश’, गोपाल दामोदर तामस्कर, सोहन लाल द्विवेदी, पद्मकांत मालवीय, राम नरेश त्रिपाठी, श्रीधर पाठक, गोपाल सिंह नेपाली, सियारामशरण गुप्त, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, भगवती चरण वर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, लक्ष्मी नारायण गर्दे, गुलाब राय, नाथूराम शंकर, शिव पूजन सहाय, बनारसी दास चतुर्वेदी, श्री राम शर्मा, अज्ञेय, मोहन सिंह सैंगर, संपूर्णानंद, श्याम बिहारी मिश्र, लाल हरदयाल, जोश मलिहाबादी, सुनीतिकुमार चटर्जी, यशपाल जैन, रघुवीर सहाय आदि न जाने कितने ही ऐसे साहित्यकार थे। जो या तो पत्र-पत्रिका निकाल रहे थे या उनमें लिखकर देश और साहित्य सेवा कर रहे थे।
प्रमुख पत्र
इस समय राष्ट्रीय और साहित्यिक चेतना को दोनों साथ-साथ पल्लवित हो रही थीं। साहित्यिक पत्रकारिता में एक नए युग का आरंभ हुआ। राष्ट्रीय आंदोलनों ने हिंदी की राष्ट्रभाषा के लिए योग्यता पहली बार घोषित की ओर जैसे-जैसे राष्ट्रीय आंदोलनों का बल बढ़ने लगा, हिंदी के पत्रकार और पत्र अधिक महŸव पाने लगे। ‘‘भारत का कोई प्रांत ऐसा नहीं था जिसने राष्ट्रीयता का प्रचार करने वाले पत्रों और पत्रकारों को जन्म न दिया हो।’’17 1921 के बाद गाँधी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन मध्यवर्ग तक सीमित न रहकर ग्रामीणों और श्रमिकों तक पहुँच गया और उसके इस प्रसार में हिंदी पत्रकारिता ने महत्त्वपूर्ण योग दिया। सच तो यह है कि हिंदी पत्रकार राष्ट्रीय आंदोलनों की अग्र पंक्ति में थे और उन्होंने विदेशी सत्ता से डटकर मोर्चा लिया। विदेशी सरकार ने अनेक बार नए-नए कानून बनाकर समाचारपत्रों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया परंतु जेल, जुर्माना और अनेकानेक मानसिक और आर्थिक कठिनाइयाँ झेलते हुए भी हिंदी पत्रकारों ने स्वतंत्र विचार की दीपशिखा जलाए रखी।
1921 में काशी से ‘आज’ और कानपुर से ‘वर्तमान’ प्रकाशित हुए। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1921 में हिंदी पत्रकारिता फिर एक बार करवटें लेती है और राजनीतिक क्षेत्र में अपना नया जीवन आरंभ करती है। हमारे साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में भी नई प्रवृत्तियों का आरंभ इसी समय से होता है। सन् 1928 को कलकत्ता से ‘‘विशाल भारत’ का प्रवेशांक 144 पृष्ठों का निकला। साहित्य, समाज-सुधार, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान आदि विषयों पर गवेषणापूर्ण लेखों का प्रकाशन सचित्र ‘विशाल भारत’ में होता था। आकार 25 गुणित 19 से.मी. और वार्षिक शुल्क छह रुपये था।’’18 मासिक ‘विशाल भारत’ ने भी अनेक विशेषांक निकाले जिनमें-‘‘पद्मसिंह शर्मा अंक, प्रवासी अंक, रवीन्द्र अंक, एन्ड्रूज अंक, साहित्य-कला अंक, कहानी अंक, यूरोप अंक इत्यादि विशेषांक प्रकाशित कर हिंदी पत्रकारिता को समृद्ध किया।’’19
1919 ई. के बाद साहित्यक्षेत्र में जो पत्र आए उनमें प्रमुख हैं-
