अमन कुमार
तत्कालीन परिस्थितियाँ
इस समय देश के हालात बहुत अच्छे नहीं थे। भारत की सत्ता मुगलों के हाथों से लगभग निकल चुकी थी। पुर्तगालियों का असर भी कम हुआ था और अंग्रेज संपूर्ण भारत को अपने अधीन कर चुके थे। ‘‘उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के भारतीय जनजीवन में ब्रिटिश साम्राज्य की दहशत थी अपनी चालाकी और बर्बरता के बल पर हमारे स्वामी बन बैठे।’’1 अंगे्रजों भारतीयों से सामंजस्य नहीं बना सके थे। तभी ‘‘1824 में बर्मा से युद्ध छिड़ गया जो दो वर्ष यानी 1826 तक चला।’’2 देश में तेजी से बदलाव हो रहे थे। ‘‘1824 ई. में ही बैरकपुर के सैनिकों के विद्रोह की घटना भी घटित हुई।’’3 अर्थात् यह बदलावों एवं विरोधों का काल था। अंग्रेजी एवं बंगला भाषाओं में अनेक पत्र प्रकाशित होने के बाद जब 1826 में ‘उदन्त मार्तण्ड’ ‘‘हिंदी का प्रथम साप्ताहिक’’4 प्रारंभ हुआ तो भारतीय जनमानस को अपनी बात कहने के लिये समाचार-पत्र के रूप में एक हथियार मिल रहा था। अंग्रेजों के प्रतिबंध लगाने के बावजूद समाचार-पत्र निकालने की इच्छाएं प्रबल हो रही थी। अंग्रेजों की छटपटाहट देखते हुए पत्रकारिता में रोचकता बढ़ रही थी। सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में कई भारतीय अख़बार अपना असर दिखा चुके थे। साहित्यकार, समाजसेवी और आजादी चाहने वाले राजाओं ने मिलकर जो पत्रकारिता की वह अंग्रेजों पर भारी पड़ रही थी। उस समय का लगभग हर साहित्यकार पत्रकार हो चुका था और साहित्य के माध्यम से कागज के पन्नों पर विरोध के स्वर उकेर रहा था। हद तो तब हो गई जब ‘‘विद्रोह से पूर्व उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र के अख़बारों को गहन जाँच से गुजरना पड़ता था। इस दौरान एकमात्र आपत्तिजनक लेख प्रकाशित हुआ। इसमें अंग्रेजों को भारत से भगाने के प्रयास सम्बंधी विचार छपते थे, जिससे कई प्रकार का आशंकाएं जन्म लेती थीं। 1852 में संपादकीय पद के दुरुपयोग के दो मामले प्रकाश में आए। एक मामले में न्यायालय से संपादक पर उसके विरुद्ध शिकायत के सम्बंध में गवाही देने के लिए सम्मन जारी किया गया और दूसरे मामले में एक संपादक को एक अधिकारी के विरुद्ध अपमानजनक लेख प्रकाशित करने के आरोप में दो माह कैद की सजा हुई। इस समय के अख़बार जनमत को स्पष्ट रूप से रखने और जनता की समस्याओं को ठीक से उठाने में असफल रहे।’’5 परंतु पत्रकारिता को यहाँ रुकना नहीं था वरन् उसे बहुत आगे जाना था। पत्रकारिता के माध्यम से जो सपने भारतीयों ने देखे थे। उन्हें अभी पूरा होने थे। परिस्थितियाँ निरंतर बदल रही थीं। पत्रकारिता की ताकत से घबराते हुए ‘‘लार्ड कैनिंग ने छापाखानों की स्थापना के नियम एवं मुद्रित पुस्तकों व समाचार पत्रों की प्रसार-संख्या पर नियंत्रण रखने सम्बंधी जून 1857 का अधिनियम लाते समय अपने भाषण में जो कुछ कहा, उससे एक अलग ही तस्वीर सामने आती है। उन्होंने कहा- ‘‘मुझे ऐसा लगता है कि देशी समाचारपत्रों ने पिछले कुछ हफ्तों के दौरान भारतीयों को जानकारी या सूचना देने की आड़ में जिस तरह की भड़काऊ खबरें प्रकाशित की हैं, उसके सम्बंध में इग्लैंड के लोगों को जानकारी भी नहीं है।
यह सब जान-बूझकर बड़ी चतुराई और होशियारी से किया गया है। तथ्यों को इस कदर तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है कि इसे पढ़ने वालों के दिलो-दिमाग में विरोध और घृणा की भावना घर कर जाए।
तथ्यों को गलत ढंग से पेश करने के अलावा, सरकार के सम्बंध में निरंतर दुर्भावनापूर्ण बातें प्रकाशित की जाती रही हैं, सरकार के कार्यों की गलत व्याख्या की जाती रही है और सरकार व जनता के बीच असंतोष भड़काने की हद से ज्यादा कोशिशें की जा रही हैं।
