
दिनेश उप्रेती
‘संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है, यदि उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों। यह कौन कह सकता है कि भारत की जनता और उसके दल कैसा आचरण करेंगे। अपना मकसद हासिल करने के लिए वे संवैधानिक तरीके अपनाएंगे या क्रांतिकारी तरीके? यदि वे क्रांतिकारी तरीके अपनाते हैं तो संविधान चाहे जितना अच्छा हो, यह बात कहने के लिए किसी ज्योतिषी की आवश्यकता नहीं कि वह असफल ही रहेगा।’
संविधान बनाने के बाद भीमराव आंबेडकर ने ये भाषण नवंबर 1949 को नई दिल्ली में दिया था।
आंबेडकर के इस भाषण के कुछ ऐसे ही अंश अक्सर तब सुने जाते हैं जब ‘संविधान के अनुरूप काम नहीं करने’ के आरोप सत्तारूढ़ दलों पर लगाए जाते हैं।
संविधान की प्रस्तावना में बदलाव हो, जजों की नियुक्ति की काॅलेजियम प्रणाली हो, दल-बदल क़ानून हो, जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा खत्म करना हो या फिर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की बात।
ऐसे कई मुद्दे हैं जिन्हें लेकर अक्सर पक्ष और विपक्ष में तीखी जुबानी जंग लड़ी जाती रही है और हर मर्तबा हवाला दिया जाता है संविधान का।
वो संविधान जिसे 26 नवंबर 1949 के दिन अपनाया गया और तब से हर साल ये तारीख़ संविधान दिवस के रूप में मनाई जाती है।
भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। इसके अनुच्छेद 368 के आधार पर संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार दिया गया है।
संविधान में पहला संशोधन 1951 में अस्थायी संसद ने पारित किया था। उस समय राज्यसभा नहीं थी। पहले संशोधन के तहत ‘राज्यों’ को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की प्रगति के लिए सकारात्मक कदम उठाने का अधिकार दिया गया था। यूँ तो अब तक संविधान में 105 संशोधन किए जा चुके हैं, लेकिन संविधान की प्रस्तावना में केवल एक बार संशोधन किया गया है।
लघु संविधान
ये संशोधन इंदिरा गांधी के शासन के आपातकाल के दौरान हुआ था। ये 42वां संविधान संशोधन था और अब तक का सबसे व्यापक और विवादास्पद। उस वक्त ऐसा लगा था कि इस संशोधन के द्वारा सरकार कुछ भी बदल सकती है।
शायद यही वजह है कि इसे लघु संविधान भी कहा जाता है। इसमें संविधान की प्रस्तावना में तीन नए शब्द- समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता जोड़े गए।
1976 में किए गए 42वें संशोधन में अहम बात ये थी कि किसी भी आधार पर संसद के फैसले को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी।
साथ ही सांसदों एवं विधायकों की सदस्यता को भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी। किसी विवाद की स्थिति में उनकी सदस्यता पर फैसला लेने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति को दे दिया गया और संसद का कार्यकाल भी पांच साल से बढ़ाकर छह साल कर दिया गया।
इस संविधान संशोधन को लेकर सड़क से लेकर संसद तक जमकर बवाल और सियासत हुई। 1977 में सत्ता में आने के बाद तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार ने इस संशोधन के कई प्रावधानों को 44वें संविधान संशोधन के जरिए रद्द कर दिया। इनमें सांसदों को मिले असीमित अधिकारों को भी नहीं बख्शा गया, हालाँकि संविधान की प्रस्तावना में हुए बदलाव से कोई छेड़छाड़ नहीं की गई।
अब तक हुए संविधान संशोधनों में से कई को अदालत में चुनौती दी गई है, लेकिन देश के उच्चतम न्यायालय ने केवल 99वें संविधान संशोधन को असंवैधानिक करार दिया है। यह संशोधन राष्ट्रीय न्यायिक आयोग (एनजेएसी क़ानून) के गठन के संबंध में था। सुप्रीम कोर्ट ने 16 अक्टूबर 2015 को जजों द्वारा जजों की नियुक्ति की 22 साल पुरानी काॅलेजियम प्रणाली की जगह लेने वाले एनजेएसी क़ानून, 2014 को निरस्त कर दिया था।