स्वदेश (1919 ई.), भविष्य (1919 ई.), विजय (1919 ई.) जैसे पत्र अपनी धूम मचा रहे थे। इन पत्रों ने अन्य देशप्रेमियों को प्रेरित किया तो 1919 के बाद अनेक जुझारू और निडर पत्र सामने आये जिनमें- पत्रकारिता की परिभाषा गढ़ने वाले ‘आज’ (1920) को कदापि भुलाया नहीं जा सकता है। स्वार्थ (1922 ई.), माधुरी (1922 ई.), मर्यादा(1923 ई.), चाँद (1923 ई.), मनोरमा (1924 ई.), समालोचक (1924 ई.), कर्मवीर (1924 ई.), सैनिक (1924 ई.), श्रीकृष्णसंदेश (1925 ई.), चित्रपट (1925 ई.), कल्याण (1926 ई.), हिंदूपंच (1926 ई.), सुधा (1927 ई.), विशालभारत (1928 ई.), त्यागभूमि (1928 ई.), स्वतंत्र भारत (1928 ई.), जागरण (1929 ई.), हिंदी मिलाप (1929 ई.), हंस (1930 ई.), गंगा (1930 ई.), सचित्र दरबार (1930 ई.), स्वराज्य (1931 ई.), नवयुग (1932 ई.), हरिजन सेवक (1932 ई.), विश्वबंधु (1933 ई.), विश्वमित्र (1933 ई.), नवशक्ति (1934 ई.), योगी (1934 ई.), हिंदू (1936 ई.), देशदूत (1938 ई.), राष्ट्रीयता (1938 ई.), संघर्ष (1938 ई.), चिनगारी (1938 ई.), नवज्योति (1938 ई.), रूपाभ (1938 ई.), साहित्य संदेश (1938 ई.), कमला (1939 ई.), मधुकर (1940 ई.), जीवनसाहित्य (1940 ई.), संगम (1940 ई.), विश्वभारती (1942 ई.), संगम (1942 ई.), जनयुग (1942 ई.), रामराज्य (1942 ई.), सावधान (1942 ई.), लोकवाणी (1942 ई.), हुंकार (1942 ई.), संसार (1943 ई.), सन्मार्ग (1943 ई.), कुमार (1944 ई.), लोकवार्ता (1944 ई.), नया साहित्य (1945 ई.), सरिता (1945 ई.), नया साहित्य (1945 ई.), आजकल (1945 ई.), पारिजात (1945 ई.), हिमालय (1945 ई.), जय हिन्द (1946 ई.), क्रान्ति (1946 ई.), भास्कर (1946 ई.), विंध्य केसरी (1946 ई.), नया हिन्द (1946 ई.), कहानियाँ (1946 ई), नवभारत टाइम्स (1947 ई.), नई दुनिया (1947 ई.), प्रदीप (1947 ई.), स्वतंत्र भारत (1947 ई.), दैनिक जागरण (1947 ई.), नवजीवन (1947 ई.), दैनिक लोकमत (1947 ई), राष्ट्र धर्म (1947 ई.), प्रहरी (1947 ई.), नारी (1947 ई.), संगम (1947 ई.), दखनी हिंदी (1947 ई.), बाल बौध (1947 ई.), आदि प्रमुख हैं।
प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाएँ
भारत के स्वाधीनता संघर्ष में पत्र-पत्रिकाओं की अहम भूमिका रही है। आजादी के आंदोलन में भाग ले रहा हर आदमी कलम की ताकत से परिचित था। पत्रकारों को सत्ता का कोपभाजन बनना पड़ा। दमन, नियंत्रण के दुश्चक्र से गुजरते हुए उन्हें कई प्रेस अधिनियमों का सामना करना पड़ा। ‘वर्तमान पत्र’ में पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा लिखा ‘राजनीतिक भूकम्प’ शीर्षक लेख, ‘अभ्युदय’ का भगत सिंह विशेषांक, किसान विशेषांक, ‘नया हिन्दुस्तान’ के साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और फाॅसीवादी विरोधी लेख, ‘स्वदेश’ का विजय अंक, ‘चाँद’ का अछूत अंक, फाँसी अंक, ‘बलिदान’ का नववर्षांक, ‘क्रांति’ के 1939 ई. के सितंबर, अक्टूबर अंक, ‘विप्लव’ का चंद्रशेखर अंक अपने क्रांतिकारी तेवर और राजनीतिक चेतना फैलाने के आरोप में अंग्रेजी सरकार की टेढ़ी निगाह के शिकार हुए और उन्हें जब्ती, प्रतिबंध, जुर्माना का सामना करना पड़ा। संपादकों को कारावास भुगतना पड़ा।
बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक में सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रचार प्रसार और उन आंदोलनों की कामयाबी में समाचार पत्रों की अहम भूमिका रही। कई पत्रों ने स्वाधीनता आंदोलन में प्रवक्ता का रोल निभाया। कानपुर से 1920 में प्रकाशित ‘वर्तमान’ ने असहयोग आंदोलन को अपना व्यापक समर्थन दिया था। पंडित मदनमोहन मालवीय द्वारा शुरू किया गया साप्ताहिक पत्र ‘अभ्युदय’ उग्र विचारधारा का हामी था। अभ्युदय के भगत सिंह विशेषांक में महात्मा गाँधी, सरदार पटेल, मदनमोहन मालवीय, पंडित जवाहरलाल नेहरू के लेख प्रकाशित हुए। जिसके परिणामस्वरूप इन पत्रों को प्रतिबंध- जुर्माना का सामना करना पड़ा। गणेश शंकर विद्यार्थी का ‘प्रताप’, सज्जाद जहीर एवं शिवदान सिंह चैहान के संपादन में इलाहाबाद से निकलने वाला ‘नया हिन्दुस्तान’ राजाराम शास्त्री का ‘क्रांति’ यशपाल का ‘विप्लव’ अपने नाम के मुताबिक ही क्रांतिकारी तेवर वाले पत्र थे। इन पत्रों में क्रांतिकारी युगांतकारी लेखन ने अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ा दी थी। अपने संपादकीय, लेखों, कविताओं के जरिए इन पत्रों ने सरकार की नीतियों की लगातार भत्र्सना की। ‘नया हिन्दुस्तान’ और ‘विप्लव’ के प्रतिबंधित अंकों को देखने से इनकी वैश्विक दृष्टि का पता चलता है।
‘चाँद’ का फाँसी अंक
फाँसीवाद के उदय और बढ़ते साम्राज्यवाद, पूँजीवाद पर चिंता इन पत्रों में साफ देखी जा सकती है। गोरखपुर से निकलने वाले साप्ताहिक पत्र ‘स्वदेश’ को जीवनपयंन्त अपने उग्र विचारों और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण की भावना के कारण समय-समय पर अंग्रेजी सरकार की कोप दृष्टि का शिकार होना पड़ा। ख़ासकर विशेषांक ‘विजयांक’ को। आचार्य चतुरसेन शास्त्री द्वारा संपादित ‘चाँद’ के फाँसी अंक की चर्चा भी जरूरी है। काकोरी के अभियुक्तों को फांसी के लगभग एक साल बाद, इलाहाबाद से प्रकाशित ‘चाँद’ का ‘फाँसी’ अंक क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास की अमूल्य निधि है। यह अंक क्रांतिकारियों की गाथाओं से भरा हुआ है। सरकार ने अंक की जनता में जबर्दस्त प्रतिक्रिया और समर्थन देख इसको फौरन जब्त कर लिया और रातों-रात इसके सारे अंक गायब कर दिये। अंग्रेज हुकूमत एक तरफ क्रांतिकारी पत्र-पत्रिकाओं को जब्त करती रही, तो दूसरी तरफ इनके संपादक इन्हें बिना रुके पूरी निर्भिकता से निकालते रहे। सरकारी दमन इनके हौसलों पर जरा भी रोक नहीं लगा सका। पत्र-पत्रिकाओं के जरिए उनका यह प्रतिरोध आजादी मिलने तक जारी रहा। ‘चाँद’ का प्रकाशन सन् 1920 में हुआ। आरंभ में यह साप्ताहिक पत्र था बाद में मासिक हो गया। इस पत्रिका में अनेक सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विषयों पर लेख प्रकाशित किए जाते थे। इस विशेषांक के संपादक आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने अग्रलेख में लिखा था-‘‘फाँसी अंक को दिवाली की अमावस्या समझिए। देखिए, इसमें बीसवीं शताब्दी के हुतात्मा के दिए कैसे टिमटिमा रहे हैं और देखिए, स्थान-स्थान पर कैसी ज्वलंत अग्नि धाँय-धाँय कर जल रही है, और सबके बीच में जाग्रत ज्योति-मृत्यु-सुंदरी, कैसा शृंगार किए छम-छम कर नाच रही है। पूजो! भाग्यहीन भारत के राजपाट, अधिकार सत्ता और शक्तिहीन नर-नारियों, यही तुम्हारी गृहलक्ष्मी है। यह मृत्यु सुंदरी, यही प्राप्त करो, इसे वरो, तब तुम देखोगे कि ज्यों ही यह तुम्हारे गले का फन्दा होने के स्थान पर हृदय का तारा बनेगी, तुम्हारी सहस्रों वर्ष की गुलामी दूर हो जायेगी?’’20
