
डाॅ. श्रीगोपाल नारसन
बदले हालात में और इतिहास बनती हिंदी पत्रकारिता को बचाने के लिए विचार करना होगा कि सुबह का अखबार कैसा हो? समाचार चैनलों पर क्या परोसा जाए? क्या नकारात्मक समाचारों से परहेज कर सकारात्मक समाचारों की पत्रकारिता संभव है? क्या धार्मिक समाचारों को समाचार पत्रों में स्थान देकर पाठको को धर्मावलम्बी बनाया जा सकता है? पिछले वर्ष देश के 15सौ पत्रकारों ने ब्रहमाकुमारीज के माउण्ट आबू में हुए एक मीडिया सम्मेलन में एक स्वर में निर्णय लिया गया था कि
व्यक्तिगत एवं राष्टृीय उन्नति के लिए उज्ज्वल चरित्र व सांस्कृतिक निर्माण के सहारे सकारात्मक समाचारों को प्राथमिकता देकर मीडिया सामग्री में व्यापक बदलाव किया जाए। सम्मेलन में विकास से सम्बन्धित समाचारों, साक्षता, संस्कृति, नैतिकता और आध्यात्मिक मूल्य जैसे मुददों का समावेश कर स्वस्थ पत्रकारिता का लक्ष्य निर्धारित करने की मंाग की गई थी। आज देशभर में 700 से अधिक चैनल चल रहे है। जिनमें से कई चैनल ऐसे है जो समाज के सुदृढ़ीकरण के लिए खतरनाक है। इन चैनलों पर इतनी अश्लीलता दिखाई जाती है कि उसे पूरा परिवार एक साथ बैठकर नहीं देख सकता। ऐसे चैनलों पर कोई रोक भी नहीं है। इसलिए ऐसे चैनलों को ऐसी आपत्तिजनक सामग्री परोसने के बजाए समग्र परिवार हित की सामग्री परोसने पर इन चैनलों को विचार करना चाहिए। सम्मेलन में ऐसे समाचारों को परोसने से परहेज करने की सलाह दी गई थी जिसको चैनल पर देखकर या फिर अखबार में पढ़कर मन खराब होता हो या फिर दिमाग में तनाव उत्पन्न होता हो।
मायने बदल गए हिंदी पत्रकारिता के
दरअसल बदलते दौर में हिन्दी पत्रकारिता के भी मायने बदल गए है। दुनिया को मुठठी में करने के बजाए पत्रकारिता गली मोहल्लों तक सिकुड़ती जा रही है। अपने आप को राष्टृीय स्तर का बताने वाले समाचार पत्र क्षेत्रीयता के दायरे में और क्षेत्रीय स्तर का बताने वाले समाचार पत्र स्थानीयता के दायरे में सिमटते जा रहे है। जो पत्रकारिता के लिए शुभ संकेत नहीं है। सही मायने में पत्रकारिता का अर्थ अपनी और दुसरों की बात को दूर तक पंहुचाना है। साथ ही यह भी जरूरी है कि किस घटना को खबर बनाया जाए और किसे नहीं? आज की पत्रकारिता बाजारवाद से ग्रसित होने के साथ साथ मूल्यों की दृष्टि से रसातल की तरफ जा रही है। बगैर कार्यक्रम हुए ही कपोल कल्पित कार्यक्रम की खबरें आज अखबारों की सुर्खिया बनने लगी है, सिर्फ नाम छपवाने के लिए जारी झूठी सच्ची विज्ञप्तियों के आधार पर एक एक खबर के साथ बीस बीस नाम प्रकाशित किये जाने लगे है जो पत्रकारिता की विश्वसनीयता को न सिर्फ प्रभावित कर रहे है बल्कि ऐसी पत्रकारिता पर सवाल उठने भी स्वाभाविक है। इसके पीछे अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि जितने ज्यादा नाम प्रकाशित होगे, उतना ही ज्यादा अखबार बिकेगा, लेकिन यह पत्रकारिता के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है ठीक यह भी नहीं है कि प्रसार संख्या बढ़ाने की गरज से समाचार पत्र को इतना अधिक स्थानीय कर दिया जाए कि वह गली मोहल्ले का अखबार बन कर रह