हालाँकि मैं यूरोपीय प्रेस के संचालकों की निष्ठा व बुद्धिमता का कायल हूँ, किंतु मुझे यह कहना पड़ रहा है कि उनके द्वारा प्रकाशित कुछ अख़बारों में भी मैंने ऐसी चीजें छपी पाई हैं, जिनका अन्य लोग देशी जनता को गुमराह करने के लिए दुरुपयोग कर सकते है। हालांकि ऐसी खबरें यूरोपीयों के लिए बिल्कुल सामान्य हैं। मुझे खुशी है कि यह विधेयक यूरोपीय प्रेस पर ही विशेष तौर पर लागू नहीं किया जा रहा है, मुझे इसकी कोई वजह समझ में नहीं आती, और न ही यह न्यायपूर्ण प्रतीत होता है कि यूरोपीय व देशी प्रेस के बीच किसी प्रकार का विभेद किया जाए। लिहाजा, यह विधेयक हर भाषा में मुद्रित सामग्री पर, हर व्यक्ति पर लागू होगा, जो ऐसी छपी सामग्री के लिए उत्तरदायी हो।
‘‘मैं परिषद् से यह छिपा नहीं सकता कि मैंने इन प्रस्तावों को बड़े बेमन से पेश किया है। यह एक ऐसा प्रस्ताव है, जिसे अंग्रेजी माहौल में पला-बढ़ा कोई भी व्यक्ति, बिना किसी खेद या हिचक के उन लोगों के समक्ष पेश नहीं कर सकता, जिन्हें अंग्रेजी साम्राज्य के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया है। किंतु हर राज्य के जीवन में ऐसा समय जरूर आता है, जब उसे जन-कल्याण हेतु छोड़ देना चाहिए, जिनका वह लाभ उठाता रहा है, जिनकी आमतौर पर रक्षा की जाती रही है। इस समय भारत की स्थिति कुछ ऐसी ही है। इस प्रकार का समय हमारे सम्मुख आया है। अख़बारों की आजादी कोई अपवाद नहीं है।’’
बंबई से लार्ड एलफिंस्टन ने इस पर प्रतिबंध लगाए जाने के समर्थन में एक कड़ी टिप्पणी की, हालांकि उनके पास इस क्षेत्र के अख़बारों के खिलाफ शिकायत के पर्याप्त कारण नहीं थे। इसका उद्देश्य प्रस्तावित अधिनियम के खिलाफ इंग्लैंड या भारत से सम्भावित विरोध के मद्देनजर गवर्नर-जनरल का हाथ मजबूत करना था।
छापाखानों की स्थापना को नियमित करने और कुछ मामलों में मुद्रित पुस्तकों और अख़बारों के वितरण पर रोक लगाने के लिए 1857 की धारा संख्या ग्ट पारित हुई। इस कानून में 1823 ई. के एडम-लाइसेंसिंग कानून को फिर से शामिल किया गया था। इस कानून के तहत सरकार को लाइसेंस प्राप्त किए बिना छापाखाना स्थापित करने पर रोक लगाने का प्रावधान था। सरकार के पास यह अधिकार था कि वह अपने विवेक से लाइसेंस जारी करे और किसी भी समय उसे रद्द कर दे। इस कानून से सरकार को किसी भी अख़बार, पुस्तक या अन्य कोई मुद्रित वस्तु के प्रकाशन या वितरण पर रोक लगाने का अधिकार हासिल हो गया। अंग्रेजी अख़बारों या भारतीय भाषा के अख़बारों के लिए इस कानून में कोई अंतर नहीं था। यह कानून पूरे भारत में एक वर्ष (अर्थात् 13 जून 1858 तक) के लिए प्रभावी रहा। लाइसेंस प्राप्त करने की पुरानी विधि अप्रभावी हो गई और लाइसेंसधारी छापाखानों के लिए निम्न शर्तें लागू की गईं:
ऐसे किसी प्रेस से ऐसी किसी पुस्तक, पर्चा, अख़बार या अन्य सामग्री मुद्रित नहीं होगी, जो या तो इंग्लैंड या भारत के ब्रिटिश शासन के खिलाफ षड्यंत्र वाला हो या जिसके दृष्टांत या बयान से विरोध का आभास होता हो या इस सरकार के खिलाफ घृणा, विद्वेष व असंतोष की भावना फैलाए या गैर-कानूनी प्रतिरोध उत्पन्न कर उसकी अवमानना करे या उसके कानूनी संस्था या असैनिक या सैनिक कर्मचारियों के कानूनी अधिकार को कमजोर करे।
ऐसी कोई पुस्तक, पर्चा, अख़बार या अन्य सामग्री प्रकाशित नहीं की जाएगी, जिसके धार्मिक विचार और निष्कर्ष में कोई बयान या दृष्टांत ऐसे हों, जो सरकार द्वारा किसी प्रायोजित हस्तक्षेप की देशी कार्यवाही में संदेह या खतरा पैदा करने वाली हो।
ऐसी कोई पुस्तक, पर्चा, अख़बार या अन्य सामग्री प्रकाशित नहीं की जाएगी, जिसमें ऐसा कोई निष्कर्ष हो, जो अंग्रेज सरकार और देशी राजाओं, प्रमुखों या इस पर निर्भर या इससे संधि किए हुए राज्यों के बीच की मित्रता को कमजोर करे।’’6
सन् 1819 ई. में भारतीय भाषा में पहला समाचार-पत्र प्रकाशित हुआ था। वह बंगाली भाषा का पत्र – ‘संवाद कौमुदी’ (बुद्धि का चांद) था। उस के प्रकाशक राजा राममोहन राय थे। 1822 में गुजराती भाषा का साप्ताहिक ‘मुंबईना समाचार’ प्रकाशित होने लगा, जो दस वर्ष बाद दैनिक हो गया और गुजराती के प्रमुख दैनिक के रूप में आज तक विद्यमान है। भारतीय भाषा का यह सब से पुराना समाचार-पत्र है।