चाँद के विशेषांक और उनके संपादक इस प्रकार थे- ‘‘गल्पांक-प्रेमचंद, दिसंबर 1922, महिला अंक-दिसंबर 1923, विधवांक-अप्रैल 1923, अछूतांक, नंदकिशोर तिवारी, मई 1929, फाँसी अंक-चतुरसेन शास्त्री, नवंबर 1928, सती अंक-चण्डीप्रसाद हृदयेष, सितंबर 1927, मारवाड़ी अंक-चतुरसेन शास्त्री, नवंबर 1929 ई., विदुषी अंक-नवंबर 1935, भारतवर्षांक, दिसंबर 1929 चर्चित हुए जिनमें फाँसी और मारवाड़ी अंक विशेष चर्चित ही नहीं हुए बल्कि हिंदी-जगत में तहलका मचा दिया।’’21
‘‘नवल किशोर प्रेस लखनऊ से विष्णुनारायण भार्गव ने 30 जुलाई 1922 को साहित्यिक पत्रिका ‘माधुरी’ का प्रकाशन किया।’’22 यह छायावाद की प्रमुख पत्रिका थी परंतु अनेक अस्थिर नीतियों का इसे भी सामना करना पड़ा तथापि यह छायावाद की सबसे लोकप्रिय पत्रिका रही। ‘माधुरी’ के मुख पृष्ठ पर दुलारे लाल भार्गव का लिखा दोहा प्रकाशित होता था।
सिता, मधुर मधु, सुधा तिय अधर माधुरी धन्य।
पै नव रस साहित्य की यह माधुरी अनन्य।
‘चाँद’ मूलतः महिलाओं के लिए प्रकाशित की गयी थी किंतु साहित्यिक भाषा अपनाये हुए यह पत्रिका स्वतंत्र चेतना के लिए अपनी तरह से सफल प्रयास कर रही थी। इसने अनेक विशेषांक निकाले, जिनमें ‘फांसी’ अंक और ‘अछूतांक’ का बड़ा महŸव है। ‘‘मई, 1927 में जब ‘चाँद’ ने ‘अछूतांक’ का प्रकाशन किया, तब ‘माधुरी’ ने टिप्पणी लिखी- सहयोगी चाँद के लिए विशेषांकों का निकालना मामूली बात हो गई है। अपने जीवन के 55 अंकों में वह 10 विशेषांक प्रकाशित कर चुका है। मई, 1927 का अंक ‘अछूतांक’ है। यह उत्साह हिंदी पत्रिकाओं में ही नहीं, भारत वर्ष की अन्य भाषाओं में भी नहीं देखने में आता। ‘चाँद’ ने इसी उत्साह की बदौलत हिंदी जगत में वह स्थान प्राप्त कर लिया है, जो हिंदी भाषा ही के लिए नहीं किसी भी भारतीय भाषा के लिए गौरव की बात है। ऐसी कोई महिलोपयोगी पत्रिका और भी किसी भाषा में है, इसमें हमें संदेह है।’’23
1922 में रामकृष्ण मिशन से जुड़े स्वामी माधवानंद के संपादन में ‘समन्वय’ का प्रकाशन हुआ। यह मासिक पत्र था। निराला की सूझ-बूझ और उनके पाण्डित्य का उत्कृष्ट उदाहरण यह पत्र है। आचार्य शिवपूजन सहाय और निराला ने विभिन्न उत्कृष्ट सामाजिक लेखों द्वारा इस पत्र के माध्यम से सर्वसाधारण में अपना स्थान बनाया।
निराला ने हिंदी भाषा सीखने के लिए ‘सरस्वती’ पत्रिका को आधार बनाया। वह इस पत्रिका के प्रति अपना धन्यवाद ज्ञापन करते हुए कहते हैं- ‘जिसकी हिंदी के प्रकाश के परिचय के समक्ष मैं आँख नहीं मिला सका, लजाकर हिंदी शिक्षा के संकल्प से कुछ दिनों बाद देश से विदेश, पिता के पास चला गया था और उस हिंदी हीन प्रांत में बिना शिक्षक के ‘सरस्वती’ की प्रतियाँ लेकर पदसाधना की और हिंदी सीखी।’ 1923 में निकलने वाला ‘मतवाला’ निराला के गुणों से प्रदीप्त, अपने स्वरूप में भी निराला ही था। यद्यपि इसके संस्थापक महादेव प्रसाद सेठ थे तथापि इस पत्र की पूर्ण जिम्मेदारी शिवपूजन सहाय, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ व पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की ही थी। हास्य, व्यंग्य एवं विनोद का प्रयोग करके नई चेतना जगाने वाले इस पत्र के मुखपृष्ठ पर छपने वाली पंक्तियाँ थी-
अमित गरल, शशि सीकर-रविकर, राग विराग भरा प्याला।
पीते हैं जो साधक उनका प्यारा है यह ‘मतवाला’।