जाए। आज हालत यह है कि ज्यादातर अखबार जिले और तहसील तक सिमट कर रह गए है। यानि एक शहर की खबरे दूसरे शहर तक नहीं पंहुच पाती। उत्तराखण्ड के सीमावर्ती कस्बे गुरुकुल नारसन और मुजफफरनगर जिले के पुरकाजी कस्बे में मात्र 4 किमी का अन्तर है लेकिन जिला और प्रदेश बदल जाने के कारण एक कस्बे की खबरे दूसरे तक नहीं पंहुच पाती है। इससे पाठक स्वयं को ठगा सा महसूस करता है। ऐसा नहीं है कि स्थानीय खबरों की जरूरत न हो, लेकिन यदि एक अखबार में लाॅक डाउन से पहले 4 से 6 पेज स्थानीय खबरों के होते थे जो अब दो पृष्ठों में सिमट कर रह गए है। इससे पाठक को क्षेत्रीय, राष्टृीय और अन्तर्राष्ट्रीय खबरे कम पढ़ने को मिल रही है, जो उनके साथ अन्याय है। वैसे भी खबर वही है, जो दूर तक जाए यानि दूरदराज के क्षेत्रो तक पढी जाए। दो दशक पहले तक स्थानीय खबरो पर आधारित अखबार बहुत कम थे। पाठक राष्टृीय स्तर के अखबारों पर निर्भर रहता था। वही लोगों की अखबार पढने में रूचि भी कम थी। स्थानीय अखबारों ने पाठक संख्या तो बढाई है लेकिन पत्रकारिता के स्तर को कम भी किया है। आज पीत पत्रकारिता और खरीदी गई खबरों से मिशनरी पत्रकारिता को भारी क्षति हुई है। जिसे देखकर लगता है जैसे पत्रकारिता एक मिशन न होकर बाजार का हिस्सा बनकर गई हो। पत्रकारिता में परिपक्व लोगो की कमी,पत्रकारिता पर हावी होते विज्ञापन, पत्रकारों के बजाए मैनेजरों के हाथ में खेलती पत्रकारिता ने स्वयं को बहुत नुकसान पहंुचाया है। जरूरी है पत्रकारिता निष्पक्ष हो लेकिन साथ ही यह भी जरूरी है ऐसी खबर जो सच होते हुए भी राष्ट्र और समाज के लिए हानिकारक हो, तो ऐसी खबरों से परहेज करना बेहतर होता है। पिछले दिनों देश में गोला बारूद की कमी को लेकर जो खबरे आई थी वह राष्ट्र हित में नहीं थी इसलिए ऐसी खबरों से बचा जाना चाहिए था। जस्टिस मार्कण्डेय काटजू का यह ब्यान कि पत्रकारिता को एक आचार संहिता की आवश्यता है, अपने आप में सही है बस जरूरत इस बात कि है कि यह आचार संहिता स्वयं पत्रकार तय करे कि उसे मिशनरी पत्रकारिता को बचाने के लिए क्या रास्ता अपनाना चाहिए जिससे स्वायतता और पत्रकारिता दोनो बची रह सके। इसके लिए जरूरी है कि पत्रकार प्रशिक्षित हो और उसे पत्रकारिता की अच्छी समझ हो, साथ ही उसे प्रयाप्त वेतन भी मिले। ताकि वह शान के साथ पत्रकारिता कर सके और उसका भरण पोषण भी ठीक ढंग से हो। तभी पत्रकारिता अपने मानदण्डों पर खरी उतर सकती है और अपने मिशनरी स्वरूप को इतिहास बनने से बचा सकती है।
सुरक्षित नहीं है पत्रकार
आम आदमी का क्या हाल होगा, जब पत्रकार तक सुरक्षित नहीं है। पत्रकारों की सुरक्षा को उन्ही से खतरा है, जिनके जिम्मे सुरक्षा की जिम्मेदारी है। उत्तर प्रदेश के संभल जनपद के बहजोई थाने में दिल्ली से मीडिया कवरेज के लिए आए बीबीसी के पत्रकार दिलनवाज पाशा को सात घंटे तक थाने में अवैधानिक हिरासत में रखा गया। जबकि न उन्होंने कोई कानून तोड़ा था और न ही उनसे कानून व्यवस्था को कोई खतरा था।केवल खाकी का आतंक दर्शाने के लिए पुलिस ने पत्रकार दिलनवाज का फोन छीन लिया। उन्हें गालियां दी। सुबह दस से शाम पांच बजे तक उन्हें गालियों और धमकियों के बीच चोरों-उचक्कों के साथ हवालात में बंद कर उनका शारिरिक व मानसिक प्रताड़ित किया गया।