तत्पश्चात अनेक पत्र निकले। इन पत्रों में से कुछ मासिक थे, कुछ साप्ताहिक। दैनिक पत्र केवल एक था ‘समाचार सुधावर्षण’ जो द्विभाषीय (बंगला हिंदी) था और कलकत्ता से प्रकाशित होता था। यह दैनिक पत्र 1871 ई. तक चलता रहा। बहुत से पत्र द्विभाषीय (हिंदी-उर्दू) थे और कुछ तो पंचभाषीय तक थे। इससे भी पत्रकारिता की अपरिपक्व दशा ही सूचित होती है। हिंदी प्रदेश के प्रारंभिक पत्रों में ‘बनारस अख़बार’ काफी प्रभावशाली था और उसी की भाषानीति के विरोध में 1850 ई. में तारामोहन मैत्र ने काशी से साप्ताहिक ‘सुधाकर’ और 1855 ई. में राजा लक्ष्मणसिंह ने आगरा से ‘प्रजाहितैषी’ का प्रकाशन आरंभ किया था। राजा शिवप्रसाद का ‘बनारस अख़बार’ उर्दू भाषाशैली को अपनाता था तो ये दोनों पत्र पंडिताऊ तत्समप्रधान शैली की ओर झुकते थे। इस प्रकार 1867 ई. से पहले भाषाशैली के सम्बंध में हिंदी पत्रकार किसी निश्चित शैली का अनुसरण नहीं कर सके थे। इस वर्ष ‘कवि वचनसुधा’ का प्रकाशन हुआ और एक तरह से हम उसे पहला महŸवपूर्ण पत्र कह सकते हैं। पहले यह मासिक था, फिर पाक्षिक हुआ और अंत में साप्ताहिक। भारतेन्दु के बहुविध व्यक्तित्व का प्रकाशन इस पत्र के माध्यम से हुआ, परंतु सच तो यह है कि ‘हरीश्चंद्र मैगजीन’ के प्रकाशन (1873 ई.) तक वे भी भाषाशैली और विचारों के क्षेत्र में मार्ग ही खोजते दिखाई देते हैं।
समाचारपत्र व पत्रिकाएं अंग्रेजों की कूटनीति, भारतीय समाज में फैले घोर अंधविश्वासों और गुलामी की जंजीरों को तोड़ डालने की चाह में निकलते गये।
उन दिनों सरकारी सहायता के बिना, किसी भी पत्र का चलना प्रायः असंभव था। कम्पनी सरकार ने मिशनरियों के पत्र को तो डाक आदि की सुविधा दे रखी थी, परंतु चेष्टा करने पर भी ‘उदन्त मार्तण्ड’ को यह सुविधा प्राप्त नहीं हो सकी। इस पत्र में ब्रज और खड़ीबोली दोनों के मिश्रित रूप का प्रयोग किया जाता था, जिसे इस पत्र के संचालक ‘मध्यदेशीय भाषा’ कहते थे।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद तो अंग्रेज जैसे बोखला ही गये थे। उन्होंने प्रेस की आजादी छीन ली थी मगर आजादी के दिवानों क हौसलों को वह छीन नहीं पाये। हिंदी पत्रकारिता ने एक कालजयी साहित्यिक पत्रकार भारतेन्दु हरीशचंद्र के रूप में पाया। ‘‘सन् 1867 ई. में हिंदी पत्रकारिता को भारतेन्दु हरीश्चंद्र ने एक नया जीवन और संबल प्रदान किया। 10 वर्षों बाद भारतेन्दु जी ने सन् 1876 ई. में ‘कवि वचन सुधा’ का प्रकाशन किया।’’7
भारतेन्दु हरीश्चंद्र (9 सितंबर, 1850-7 जनवरी 1885 ई.) आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। वे हिंदी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम ‘हरीश्चंद्र’ था, ‘भारतेन्दु’ उनकी उपाधि थी। उनका कार्यकाल युग की सन्धि पर खड़ा है। उन्होंने रीतिकाल की विकृत सामन्ती संस्कृति की पोषक वृत्तियों को छोड़कर स्वस्थ्य परंपरा की भूमि अपनाई और नवीनता के बीज बोए। हिंदी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारंभ भारतेन्दु हरीश्चंद्र से माना जाता है। भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेन्दु जी ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण के चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया। हिंदी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया।