मतवाले अंदाज के लिए मशहूर पत्र ‘निराला’ के निराले अंदाज का सूचक था। ‘निराला’ को यह उपनाम इसी पत्र द्वारा ही प्राप्त हुआ था। ‘मतवाला’ साहित्यिक योजनाओं को शीर्ष पर पहुँचाने का उत्कृष्ट माध्यम था। अपने युग के प्रति जागरुक रहने के साथ-साथ साहित्य की नवीन शैली का प्रादुर्भाव करने का श्रेय इस पत्र को है।
‘‘अगस्त 1927 में गंगा पुस्तकालय कार्यालय लखनऊ से दुलारेलाल भार्गव ने हिंदी मासिक पत्रिका ‘सुधा’ का प्रकाशन किया। 20 पृष्ठ की यह सचित्र पत्रिका गंगा फाइन आर्ट प्रेस से छपती थी।’’24 संपादन पं. रूपनारायण पाण्डेय ने किया। इस पत्रिका का मूल उद्देश्य बेहतर साहित्य उत्पन्न करना, नए लेखकों को प्रोत्साहन देना, कृतियों को पुरस्कृत करना व विविध विषयों पर लेख छापना था। ‘निराला’ के आगमन से ‘सुधा’ को एक नई दिशा मिली। इस पत्रिका के प्रमुख विषयों में समाज सुधार, विज्ञान से लेकर साहित्य और गृह विज्ञान की सामग्री भी प्रकाशित होती थी। ‘‘सुधा’ के संपादक और प्रकाशक ने पत्रिका के लिए भारतेन्दु हरीश्चंद्र की ‘हरीश्चंद्र चन्द्रिका’, बालकृष्ण भट्ट के ‘हिंदी प्रदीप’, प्रतापनारायण मिश्र के संस्करण चार हजार प्रतियों का निकला। साहित्य, समाज और राजनीति के सभी विषयों पर सिद्धहस्त लेखकों की रचनाएं ‘सुधा’ में प्रकाशित होती थीं।’’25
छायावाद की पत्रकारिता इस दृष्टिकोण से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थी कि भाषा का एक नया संस्कार और भाषा में कोमलता-प्रांजलता लाने का श्रेय इस युग की पत्रिकाओं को था।
एक ओर इन पत्रिकाओं के माध्यम से स्वच्छंदतावाद की स्थापना हुई वहीं सामाजिक, राजनीतिक घटनाओं को स्वर मिला। अनेक सुंदर कविताओं का प्रकाशन इस युग की पत्रिकाओं में हुआ। ‘जूही की कली’, ‘सरोज स्मृति’, ‘बादल राग’ जैसी निराला की उत्कृष्ट कविताएँ ‘मतवाला’ में प्रकाशित हुईं। ‘जूही की कली’ को मुक्त छंद के प्रवर्तन का श्रेय दिया जाता है।
‘चाँद’ पत्रिका में ही महादेवी वर्मा का अधिकांश साहित्य छपा। ‘छायावाद’ के प्रसिद्ध रचनाकारों में से सुमित्रानंदन पंत जी ने ‘रूपाभ’ का प्रकाशन किया।
प्रेमचंद ने 1932 में ‘जागरण’ और 1936 में ‘हंस’ का प्रकाशन किया। ‘हंस’ का उद्देश्य समाज का आह्वान करना था। ‘हंस’ साहित्यिक पत्रिका थी जिसमें साहित्य की विविध विधाओं का प्रकाशन किया जाता था। महात्मा गाँधी की अहिंसा को साहित्य के माध्यम से स्थापित करने वाले प्रेमचंद ने ‘हंस’ में भी इसी आदर्श को स्वर दिया। स्वतंत्रता के प्रति महात्मा गाँधी के निरंतर प्रयास को महसूस करते हुए ‘हंस’ ने लिखा- भारत के कर्णधार महात्मा गाँधी ने इस विचार की सृष्टि कर दी। अब वह बढ़ेगा, फूले फलेगा। हमारा यह धर्म है कि उस दिन को जल्द से जल्द लाने के लिए तपस्या करते रहें। यही हंस का ध्येय होगा और इसी ध्येय के अनुकूल उसकी नीति होगी।
गाँधी की नीतियों का समर्थन, स्वराज्य स्थापना के लिए जागरण का प्रयास और साहित्यिक विधाओं का विकास ही ‘हंस’ का लक्ष्य था। प्रेमचंद के पश्चात् शिवरानी देवी, विष्णुराव पराड़कर, जैनेन्द्र, शिवदान सिंह चैहान, अमृतराय, राजेन्द्र यादव ने इस पत्रिका का संपादन किया। ‘हंस’ अब एक नए रूप में और नए आदर्श-यथार्थ को समन्वित करके नए ज्वलंत प्रश्नों को उभारते हुए दिल्ली से निकाली जा रही है। अब इसका प्रमुख स्वर- किसान और स्त्री एवं दलित पीड़ा का है। इन तीनों वर्गों की सशक्त उपस्थिति इसमें देखी जा सकती है। शोषित वर्ग की आवाज ‘हंस’ में प्रमुखता से स्थान प्राप्त कर रही है।