बहजोई थानाध्यक्ष ने दिलनवाज पाशा द्वारा पत्रकार के रूप में परिचय देने पर उनके साथ मारपीट की गई और हवालात में बंद कर दिया दिया। दिलनवाज पाशा के दोनों फोन भी पुलिस ने छीन लिए गए जिस कारण वे किसी से भी संपर्क भी नहीं कर सके। बीबीसी संवाददाता को हवालात में बंद कराने के बाद थानेदार कहीं चला गया। थाने के सिपाहियों ने उन्हें गंदी गंदी गालियों और धमकियों के जरिए टार्चर किया।
पत्रकार दिलनवाज पाशा शाम पांच बजे, तब छूटे जब उनके बारे में पुलिस को जानकारी मिल गई कि वह बीबीसी संवाददाता हैं। दिलनवाज ने थाने से छूटने के बाद लखनऊ स्तिथ अपने कार्यलय में उक्त जानकारी दी। बीबीसी के पत्रकार को बंधक बनाने के मामले की जानकारी लखनऊ में शासन-सत्ता में बैठे लोगों में भी फैल गई। तब जाकर अपर गृह सचिव ने फोन कर दिलनवाज पाशा से कुशल क्षेम पूछा। उन्होंने दोषियों को दंडित करने का भरोसा भी दिया। बताया जाता है कि दिलनवाज पाशा एक निर्दोष व्यक्ति को थाने में अवैध तरीके से बंद किए जाने की सूचना पर जानकारी लेने पहुंचे थे। जो थानाध्यक्ष को नागवार लगा।
उत्तर प्रदेश में तो पत्रकारों पर उत्पीड़न की लगातार गाज गिर रही है। पत्रकारों के उत्पीड़न की असंख्य घटनाएं सामने आ रही हैं। लाॅकडाउन के दौरान 55 पत्रकारों के विरुद्ध उत्तर प्रदेश में मुकदमा लिखा गया और कई पत्रकारों को जेल भेजा गया है। मुजफ्फरनगर में एक अखबार के संपादक वसीम अहमद ने बताया कि ‘‘रिपोर्टिंग के लिए हालात बिल्कुल साजगार नहीं हैं। लाॅकडाउन के दौरान आम आदमी सड़क पर घूमता मिल गया तो उसे डांटकर घर भेज दिया जाता, मगर पत्रकार को सीधे थाने भेज दिया जाता था और और उसके तमाम कागज देखे जा रहे थे।’’ उन्होंने कहा, ‘‘आज एक सिपाही और दरोगा भी पत्रकार का आईडी कार्ड मांग रहे हैं, जोकि बेहद अपमानित करने वाला है। कुछ सरकारी अफसर पत्रकारों के प्रति दुर्भावना से भरे हुए हैं। एक विशेष शैली के पत्रकारों को अफसरशाही बगल में रखती है। जनता की बात लिखने वाले पत्रकार आंखों को नहीं सुहा रहे हैं। लाॅकडाउन के दौरान उन्हें पुलिस के एक दरोगा ने अपमानित किया और रिपोर्टिंग करने से रोक दिया।’’ पत्रकारों के उत्पीड़न का सबसे सनसनीखेज मामला प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी की रिपोर्टिंग करने वाली दिल्ली की पत्रकार सुप्रिया शर्मा का है। वह देशभर में लाॅकडाउन के दौरान हुई परेशानियों पर रिपोर्टिंग करना चाहती थी और उन्हें लगा कि इसे समझने के लिए देश के प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र से बेहतर कुछ और नहीं हो सकता। सुप्रिया वहां जून के पहले सप्ताह तक रहीं। अपनी रिपोर्ट्स में उन्होंने विविधताओं के आधार पर लोगों की समस्याओं को उजागर किया। इसमें मंदिर के पुजारी, फूल बेचने वाले, बुनकर, महिलाएं, मजदूर, बच्चों और समाज के अलग-अलग वर्ग से उन्होंने बातचीत की। दिल्ली में रहने वाली सुप्रिया सातवें दिन प्रधानमंत्री मोदी के गोद लिए हुए गांव डुमरी पहुंचीं और वहां के लोगों से बातचीत की। उन्होंने गांव के लोगों की तकलीफ को लिखा, जिसमें उन्होंने एक महिला माला देवी से बातचीत का वर्णन किया। रिपोर्ट के मुताबिक महिला ने उन्हें बताया कि ‘लाॅकडाउन के दौरान वह चाय और रोटी खाकर सो रही थी और कई बार भूखी ही सो गई।’ रिपोर्ट के पब्लिश होने के एक सप्ताह बाद 18 जून को उक्त महिला माला देवी स्थानीय रामनगर थाने पहुंची और उन्होंने दावा किया कि रिपोर्ट में उनकी तरफ से लिखी गई बात सच नहीं है। वह तो नगर निगम में काम (आउटसोर्सिंग) करती हैं। उन्होंने दावा किया कि उन्हें लाॅकडाउन में एक भी दिन भूखा नहीं सोना पड़ा और उन्हें किसी तरह की कोई परेशानी भी नहीं हुई। इसी थाने में सुप्रिया शर्मा के खिलाफ विभिन्न धाराओं में तत्काल मुकदमा दर्ज कर लिया गया। इतना ही नहीं, इसके साथ ही सुप्रिया के विरुद्ध एससी/एसटी उत्पीड़न की धाराओं में भी केस दर्ज किया गया है। वहीं, सुप्रिया शर्मा अपने स्टैंड पर कायम हैं। उन्होंने खबर में जो भी लिखा है, बकौल उनके वह सही है। उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के दर्जनों पत्रकार हाथों में पत्रकार उत्पीड़न की तख्ती लेकर नदी में अर्धनग्न खड़े हो गए। पत्रकार स्थानीय जिलाधिकारी को हटाए जाने की मांग कर रहे थे। इनका कहना था कि पत्रकारों में डर पैदा करने की कौशिश की जा रही है और इसी परिपेक्ष्य में अजय भदौरिया नामक एक वरिष्ठ पत्रकार के विरुद्ध मुकदमा दर्ज किया गया। इसके अलावा 8 अप्रैल को सहारनपुर के देवबंद में एक पत्रकार को पुलिस द्वारा सरेआम लाठी से पीटे जाने जैसे मामलेे अलग हैं। इसके अलावा मेरठ में भी पत्रकारों में डर पैदा करने के लिए कुछ युवकों को फर्जी पत्रकार बताकर कार्रवाई कर दी गई। यहां तक कि खबर लिखने वाले इस पत्रकार के साले के विरुद्ध भी मुकदमा लिखकर जेल भेज दिया गया है। उत्तर प्रदेश जर्नलिस्ट एसोसिएशन के प्रदेश सचिव मनोज भाटिया कहते हैं कि हालात चिंताजनक हैं। पत्रकारों को निर्भीक होकर अपना काम नहीं करने दिया जा रहा। इस समय सच लिखना बेहद मुश्किल हो गया है।
निष्पक्षता की दरकार
जरूरी है पत्रकारिता निष्पक्ष हो लेकिन साथ ही यह भी जरूरी है ऐसी खबर जो सच होते हुए भी राष्ट्र और समाज के लिए हानिकारक हो, तो ऐसी खबरों से परहेज करना बेहतर होता है। पिछले दिनों देश में गोला बारूद की कमी को लेकर जो खबरें आई थी वह राष्ट्र हित में नहीं थी इसलिए ऐसी खबरों से बचा जाना चाहिए था। जस्टिस मार्कण्डेय काटजू का यह ब्यान कि पत्रकारिता को एक आचार संहिता की आवश्यता
है, अपने आप में सही है बस जरूरत इस बात कि है कि यह आचार संहिता स्वयं पत्रकार तय करे कि उसे मिशनरी पत्रकारिता को बचाने के लिए क्या रास्ता अपनाना चाहिए जिससे स्वायतता और पत्रकारिता दोनों बची रह सके। इसके लिए जरूरी है कि पत्रकार प्रशिक्षित हो और उसे पत्रकारिता की अच्छी समझ हो, साथ ही उसे प्रयाप्त वेतन भी मिले। ताकि वह शान के साथ पत्रकारिता कर सके और उसका भरण पोषण भी ठीक ढंग से हो।
कैसे हो सुधार?