भारतेन्दु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिंदी पत्रकारिता, नाटक और काव्य के क्षेत्र में उनका बहुमूल्य योगदान रहा। हिंदी में नाटकों का प्रारंभ भारतेन्दु हरीश्चंद्र से माना जाता है। भारतेन्दु के नाटक लिखने की शुरुआत बंगला के विद्यासुंदर (1867 ई.) नाटक के अनुवाद से होती है। यद्यपि नाटक उनके पहले भी लिखे जाते रहे किंतु नियमित रूप से खड़ीबोली में अनेक नाटक लिखकर भारतेन्दु ने ही हिंदी नाटक की नींव को सुदृढ़ बनाया। उन्होंने ‘हरीश्चंद्र पत्रिका’, ‘कविवचन सुधा’ और ‘बाला बोधिनी’ पत्रिकाओं का संपादन भी किया। वे एक उत्कृष्ट कवि, सशक्त व्यंग्यकार, सफल नाटककार, जागरुक पत्रकार तथा ओजस्वी गद्यकार थे। इसके अलावा वे लेखक, कवि, संपादक, निबंधकार, एवं कुशल वक्ता भी थे। भारतेन्दु जी ने मात्र 34 वर्ष की अल्पायु में ही विशाल साहित्य की रचना की। पैंतीस वर्ष की आयु (सन् 1885) में उन्होंने मात्रा और गुणवत्ता की दृष्टि से इतना लिखा, इतनी दिशाओं में काम किया कि उनका समूचा रचनाकर्म पथदर्शक बन गया।
1826 ई. से 1900 ई. तक को हम हिंदी पत्रकारिता का प्रारंभ काल अथवा नवजागरण काल कह सकते हैं। 1873 ई. में भारतेन्दु ने ‘हरीश्चंद्र मैगजीन’ की स्थापना की। एक वर्ष बाद यह पत्र ‘हरीश्चंद्र चंद्रिका’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। वैसे भारतेन्दु का ‘कविवचन सुधा’ पत्र 1867 में ही सामने आ गया था और उसने पत्रकारिता के विकास में महŸवपूर्ण भाग लिया था परंतु नई भाषाशैली का प्रवर्तन 1873 ई. में ‘हरीश्चंद्र मैगजीन’ से ही हुआ।
पत्रकारिता का प्रारंभिक काल होने के कारण काफी परेशानियाँ संपादकों को होती थी। एक तरफ अंग्रेज सरकार तंग करती थी दूसरी तरफ ‘‘समाचार प्राप्त करने में बहुत कठिनाई होती थी। संवाद-दाताओं की बहुत कमी थी। बाहर से भी समाचार कम ही मिल पाते थे।’’8
पत्रकारिता में हिंदी साहित्यकार
सन् 1826 से 1900 तक का समय भारतीय जनमानस, भारतीय पत्रकारिता और हिंदी गद्यशैली के लिये महŸवपूर्ण समय था। इस युग में ‘‘पत्रकारिता के मिशन का नेतृत्व भारतेन्दु हरीश्चंद्र, बदरीनारायण चैधरी ‘प्रेमघन’, प्रातापनारायण मिश्र, पण्डित बालकृष्ण भट्ट, के. केशवराम भट्ट, रामदीन सिंह, लाला श्रीनिवास दास संपादकों ने किया। पूरे युग में नवचेतना जगाने का नेतृत्व भारतेन्दु हरीश्चंद्र ने किया। किंतु वे पूरे युग की प्रवृत्ति नहीं थे। अतः मुख्य प्रवृत्ति नवजागरण के कारण उस युग का नामकरण नवजागरण काल कहा जायगा।’’9 यह वह काल था जब देश को पत्रकारिता की सर्वाधिक आवश्यकता थी। ‘‘उस समय विक्टोरिया महारानी के राज का जय-जयकार हो रहा था और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना भी नहीं हुई थी फिर भी भारतेन्दु हरीश्चंद्र ने पत्र निकालते समय यह उद्देश्य रखे थे कि भारत अपना स्वत्व यानी स्वाधीनता प्राप्त करे। करों का जो दुःख है वह दूर हो। नारी-नर बराबर हों, संसार में आनंद हो और काव्य में संस्कार हो। इस प्रकार राष्ट्रीय, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सभी पहलुओं पर इस पत्र ने प्रकाश डालना प्रारंभ किया।’’10
नवजागरण काल में निकलने वाली पत्र-पत्रिकाएं साहित्यिक ही थीं। जो साहित्यिक भाषा में न सिर्फ ब्रिटिश शासन का विरोध कर रही थीं बल्कि भारतीय जनमानस में फैले अंधविश्वासों को दूर करने का काम भी कर रही थीं। यही वह काल है जिसमें हिंदी गद्यशैली का तीव्र विकास हो रहा था। ‘‘उस युग में जितनी भी पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हुई उनका स्वरूप साहित्यिक तो था पर वह केवल साहित्यिक विचारों तक ही सीमित नहीं थीं। वे साहित्य के माध्यम से युग-सत्य को व्यक्त करती थीं। पत्रों की मुख्य चेतना राष्ट्रीय भावना जगाना, समाज-सुधार, हिंदी भाषा और साहित्यक को नया स्वरूप देना, देश को पराधीनता से मुक्त कराना, स्वदेशी चेतना जगाना लक्ष्य था। युग की स्थितियों की अभिव्यक्ति उन पत्रों में हुई। उस काल के पत्र अपनी युगीन चेतना की अभिव्यक्ति हैं। वस्तुतः देश के निर्माण में उस युग के पत्रों की मुख्य भूमिका थी। उन पत्रों ने हिंदी भाषा और साहित्य को नया स्वरूप प्रदान किया। नाटक, निबंध, उपन्यास, कविताएँ, यात्रा-वर्णन आदि सभी विधाओं को परिपुष्ट किया। साथ ही नाटकों तथा काव्यों के माध्यम से जन-मन में राष्ट्रीय चेतना जगायी।