स्वतंत्रता से पूर्व अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं ने दोहरे कार्य को लेकर उसे पूर्ण करने का प्रयास किया –
1. राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार
2. साहित्य की विविध विधाओं का विकास
इसी के साथ भाषा के विविधवर्णी रंगों की खोज और साहित्य के दोनों पक्षों गद्य एवं पद्य की स्थापना करना भी इनका लक्ष्य था जिसे कवि-हृदय पत्रकारों ने पूर्ण किया।
इनमें से अधिकाँश साप्ताहिक हैं, परंतु जनमन के निर्माण में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है। जहाँ तक पत्र कला का सम्बंध है वहाँ तक हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि तीसरे और चैथे युग के पत्रों में धरती और आकाश का अंतर है। आज पत्र-संपादन वास्तव में उच्च कोटि की कला है। राजनीतिक पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘आज’ (1921 ई.) और उसके संपादक बाबूराव विष्णु पराड़कर का लगभग वही स्थान है जो साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को प्राप्त है। सच तो यह है कि ‘आज’ ने पत्र-कला के क्षेत्र में एक महान संस्था का काम किया है और उसने हिंदी को बीसियों पत्र-संपादक और पत्रकार दिए हैं।
आधुनिक साहित्य के अनेक अंगों की भाँति हिंदी पत्रकारिता भी नई कोटि की है और उसमें भी मुख्यतः हमारे मध्यम वर्ग की सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और राजनीतिक हलचलों का प्रतिबिम्ब का स्वर है। वास्तव में पिछले 200 वर्षों का सच्चा इतिहास हमारी पत्र-पत्रिकाओं से ही संकलित हो सकता है। बँगला के ‘कलेर कथा’ ग्रंथ में पत्रों के अवतरणों के आधार पर बंगाल के उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यमवर्गीय जीवन के आकलन का प्रयत्न हुआ है। हिंदी में भी ऐसा प्रयत्न वांछनीय है। एक तरह से उन्नीसवीं शती में साहित्य कही जा सकने वाली चीज बहुत कम है और जो है भी, वह पत्रों के पृष्ठों में ही पहले-पहल सामने आई है। भाषा-शैली के निर्माण और जातीय-शैली के विकास में पत्रों का योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहा है, परंतु बीसवीं शती के पहले दो दशकों के अंत तक मासिक-पत्र और साप्ताहिक-पत्र ही हमारी साहित्यिक प्रवृत्तियों को जन्म देते और विकसित करते रहे हैं। द्विवेदी युग के साहित्य को हम ‘सरस्वती’ और ‘इंदु’ में जिस प्रयोगात्मक रूप में देखते हैं, वही उस साहित्य का असली रूप है। 1921 ई. के बाद साहित्य बहुत कुछ पत्र-पत्रिकाओं से स्वतंत्र होकर अपने पैरों पर खड़ा होने लगा, परंतु फिर भी विशिष्ट साहित्यिक आंदोलनों के लिए हमें मासिक पत्रों के पृष्ठ ही उलटने पड़ते हैं। राजनीतिक चेतना के लिए तो पत्र-पत्रिकाएं हैं ही। वस्तुतः पत्र-पत्रिकाएं जितनी बड़ी जनसंख्या को छूती हैं, विशुद्ध साहित्य का उतनी बड़ी जनसंख्या तक पहुँचना असंभव है।