मीडिया कार्मिकों को सबसे पहले अपने आन्तरिक बदलाव पर फोकस करना चाहिए। तभी उनके अंदर आत्मविश्वास पैदा होगा। यह कार्य आध्यात्म के अलावा अन्य किसी माध्यम से नहीं किया जा सकता है। स्वः परिवर्तन से विश्व परिवर्तन रूपान्तरण के लिए सबसे पहले अपने स्वः में परिवर्तन लाना आवश्यक है। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द्र का संदर्भ ले तो साहित्यध्पत्रकारिता एक मशाल है, जो समाज के आगे-आगे चलता है। स्वः में परिवर्तन का अर्थ है, स्वयं को जानना, अपने स्वरूप को जानना होता है।
इस रूपान्तरण की धूरी आध्यात्मिकता है। आध्यात्म का कार्य अपने को जानना, सत्य को जानना और सत्य के आधार पर आगे बढ़ना है। इसे सत्याग्रह भी कह सकते हैं अर्थात सत्य के प्रति आग्रह रखना। स्वः परिवर्तन के लिए आत्मा का अध्ययन, स्वयं को अध्ययन और स्वयं को जानना पहचाना होता है। कहा जाता है शान्ति अभी नहीं तो कभी नहीं है। जो व्यक्ति जीते जी शान्ति प्राप्त नहीं कर सका वह मरने के बाद क्या शान्ति प्राप्त करेगा?
चिंता नहीं चिंतन करें
आज मीडिया अपने निष्पक्षता और सकारात्मकता को लेकर कठघरे में खड़ी है। इसके लिए हमें चिन्ता करने की नहीं बल्कि चिन्तन करने की आवश्यकता है। बााॅय चीजों को छोड़ते जाना और अपने अन्दर की यात्रा पर निकल जाने का इतिहास आध्यात्मिकता कहलाता है। इसके लिए शान्त, सजग एवं सचेत मन की आवश्यकता होती है। इसका केन्द्र बिन्दु हमारा मन है। हमें देखना होगा कि हमने अपने मन को नौकर बना दिया अथवा हम स्वयं अपने मन का नौकर बन गये हैं। मुद्दा यह नहीं है कि इसे हल कौन करेगा बल्कि मुद्दा यह है कि इसकी पहल कौन करेगा। हमें यह देखना होगा जब वे लोग अपना आतंकवाद और नस्लवाद नहीं छोड़ रहे हैं तब हम अपना हितवाद कैसे छोड़ दें। वास्तव में मीडिया की ताकत को सही दिशा देना होगा। वास्तविक रूप में मीडिया को ताकत देना होगा। इसके लिए मुख और मन में समन्वय करना होगा। टोल-गेट और पार्किंग में भुगतान करना होगा। मुफ्तखोरी की संस्कृति से बचना होेगा। आधी परेशानी तभी समाप्त हो जाती है जब हम सकारात्मक सोचना प्रारम्भ कर देते हैं लेकिन पूरी परेशानी तभी समाप्त होगी। जब हम आध्यात्मिक सोच रखेंगे। आध्यात्मिक शक्ति हमें गाइड करती है जो हमें अच्छे कार्य के लिए प्रेरित करती है। सोल पावर में वाईटल एनर्जी आत्म चिन्तन ही जीवन की वास्तविकता है।
मीडिया में हमें चुनाव करना पड़ता है। इसलिए हम पूरी तरह नियंत्रित रहें ताकि सही चुनाव कर सकें कि हमें कौन सा समाचार देना है कौन सा नहीं। समाचार देने के पूर्व एक बार जरूर सोचें की मैं क्या परोसने जा रहा हूँ। हमें अपने भीतर स्वयं रोल एवं रिस्पान्सबिलिटी लेनी होगी। हमें यह भी देखना होगा कि हम समाधान दे रहे हैं अथवा समस्या को बढ़ा रहे हैं। गुस्से का साफ्टवेयर पुस्तक में उल्लेख है कि गांधी जी ने अपने पत्रकारिता में आध्यात्मिकता का समावेश किया और मूल्यों का प्रयोग किया। आध्यात्मिकता एक मार्ग है जो सर्वोच्च शक्ति और गुणों की खोज को प्रेरित करती है। मूल्य आधारित पत्रकारिता आज के जीवन की आवश्यकता है।