पांच जजों की संविधान पीठ ने चार-एक के बहुमत से दिए फैसले में एनजेएसी क़ानून और संविधान (99वां संशोधन) अधिनियम, 2014 दोनों को असंवैधानिक तथा अमान्य घोषित किया था।
लगातार 10 साल तक चली मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को हटाकर एनडीए गठबंधन ने साल 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्ता संभाली। इसके बाद से सरकार के कई फैसलों और इसके द्वारा लाए गए कई नई अध्यादेशों और क़ानूनों को लेकर खासा विवाद रहा है। इस दौरान कुल मिलाकर संविधान में छह संशोधन किए गए।
आइए, जानें मोदी सरकार के आठ साल के शासन के दौरान कितना बदला संविधान।
99वां संविधान संशोधन
नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद एक अहम फैसला लिया, वो था राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन करने की दिशा में आगे बढ़ना। इस आयोग के जरिये केंद्र सरकार न्यायाधीशों का चयन खुद करने में सक्षम हो जाती। क़ानून के तहत प्रावधान ये था कि जजों की नियुक्ति करने वाले इस आयोग की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश को करनी थी।
इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ न्यायाधीश, क़ानून मंत्री और दो जानी-मानी हस्तियां भी इस आयोग का हिस्सा थीं। इन दो हस्तियों का चयन तीन सदस्यीय समिति को करना था जिसमें प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता शामिल थे। इसमें दिलचस्प बात ये थी कि इस क़ानून की एक धारा के तहत अगर आयोग के दो सदस्य किसी नियुक्ति पर सहमत नहीं हुए तो आयोग उस व्यक्ति की नियुक्ति की सिफारिश नहीं करेगा।
इस संविधान संशोधन पर 29 राज्यों में से गोवा, राजस्थान, त्रिपुरा, गुजरात और तेलंगाना समेत 16 राज्यों की विधानसभाओं ने अपनी मुहर लगाई। तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के इस विधेयक को मंजूरी देने के साथ ही इस संविधान संशोधन ने क़ानून की शक्ल ले ली। लेकिन इस क़ानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
याचिकाओं पर सुनवाई के बाद 16 अक्टूबर 2015 को सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने चार-एक के बहुमत से इस संविधान संशोधन क़ानून को रद्द कर दिया। अदालत ने कहा कि जजों की नियुक्ति पुराने तरीके- काॅलिजियम सिस्टम से ही होगी।
100वां संविधान संशोधन
भारत और बांग्लादेश के बीच हुई भू-सीमा संधि के लिए संविधान में 100वां संशोधन किया गया। 1 अगस्त 2015 को लागू इस क़ानून से न केवल 41 सालों से पड़ोसी देश बांग्लादेश के साथ चले आ रहे सीमा विवाद को सुलझाने की दिशा में कदम बढ़े, बल्कि अधिनयम बनने के बाद दोनों देशों ने आपसी सहमति से कुछ भू-भागों का आदान-प्रदान किया। समझौते के तहत बांग्लादेश से भारत में शामिल लोगों को भारतीय नागरिकता भी दी गई।
दरअसल, भारत में 111 जबकि बांग्लादेश में ऐसे 51 इन्क्लेव थे जहां रहने वाले लोगों को किसी भी देश के नागरिक होने का अधिकार प्राप्त नहीं था। भारत में यह क्षेत्र पूर्वोत्तर के असम, त्रिपुरा, मेघालय और पूर्वी बंगाल के हिस्सों में स्थित थे। यह इन्क्लेव किसी द्वीप की तरह ही कुछ ऐसे बसे थे कि एक देश के नागरिकों की आबादी के हिस्से चारों ओर से दूसरे देश की जमीन और उसके निवासियों से घिरे हुए थे।