भारत और भारतीय पत्रकारिता के लिए यह दौर महŸवूर्ण एवं निर्णायक दौर था। स्वतंत्रता आंदोलन में पूरी ताकत लगा दी गयी थी। गुलामी की जंजीर बस टूटने को हैं, लगातार यही लगता रहा परंतु अंग्रेज थे कि अपने अस्तित्व को बचाने के लिए नयी-नयी चालें चल रहे थे। उनकी चालों को समझते हुए साहित्यिकों ने भी राजनीतिक लेख लिखने प्रारंभ कर दिये थे। एक से बढ़कर एक लेख लिखे जा रहे थे। विशेषांक निकाले जा रहे थे। हिंदी पत्रकारिता भी इस दौर में निर्णायक भूमिका निभा रही थी। नये प्रतिमान बन रहे थे और परंपराएं टूट रही थीं। कुल मिलाकर हिंदी साहित्यकारों के सामने इस दौर में बड़ी चुनौती रही, जिसका सामना इस दौर के साहित्यकारों और पत्रों ने बखूबी किया भी।
संदर्भ
1. डाॅ. गिरिराजशरण अग्रवाल-चंद्रमणि रघुवंशी, हिंदी पत्रकारिता: विविध आयाम, उ.प्र. श्रमजीवी पत्रकार यूनियन (पंजी.) बिजनौर, पृ. 32
2. हिंदी पत्रकारिता: भरतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक पृ. 79
3. डाॅ. शंकर बसंत मुदगल, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास, चंद्रलोक प्रकाशन, पृ. 147
4. डाॅ. शंकर बसंत मुदगल, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास, चंद्रलोक प्रकाशन, पृ. 147
5. कृष्णबिहारी मिश्र, हिंदी पत्रकारिता, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ. 343
6. हिंदी पत्रकारिता: भरतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक पृ. 79
7. गंगा नारायण त्रिपाठी, हिंदी पत्रकारिता एवं गद्यशैली का विकास, शांति प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 27
8. गंगा नारायण त्रिपाठी, हिंदी पत्रकारिता एवं गद्यशैली का विकास, शांति प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 27
9. कृष्णबिहारी मिश्र, हिंदी पत्रकारिता, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ. 338
10. कृष्णबिहारी मिश्र, हिंदी पत्रकारिता, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ. 341
11. कृष्णबिहारी मिश्र, हिंदी पत्रकारिता, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ. 344
12. कृष्णबिहारी मिश्र, हिंदी पत्रकारिता, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ. 345
13. कृष्णबिहारी मिश्र, हिंदी पत्रकारिता, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ. 362
14. डाॅ. गिरिराजशरण अग्रवाल-चंद्रमणि रघुवंशी, हिंदी पत्रकारिता: विविध आयाम, उ.प्र. श्रमजीवी पत्रकार यूनियन (पंजी.) बिजनौर, पृ. 37
15. विजयदत्त श्रीधर, हिंदी पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 723
16. विजयदत्त श्रीधर, हिंदी पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 723
17. जगदीश चतुर्वेदी, पत्रकारिता के परिप्रेक्ष्य, साहित्य संगम, इलाहाबाद, पृ. 132
18. विजयदत्त श्रीधर, हिंदी पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 876
19. विजयदत्त श्रीधर, हिंदी पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 879
20. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 771
21. डाॅ. धीरेन्द्रनाथ सिंह, हिंदी पत्रकारिता: भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 87
22. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 775
23. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 769
24. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 860
25. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 860

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