समाज-सुधार के क्षेत्र में आर्य समाज के आंदोलन ने भारतीयता की भावना को पुष्ट करने तथा हिन्दू कर्मकाण्ड में संशोधन कर नयी दिशा दी। स्वामी दयानंद के आर्य समाज ने पूरे देश और विशेषतः उत्तर भारत में हिंदी, हिन्दू और हिन्दुस्तान को एक सूत्र में बाँधने का कार्य किया। आर्य समाज ने हिंदी भाषा को जन-जन तक पहुँचाया और इसे देश की मुख्य भाषा के रूप में स्थापित करने में सहयोग दिया।
‘ब्रह्म समाज’ और ‘प्रार्थना सभा’ का भी उस युग में व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। बंगाल से पंजाब तक सामाजिक सुधार की यह धारा चली। समाज-सुधार का यह आंदोलन बंग समाज तक ही सीमित रहा। युग की सांस्कृतिक चेतना को जगाने के क्षेत्र में उस युग ने हिंदी रंगमंच को नयी दिशा दी। नाटकों के मंचन की इतनी सूचनाएँ और समीक्षा प्रकाशित की गयीं जिससे हिंदी रंगमंच को नयी चेतना मिली और उसका अपना इतिहास और उसकी परंपरा स्थापित हुई। काशी, पटना, कानपुर, लखनऊ और कलकत्ता हिंदी नाटकों के मंचन के प्रमुख केन्द्र थे। पत्रों ने स्थानीय, प्रादेशिक और विदेशी समाचारों से भी जनता को अवगत कराया, अपने पाठकों को ज्ञानवर्धन, मनोरंजन तथा उनकी समस्याओं को उजागर करने तथा उसका समाधान करने में योगदान किया।
भारतेन्दु उस युग के ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन, विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार, अपनी भाषा का सम्मान, पराधीनता से मुक्ति के लिए संघर्ष करने का संदेश दिया जिसे महात्मा गाँधी के राष्ट्रीय आंदोलन के व्यावहारिक स्वरूप में देखा जा सकता है।
समाचारपत्रों के इतिहास के इस नवजागरण-काल में हिंदी समाचारपत्रों को अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व प्राप्त हुआ। पत्रों के संचालक या संपादक सभी साहित्यकार थे जिनका उद्देश्य साहित्य-सेवा तो था किंतु वह सेवा केवल साहित्य तक ही नहीं बल्कि देश की समस्याओं से संघर्ष करना भी उनका लक्ष्य था।
किसी भी समाचारपत्र के लिए अग्रलेख जरूरी है। उस युग के संपादकों के ‘कविवचन सुधा’, ‘हरीश्चंद्र चन्द्रिका’, ‘बाला बोधिनी’, ‘हिंदी प्रदीप’, ‘ब्राह्मण’, ‘क्षत्रिय पत्रिका’, ‘आनंद कादम्बिनी’, ‘पीयूष-प्रवाह’, प्रभृति पत्रिकाओं में प्रकाशित लेख जहाँ जनचेतना जगाने का आह्वान करते हैं, वहीं वे हिंदी निबंध की जननी भी हैं। वस्तुतः हिंदी समाचारपत्रों से ही हिंदी निबंधों का उद्भव और विकास हुआ। नवजागरण काल की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है। भारतेन्दु के हँसमुख निबंधों का उद्भव उनकी पत्रिका ‘कवि-वचन-सुधा’ और ‘हरीश्चंद्र चन्द्रिका’ से ही हुआ। इस प्रकार उस युग में समाचार-पत्रों के नवजागरण-काल ने हिंदी-समाचार-पत्रों को सुव्यवस्थित स्वरूप और स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रदान किया।’’11
भारतेन्दु के बाद इस क्षेत्र में जो पत्रकार आए उनमें प्रमुख थे पंडित रुद्रदत्त शर्मा, (भारतमित्र, 1877 ई.), बालकृष्ण भट्ट (हिंदी प्रदीप, 1877 ई.), दुर्गाप्रसाद मिश्र (उचित वक्ता, 1878 ई.), पंडित सदानंद मिश्र (सारसुधानिधि, 1878 ई.), पंडित वंशीधर (सज्जनकीर्ति सुधाकर, 1878 ई.), बदरीनारायण चैधरी ‘प्रेमधन’ (आनंदकादंबिनी, 1881 ई.), देवकीनंदन त्रिपाठी (प्रयाग समाचार, 1882 ई.), राधाचरण गोस्वामी (भारतेन्दु, 1882 ई.), पंडित गौरीदत्त (देवनागरी प्रचारक, 1882), राज रामपाल सिंह (हिंदुस्तान, 1883ई), प्रतापनारायण मिश्र (ब्राह्मण, 1883 ई.), अंबिकादत्त व्यास, (पीयूषप्रवाह, 1884 ई.), बाबू रामकृष्ण वर्मा (भारतजीवन, 1884), पं. रामगुलाम अवस्थी (शुभचिंतक, 1888 ई.), योगेशचंद्र वसु (हिंदी बंगवासी, 1890 ई.), पं. कुंदनलाल (कवि व चित्रकार, 1891 ई.) और बाबू देवकीनंदन खत्री एवं बाबू जगन्नाथदास (साहित्य सुधानिधि, 1894 ई.)। 1895 ई. में नागरीप्रचारिणी पत्रिका का प्रकाशन आरंभ होता है। इस पत्रिका से गंभीर साहित्यसमीक्षा का आरंभ हुआ और इसलिए हम इसे एक निश्चित प्रकाशस्तंभ मान सकते हैं। 1900 ई. में ‘सरस्वती’ और ‘सुदर्शन’ के अवतरण के साथ हिंदी पत्रकारिता के इस युग का पटाक्षेप हो जाता है।