मीडिया कार्मिकों को अपने बिलिफ सिस्टम, जीवन आधारित मूल्य में बदलाव लाना होगा। जैसे देर से उठना, देर से सोना जैसे आदतों में बदलाव लाना होगा। इसके लिए प्रयास यह करना होगा कि जब भी उठा जाए उससे ठीक आधे घण्टे पूर्व उठने का प्रयास किया जाए। धीरे-धीरे इस घण्टे को बढ़ाया जाए। सुबह-सुबह सकारात्मक विचार पर बल दिया जाए। क्योंकि सुबह-सुबह पैदा की गई विचार का प्रभाव हमारे ऊपर दिन भर रहता है। अपने अन्दर सकारात्मक सोचने की कला को विकसित करना होगा। मन को ट्रेनिंग देना होगा।
ऐसा कहना गलत है कि समाज में नकारात्मक समाचारों की ही मांग है। वास्तविकता है आज लोग नकारात्मकता से ऊब कर सकारात्मक समाचारों की मांग करने लगे हैं। पत्रकारिता को मूल उद्देश्य सत्य को उद्घाटन करना है और समाज को सत्य की दिशा की ओर ले जाना है। यह सर्व विदित है कि सत्य सकारात्मकता में ही निहित है। अब धार्मिक चैनलों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। मीडिया को यह देखना होगा कि वह धार्मिक कट्टरता और अन्धविश्वास को बढ़ावा तो नहीं दे रही है। धर्म और आध्यात्म में अन्तर है। आध्यात्मिकता शाश्वत मूल्य पर आधारित है परन्तु धर्म में कोई जरूरी नहीं है कि शाश्वत मूल्य को महत्व दिया जाए। धर्म अपनी मूल तत्व से भटक कर अन्ध विश्वास और कट्टरता को बढ़ावा दे रहा है। आध्यात्मिकता के मूल तत्व शान्ति, प्रेम, शक्ति, ज्ञान, पवित्रता, सुख और आनन्द हैं, परन्तु यह मूल तत्व हमारे धर्म ही नहीं बल्कि जीवन एवं व्यवसाय से भी गायब हो चुके हैं। इसके दुष्प्रभाव के हमारा मस्तिष्क को अपराधीकरण जातिवाद और सम्प्रदाय वाद से प्रभावित हो रहा है।
स्वानुशासन हो
नारद, संजय एवं स्वतंत्रता पूर्व मीडिया व्यापार से प्रभावित नहीं था, परन्तु आज की मीडिया व्यापार से प्रभावित होकर अपने कत्र्तव्य से भी दूर हो गई है। कहा जाता है जो सूर्य को नहीं दिखता है वह एक कवि देख लेता है, परन्तु जो कवि को भी नहीं दिखाई देता वह सारी गलतियाँ मीडिया देख लेता है।
मीडिया में कार्य करते समय हमें देखना होगा कि हम अपने स्वतंत्रता का उपयोग अथवा दुरूपयोग कैसे करते हैं। इसके लिए स्वः अनुशासन एवं स्वः नियंत्रण की आवश्यकता है। हमारा दायित्व केवल समाचार देना ही नहीं है बल्कि संस्कार एवं विचार भी देना है। यह कार्य काई मीडिया ही कर सकता है।
सोशल मीडिया के बारे में कहा जाता है बन्दर के हाथ में उस्तरा दे दिया गया है। बन्दर के हाथ में बन्दूक देना खतरनाक है। इसके दुष्प्रभाव से कई प्रकार के गलत मान्यताओं का दुष्प्रचार हो रहा है। सोशल मीडिया का प्रयोग हमें कैसे करना है इस विषय में हमें सजग एवं सचेत रहना होगा। यदि हम लापरवाह रहते हैं तब सोशल मीडिया सौ झूठ को एक सच में बदलने की क्षमता रखता है।
प्रश्न है कि सोशल मीडिया में शिक्षण-प्रशिक्षण कौन करेगा? क्या इसका दायित्व व्हाट्अप फेसबुक और अनपढ़ लोगों को देना उचित है? सोशल मीडिया मंे सम्पादकीय जैसे फिल्टर प्रणाली की व्यवस्था नहीं है। सोशल मीडिया का मूल दर्शन व्यवसायिक है। जब हमारे जीवन का मूल्य व्यवसाय हो जाए तब मीडिया के बाजारीकरण को कोई रोक नहीं सकता है। सोशल मीडिया में व्यवसायिक एवं राजनीतिक हितों को देख कर मूल कंटेंट में छेड़-छाड़ की जा रही है।
सोशल मीडिया के नियंत्रण के लिए शिक्षित एवं प्रबुद्ध वर्ग को आगे आना होगा। अपनी रूल रिस्पांसबिलिटी के अनुसार काम करना होगा। इसके लिए हमारे अन्दर मन की ताकत का होना अनिवार्य है। मन की ताकत मिलने पर हम देश के लिए खड़ा होते हैं, इसके बाद हमें न वेतन की चिन्ता होती है न व्यवसाय की चिन्ता होती है। मन की ताकत हमे समष्टि भाव से जोड़ता है। सोशल मीडिया के गैर जिम्मेदार होने पर प्रिन्ट एवं इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की जिम्मेदारी अधिक बढ़ जाती है।