सदियों पहले राजाओं के जमाने में हुए जमीन के बंटवारे के कारण ऐसी स्थिति बनी थी और वही व्यवस्था 1947 में ब्रिटिश शासन के खत्म होने और 1971 में बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग होने के दौरान भी बरकरार रही। संविधान के संशोधन के बाद दोनों देशों के लिए अपने इन्क्लेवों की अदला-बदली करने का रास्ता खुल गया।
101वां संविधान संशोधन
देश में वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी को लागू करने के लिए भारतीय संविधान में 101वां संशोधन किया गया। मकसद था राज्यों के बीच वित्तीय बाधाओं को दूर करके एक समान बाजार को बांध कर रखना। तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मंजूरी और राज्यों से सहमति मिलने के बाद एक जुलाई 2017 से यह लागू हो गया। जीएसटी राष्ट्रीय स्तर पर सेवाओं के साथ-साथ वस्तुओं के निर्माण और बिक्री पर लगने वाला अप्रत्यक्ष कर (मूल्य वर्धित कर) है।
जीएसटी एक ऐसी व्यवस्था बनी जिसने केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा वस्तुओं और सेवाओं पर लगाए गए सभी अप्रत्यक्ष कर (इनडायरेक्ट टैक्स) की जगह ली। दरअसल, जीएसटी विधेयक को क़ानून बनाने के लिए एक दशक से बात हो रही थी लेकिन राजनीतिक रस्साकशी के कारण ये अधर में लटक गया था। ड्राफ्ट बिल से लेकर संसद में पास कराए जाने तक भारत को दस साल लगे।
‘एक देश-एक कर’ कहे जाने वाली इस सेवा को मोदी सरकार ने आजादी के सत्तर साल बाद का सबसे बड़ा टैक्स सुधार बताया। यही नहीं जीएसटी लागू करने से कुछ घंटे पहले मोदी सरकार ने 30 जून की आधी रात को सेंट्रल हाॅल में एक विशेष सत्र बुलाया।
कहा गया कि 14 अगस्त 1947 को संसद के केंद्रीय कक्ष में आजाद भारत का जन्म हुआ था, इसी तर्ज पर मोदी सरकार ने जीएसटी लाॅन्चिंग के लिए आधी रात को कार्यक्रम रखा, हालाँकि कांग्रेस समेत ज्यादातर विपक्षी दलों ने विशेष सत्र का बहिष्कार किया।
102वां संविधान संशोधन
2018 में संसद ने संविधान में 102वां संशोधन पारित किया था जिसमें संविधान में तीन नए अनुच्छेद शामिल किए गए थे। नए अनुच्छेद 338-बी के जरिए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया। इसी तरह एक और नया अनुच्छेद 342ए जोड़ा गया जो अन्य पिछड़ा वर्ग की केंद्रीय सूची से संबंधित है। तीसरा नया अनुच्छेद 366(26सी) सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को परिभाषित करता है। इस संशोधन के माध्यम से पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा मिला।
संवैधानिक दर्जा मिलने की वजह से संविधान में अनुच्छेद 342 एक जोड़कर आयोग को सिविल न्यायालय के बराबर अधिकार मिले। इससे आयोग को पिछड़े वर्गों की शिकायतों का निवारण करने का अधिकार मिला।
दरअसल, 1993 में वैधानिक संस्था के तौर पर स्थापित राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की शक्तियां बेहद सीमित थीं। वह सिर्फ किसी जाति को ओबीसी की केंद्रीय सूची में जोड़ने या हटाने की सिफारिश ही कर सकता था। ओबीसी वर्ग की शिकायतें सुनने और उनके हितों की रक्षा का अधिकार अभी तक राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के पास था। संवैधानिक दर्जा मिलने के बाद आयोग को ओबीसी के अधिकारों की रक्षा के लिए शक्तियां मिलीं।
103वां संविधान संशोधन
9 जनवरी, 2019 को संसद द्वारा 103वां संविधान संशोधन अधिनियम 2019 पारित किया गया। यह अधिनियम आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों से संबंधित व्यक्तियों को 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान करता है। क़ानूनन आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए और अभी तक देशभर में एससी, एसटी ओबीसी वर्ग को जो आरक्षण मिलता था तो 50 फीसदी की सीमा के भीतर ही मिलता था। लेकिन सामान्य वर्ग का 10 फीसदी कोटा इस 50 फीसदी की सीमा से बाहर है।
इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। 40 से अधिक याचिकाएं दाखिल हो गई और दलील दी गई कि ये 10 फीसदी आरक्षण संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन है। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में बताया था कि आर्थिक रूप से कमजोरों को 10 फीसदी आरक्षण देने के क़ानून उच्च शिक्षा और रोजगार में समान अवसर देकर सामाजिक समानता को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया है।
नवंबर 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण जारी रहेगा। सुप्रीम कोर्ट की पाँच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने यह फैसला बहुमत के आधार पर सुनाया। चीफ जस्टिस यूयू ललित की अगुवाई वाली पाँच जजों की बेंच ने बहुमत से ईडब्लूएस कोटे के पक्ष में फैसला सुनाया और कहा कि 103वां संविधान संशोधन वैध है।
104वां संविधान संशोधन
104वां संशोधन के तहत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 334 में संशोधन किया गया और लोकसभा और विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण की अवधि को 10 साल के लिए और बढ़ा दिया गया था।
इससे पहले इस आरक्षण की सीमा 25 जनवरी 2020 थी। इसके अलावा अधिनियम के जरिये लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एंग्लो इंडियन के लिए सीटों के आरक्षण को समाप्त कर दिया गया।
105वां संविधान संशोधन
तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 18 अगस्त, 2021 को ‘105वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2021’ को अपनी स्वीकृति दी। संशोधन के अनुसार राष्ट्रपति केवल केंद्र सरकार के उद्देश्यों के लिए सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की सूची का नोटिफिकेशन जारी कर सकते हैं।
यह सूची केंद्र सरकार तैयार करेगी। इसके अलावा, यह क़ानून राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की अपनी सूची तैयार करने में सक्षम बनाता है।
इस विधेयक का मुख्य उद्देश्य अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की अपनी सूची की पहचान करने और उसे नोटिफाई करने के लिए राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की शक्ति को दोबारा बहाल करना है।
केंद्र सरकार के अनुसार राज्यों की शक्ति को बहाल करने का सीधा लाभ उन 671 जातियों को मिलेगा जिनकी राज्य सूचियों में की गई अधिसूचना के रद्द होने का खतरा था।
गौरतलब है कि संविधान के अनुच्छेद- 338 बी के मुताबिक केंद्र और राज्य सरकारों को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को प्रभावित करने वाले सभी प्रमुख नीतिगत मामलों पर राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग से सलाह लेनी अनिवार्य है. संशोधन द्वारा राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की सूची तैयार करने से संबंधित मामलों के लिए इस अनिवार्यता से छूट दी गई है।
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग यानी एनसीबीसी की स्थापना राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग अधिनियम, 1993 के तहत की गई थी। 102वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2018 ने एनसीबीसी को संवैधानिक दर्जा दिया था और राष्ट्रपति को अधिकार दिया था वह सभी उद्देश्यों के लिए किसी भी राज्य या केंद्र-शासित प्रदेश के लिए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की सूची को अधिसूचित कर सकते हैं।
स्रोत- दिनेश उप्रेती (बीबीसी संवाददाता) 26 नवंबर 2022