भारतेन्दु ने सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक दिशाएँ भी विकसित कीं। उन्होंने ही बालाबोधिनी (1874 ई.) नाम से पहला स्त्री-मासिक-पत्र चलाया। कुछ वर्ष बाद महिलाओं को स्वयं इस क्षेत्र में उतरते देखते हैं – भारतभगिनी (हरदेवी, 1888 ई), सुगृहिणी (हेमंतकुमारी, 1889 ई.)। इन वर्षों में आर्यसमाज और सनातन धर्म के प्रचारक विशेष सक्रिय थे।
प्रमुख पत्र
उदन्त मार्तण्ड हिंदी का प्रथम समाचार पत्र था। इसका प्रकाशन मई, 1826 ई. में कलकत्ता से एक साप्ताहिक पत्र के रूप में शुरू हुआ था। कलकत्ता के कालू टोला नामक मोहल्ले की 37 नंबर आमड़तल्ला गली से जुगलकिशोर सुकुल ने सन् 1826 ई. में उदन्त मार्तण्ड नामक एक हिंदी साप्ताहिक पत्र निकालने का आयोजन किया। उस समय अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में तो अनेक पत्र निकल रहे थे किंतु हिंदी में एक भी पत्र नहीं निकलता था। इसलिए ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन शुरू किया गया। इसके संपादक भी श्री युगलकिशोर शुक्ल ही थे। वे मूल रूप से कानपुर संयुक्त प्रदेश के निवासी थे। यह पत्र पुस्तकाकार (12 ग 8) छपता था और हर मंगलवार को निकलता था। इसके कुल 79 अंक ही प्रकाशित हो पाए थे कि डेढ़ साल बाद ‘‘19 दिसंबर 1827 ई. के (79वें) अंक के अंत में जो टिप्पणी प्रकाशित हुई, उसमें पत्र के अंतिम दिनों की कसक मिलती है-
आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त
अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अंत।’’12
इस बीच के अधिकांश पत्र प्रयोग मात्र कहे जा सकते हैं और उनके पीछे पत्रकला का ज्ञान अथवा नए विचारों के प्रचार की भावना नहीं है। ‘उदन्त मार्तण्ड’ के बाद प्रमुख पत्र हैं –
बंगदूत (1829 ई.), प्रजामित्र (1834 ई.), बनारस अख़बार (1845 ई.), मार्तण्ड पंचभाषीय (1846 ई.), ज्ञानदीप (1846 ई.), मालवा अख़बार (1849 ई.), जगद्दीप भास्कर (1849 ई.), सुधाकर (1850 ई.), साम्यदंड मार्तण्ड (1850 ई.), मजहरुलसरूर (1850 ई.), बुद्धिप्रकाश (1852 ई.), ग्वालियर गजेट (1853 ई.), समाचार सुधावर्षण (1854 ई.), दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855 ई.), सर्वहितकारक (1855 ई.), सूरजप्रकाश (1861 ई.), जगलाभचिंतक (1861 ई.), सर्वोपकारक (1861 ई.), प्रजाहित (1861 ई.), लोकमित्र (1835 ई.), भारतखंडामृत (1864 ई.), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865 ई.), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866 ई.), सोमप्रकाश (1866 ई.), सत्यदीपक (1866 ई.), वृतांतविलास (1867 ई.), ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृतांत दर्पण (1867 ई.), विद्यादर्श (1869 ई.), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869 ई.), अल्मोड़ा अख़बार (1870 ई.), आगरा अख़बार (1870 ई.), बुद्धिविलास (1870 ई.), हिंदू प्रकाश (1871 ई.), प्रयागदूत (1871 ई.), बुंदेलखंड अखबर (1871 ई.), प्रेमपत्र (1872 ई.) और बोधा समाचार (1872 ई.), हरीश्चंद्र मैगजीन (1873 ई.), श्री हरीश्चंद्र चंद्रिका (1874 ई.), बाला बोधिनी (स्त्रीजन की पत्रिक, 1874 ई.), भारतमित्र (1877 ई.), हिंदी प्रदीप (1877 ई.), उचित वक्ता (1878 ई.), सारसुधानिधि, (1878 ई.), सज्जन-कीर्ति-सुधाकर (1878 ई.), क्षत्रियपत्रिका (1880 ई.), आनंदकादंबिनी (1881 ई.), प्रयाग समाचार (1882 ई.), भारतेन्दु (1882 ई.), देवनागरी प्रचारक (1882 ई.), हिंदुस्तान (1883 ई.), ब्राह्मण (1883 ई.), नागरी नीरद (1883 ई.), साहित्य सुधानिधि (1894 ई.) पीयूषप्रवाह (1884 ई.), भारतजीवन (1884 ई.), शुभचिंतक (1888 ई.), भारतभगिनी (1888 ई.), सुगृहिणी (1889 ई.), हिंदी बंगवासी (1890 ई.), कवि व चित्रकार (1891 ई.) साहित्य सुधानिधि (1894ई), नागरीप्रचारिणी पत्रिका (1895 ई.)।