नकारात्मक सोशल मीडिया के प्रति सकारात्मक सोशल मीडिया के भी प्रयास हो रहे हैं। वायरल सच की पड़ताल एक गम्भीर प्रयास है इस प्रया को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
आज मीडिया अच्छा कार्य कर रहा है। मीडिया लोगों को लोगों से मिलाता है, अपना जान जोखिम में डालकर दुर्घटना स्थल पर पहुचता और इसे कवर करता है। मीडिया कर्मी आतंकवाद और तूफान को भी कवर करता है। कहा जाता है जिसका कोई नहीं होता उसका मीडिया होता। सफेद वस्त्र पर एक काला धब्बा भी बड़ा दिखाई देता है। मीडिया से लोगों को बहुत अधिक उम्मीदें हैं।
अजीत डोभाल और खैरनार केवल अपने वेतन और कैरियर के लिए नहीं कार्य करते हैं। बहुत से लोग अपनी नौकरी अपने जीवन के नियमों और सिद्धान्तों के आधार पर करते हैं। मीडियाकर्मी को शिकायत करने की जगह यह बात विशेष ध्यान देना होगा कि यह व्यवसाय स्वयं उनके द्वारा ही चुना गया है। इसलिए मीडिया सम्बंधी व्यवसाय में खतरों की बात करना गलत है। कहा जाता है कि पत्रकार सभी वर्गों की माँ है, जो अपने हित वेतन की मांग नहीं कर पाता है। जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुरेश वर्मा के शब्दों में, ‘सामाजिक संवेदन के कारण ही कोई व्यक्ति पत्रकारिता का व्यवसाय बनाता है। इसलिए दूसरे वर्गों के समान इसके सुख-दुख की तुलना नहीं की जा सकती है।’ मीडिया कर्मी को दूसरों के प्रति जवाबदेही को देखकर अपना कार्य करना होगा।
मीडिया में आध्यात्म एवं मूल्य का समावेश सकारात्मक सामाजिक रूपान्तरण के लिए जरूरी है। नियम, कानून और नीति ऐसे उपकरण हैं, जो बाहृय परिवर्तन में सहायक हैं। जबकि आध्यात्मिकता एवं शाश्वत मूल्य हमें भीतर से परिवर्तित करने में हमें मद्द करती है, क्योंकि यह हमारे अस्त्वि से जुड़ी होती है। आध्यात्मिकता अपने अन्दर देखने एवं बदलाव की शक्ति प्रदान करती है। इससे प्राप्त शक्ति से हम अपनी सीमित क्षमताओं से बाहर जाकर भी लोगों की मदद करने के लिए प्रेरणा प्राप्त करते हैं। बुराई ही नहीं अच्छाई भी संक्रामक के रूप में कार्य करती है। इसमें स्वः प्रेरणा का भाव होता है। एक व्यक्ति यदि तीन व्यक्तियों को प्रेरित करे फिर धीरे-धीरे यह अच्छाई संक्रमण के रूप में सम्पूर्ण विश्व को परिवर्तित कर देगी। मीडिया में यह शक्ति प्रयाप्त मात्रा में मौजूद है।
बुराई को समाप्त करने के उद्देश्य से बुराई को प्रकाशित करना उचित नहीं होता है। यह कहना गलत होता है कि मीडिया समाज का दर्पण है। कोई बुरी घटना एक व्यक्ति के जीवन में घटती है और इसका प्रभाव कुछ लोगों तक सीमित होता है। परन्तु यदि मीडिया इस बुरी घटना को सामने लाता है तब यह घटना अनेक के जीवन को प्रभावित करेगी। मीडिया को अपने विचारों में मूल्यों को प्रदर्शित करना चाहिए क्योंकि यह हमारे सोच और सामाजिक रूपान्तरण में सकारात्मक भूमिका अदा करती है।
(लेखक मिशनरी पत्रकारिता के पोषक वरिष्ठ पत्रकार है)
डाॅ. श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट
पोस्ट बाॅक्स 81, रुड़की, उत्तराखंड
मो. 9997809955