इन पत्रों में से कुछ मासिक थे, कुछ साप्ताहिक। दैनिक पत्र केवल एक था ‘समाचार सुधावर्षण’ जो द्विभाषीय (बंगला हिंदी) था और कलकत्ता से प्रकाशित होता था। यह दैनिक पत्र सन् 1871 ई. तक चलता रहा। अधिकाँश पत्र आगरा से प्रकाशित होते थे जो उन दिनों एक बड़ा शिक्षाकेंद्र था और विद्यार्थी समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। शेश ब्रह्मसमाज, सनातन धर्म और मिशनरियों के प्रचार कार्य से सम्बन्धित थे। बहुत से पत्र द्विभाषीय (हिंदी-उर्दू) थे और कुछ तो पंचभाषीय तक थे। इससे भी पत्रकारिता की अपरिपक्व दशा ही सूचित होती है। हिंदी प्रदेश के प्रारंभिक पत्रों में ‘बनारस अख़बार’ (1845) काफी प्रभावशाली था और उसी की भाषानीति के विरोध में 1850 में तारामोहन मैत्र ने काशी से साप्ताहिक ‘सुधाकर’ और सन् 1855 में राजा लक्ष्मणसिंह ने आगरा से ‘प्रजाहितैषी’ का प्रकाशन आरंभ किया था। राजा शिवप्रसाद का ‘बनारस अख़बार’ उर्दू भाषाशैली को अपनाता था तो ये दोनों पत्र पंडिताऊ तत्समप्रधान शैली की ओर झुकते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1867 से पहले भाषाशैली के सम्बंध में हिंदी पत्रकार किसी निश्चित शैली का अनुसरण नहीं कर सके थे। इस वर्ष ‘कवि वचनसुधा’ का प्रकाशन हुआ और एक तरह से हम उसे पहला महत्त्वपूर्ण पत्र कह सकते हैं। पहले यह मासिक था, फिर पाक्षिक हुआ और अंत में साप्ताहिक। भारतेन्दु के बहुविध व्यक्तित्व का प्रकाशन इस पत्र के माध्यम से हुआ, परंतु सच तो यह है कि ‘हरीश्चंद्र मैगजीन’ के प्रकाशन (1873) तक वे भी भाषाशैली और विचारों के क्षेत्र में मार्ग ही खोजते दिखाई देते हैं। अधिकाँश पत्र मासिक या साप्ताहिक थे। मासिक पत्रों में निबंध, नवल कथा (उपन्यास), वार्ता आदि के रूप में कुछ अधिक स्थायी संपत्ति रहती थी, परंतु अधिकांश पत्र 10-15 पृष्ठों से अधिक नहीं जाते थे और उन्हें हम आज के शब्दों में विचारपत्र ही कह सकते हैं। साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उनपर टिप्पणियों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान था। वास्तव में दैनिक समाचार के प्रति उस समय विशेष आग्रह नहीं था और कदाचित् इसीलिए उन दिनों साप्ताहिक और मासिक पत्र कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण थे। उन्होंने जनजागरण में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भाग लिया था।
उन्नीसवीं शताब्दी के इन 25 वर्षों का आदर्श भारतेन्दु की पत्रकारिता थी। कविवचनसुधा (1867 ई.), हरीश्चंद्र मैगजीन (1874 ई.), श्री हरीश्चंद्र चंद्रिका (1874 ई.), बाला बोधिनी (स्त्रीजन की पत्रिका, 1874 ई.) के रूप में भारतेन्दु ने इस दिशा में पथ-प्रदर्शन किया था। उनकी टीका-टिप्पणियों से अधिकारी तक घबराते थे और कविवचनसुधा के ‘पंच’ पर रुष्ट होकर काशी के मजिस्ट्रेट ने भारतेन्दु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेना भी बंद करा दिया था। इसमें संदेह नहीं कि पत्रकारिता के क्षेत्र में भी भारतेन्दु पूर्णतया निर्भीक थे और उन्होंने नए नए पत्रों के लिए प्रोत्साहन दिया। हिंदी प्रदीप, भारतजीवन आदि अनेक पत्रों का नामकरण भी उन्होंने ही किया था। उनके युग के सभी पत्रकार उन्हें अग्रणी मानते थे।
आज वही पत्र हमारी इतिहास चेतना में विशेष महत्त्वपूर्ण हैं जिन्होंने भाषा शैली, साहित्य अथवा राजनीति के क्षेत्र में कोई अप्रतिम कार्य किया हो। साहित्यिक दृष्टि से हिंदी प्रदीप (1877 ई.), ब्राह्मण (1883 ई.), क्षत्रियपत्रिका (1880 ई.), आनंदकादंबिनी (1881 ई.), भारतेन्दु (1882 ई.), देवनागरी प्रचारक (1882 ई.), वैष्णव पत्रिका (पश्चात् पीयूषप्रवाह, 1883), कवि के चित्रकार (1891), नागरी नीरद (1883), साहित्य सुधानिधि (1894) और राजनीतिक दृष्टि से भारतमित्र (1877), उचित वक्ता (1878), सार सुधानिधि (1878), भारतोदय (दैनिक, 1883), भारत जीवन (1884), शुभचिंतक (1887 ई.) और हिंदी बंगवासी (1890 ई.) विशेष महŸवपूर्ण हैं। इन पत्रों में हमारे 19वीं शताब्दी के साहित्यरसिकों, हिंदी के कर्मठ उपासकों, शैलीकारों और चिंतकों की सर्वश्रेष्ठ निधि सुरक्षित है। यह क्षोभ का विषय है कि हम इस महत्त्वपूर्ण सामग्री का पत्रों की फाइलों से उद्धार नहीं कर सके। बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, सदानंद मिश्र, रुद्रदत्त शर्मा, अम्बिकादत्त व्यास और बालमुकुंद गुप्त जैसे सजीव लेखकों की कलम से निकले हुए न जाने कितने निबंध, टिप्पणी, लेख, पंच, हास परिहास और स्केच आज हमें अलभ्य हो रहे हैं। आज भी हमारे पत्रकार उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। अपने समय में तो वे अग्रणी थे ही।
ब्रह्मसमाज और राधास्वामी मत से सम्बंधित कुछ पत्र और मिर्जापुर जैसे ईसाई केंद्रों से कुछ ईसाई धर्म सम्बंधी पत्र भी सामने आते हैं, परंतु युग की धार्मिक प्रतिक्रियाओं को हम आर्यसमाज के और पौराणिकों के पत्रों में ही पाते हैं। आज ये पत्र कदाचित् उतने महत्त्वपूर्ण नहीं जान पड़ते, परंतु इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने हिंदी की गद्यशैली को पुष्ट किया और जनता में नए विचारों की ज्योति भी। इन धार्मिकवाद विवादों के फलस्वरूप समाज के विभिन्न वर्ग और सम्प्रदाय सुधार की ओर अग्रसर हुए और बहुत शीघ्र ही साम्प्रदायिक पत्रों की बाढ़ आ गई। सैकड़ों की संख्या में विभिन्न जातीय और वर्गीय पत्र प्रकाशित हुए और उन्होंने असंख्य जनों को वाणी दी। हालाँकि ‘‘इनमें से बहुत कम पत्र-पत्रिकाएँ ही अधिक समय तक चल सकीं। उन दिनों समाचार-पत्रों के प्रति लोगों में विशेष प्रेम नहीं था। इसलिए आर्थिक कठिनाईयाँ बराबर बनी रहती थीं। फिर भी समय-समय पर समाचार-पत्रों का आविर्भाव होता रहा। इन समाचार-पत्रों द्वारा ही हिंदी-साहित्य में संपादन-कला का सूत्रपात हुआ।’’13
इस प्रकार देखा जाये तो नवजागरण काल न सिर्फ पत्रकारिता के लिये महत्त्वपूर्ण रहा बल्कि स्वतंत्रता और हिंदी गद्यशैली के विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता नजर आता है।
संदर्भ
1. कुश चतुर्वेदी, भारतेन्दु युगीन हिंदी पत्रकारिता, साहित्य संगम, इलाहाबाद, पृ. 1
2. कुश चतुर्वेदी, भारतेन्दु युगीन हिंदी पत्रकारिता, साहित्य संगम, इलाहाबाद, पृ. 1
3. कुश चतुर्वेदी, भारतेन्दु युगीन हिंदी पत्रकारिता, साहित्य संगम, इलाहाबाद, पृ. 1
4. डाॅ. धीरेन्द्रनाथ सिंह, हिंदी पत्रकारिता भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 11
5. जे. नटराजन, भारतीय पत्रकारिता का इतिहास, सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार, पृ. 87
6. जे. नटराजन, भारतीय पत्रकारिता का इतिहास, सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार, पृ. 89
7. गंगा नारायण त्रिपाठी, हिंदी पत्रकारिता एवं गद्यशैली का विकास, शांति प्रकाशन, इलाहाबाद पृ.10
8. राजेन्द्रसिंह गौड़, एम.ए., हिंदी भाषा और साहित्य का विकास, साहित्य भवन प्रा. लि. इलाहाबाद, पृ. 230
9. डाॅ. धीरेन्द्रनाथ सिंह, हिंदी पत्रकारिता: भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, विश्वविद्यालय प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 20
10. जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी, पत्रकारिता के परिप्रेक्ष्य, साहित्य संगम इलाहाबाद, पृ. 118
11. डाॅ. धीरेन्द्रनाथ सिंह, हिंदी पत्रकारिता: भारतेन्दु-पूर्व से छायावादोत्तर-काल तक, विश्वविद्यालय प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 21
12. विजयदत्त श्रीधर, भारतीय पत्रकारिता कोष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 58
13. राजेन्द्रसिंह गौड़, एम.ए., हिंदी भषा और साहित्य का विकास, साहित्य भवन प्रा. लि. इलाहाबाद, पृ. 230