विमोचन एक हिन्दी पुस्तक का

रमेशराज

यूं तो हमारे देश में कई हिन्दी पुस्तकों के भव्य और विशाल विमोचन पांचतारा होटलों से लेकर महाविद्यालयों के सुसज्जित प्रांगणों में बड़े-बड़े हिन्दी प्रवक्ताओं के मक्खनबाजी से भरे पर्चों और अध्यक्ष की कराहती हुई तकरीर के मध्य सम्पन्न हुए हैं! किन्तु जिस पुस्तक-विमोचन की चर्चा यहां की जा रही है, वह एक ऐतिहासिक कवि की, ऐतिहासिक कृति का, ऐतिहासिक पुरुष द्वारा ऐतिहासिक विमोचन है, जिसके पीतप्रकाश में प्रतिभाओं का टिमटिमाना साफ दिखने लगता है। तो लीजिए हम आपको ऐसे ही एक ऐतिहासिक विमोचन का ‘आखों देखा हाल’ सुनाने के लिये ले चलते हैं, एक महाविद्यालय के उस प्रांगण में जहां हमारी मातृभाषा को अक्सर सिसकना पड़ता है।
फूलमालाओं से सुसज्जित स्वागत-द्वार पर ये जो तीन ऐतिहासिक महानुभाव खड़े हैं, पहले मैं आपको इनका ऐतिहासिक परिचय दे दूं। दायें से सबसे पहले फूलमालाएं लिये खड़े हैं, डॉ. अचरजलाल। इन्हें आज तक इस बात पर अचरज है कि ये हिन्दी विभाग में प्रवक्ता कैसे बन गये? क्योंकि हिन्दी का एक-एक शब्द बोलने में इनकी जीभ लड़खड़ाने लगती है और ये तब तक सामान्य नहीं हो पाते, जब तक कि चार छः वाक्य अंग्रेजी के नहीं बोल लेते या हिन्दी को सौ गालियां नहीं दे लेते। इनके बारे में मजेदार बात यह भी है कि ये अब हिन्दी पुस्तकों के एक कर्मठ और समर्पित प्रकाशक के रूप में अपनी जड़ें जमाते चले जा रहे हैं।
इनके बराबर अर्थात् मध्य में प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी श्री ज्ञानराम गांधी मुस्करा रहे हैं, लेकिन मुआफ कीजयेगा, ये न तो गांधीजी के कोई संबंधी हैं और न इनका गांधीजी से कोई दूर-दूर तक का वास्ता है। हां इतना जरूर है कि ये ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के दौरान भारत छोड़कर विदेश जा बसे। वहां इन्होंने घोर शृंगारिक कविताएं लिखीं। जिन पर हमारी भारतीय सरकार ने राष्ट्रीय पुरस्कार देकर इन्हें सम्मानित किया। इन्होंने इसे अमूल्य राष्ट्रीय सेवाओं का पारश्रमिक समझ सहज स्वीकार लिया।
तीसरे स्थान पर ये हें वो साहसी और स्वाभिमानी कवि डॉ. सेवक नाम ‘अधीर’, जिन्होंने अपनी प्रेरक रचनाएं बड़ी-बड़ी व्यावसायिक पत्रिकाओं में छपवाने के लिए क्या-क्या पापड़ नहीं बेले। सभी सुरी-आसुरी प्रथाओं का तन-मन से पालन करते हुए, एक कविता संग्रह ‘अंतर्यात्रा से गुजरते हुए’ प्रकाशित कराया है। संग्रह अंर्तयात्रा से कितना गुजरा है, इसका अन्दाजा आप डॉ. अधीर के व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की देहरी पर माथा रगड़ने पर पड़ी खरोंचों से आसानी के साथ लगा सकते हैं। अब स्थिति यह है कि व्यावसायिक पत्रिकाओं के सम्पादकों से इनके सम्बन्ध स्वामी और सेवक जैसे हो गये हैं।
अभी-अभी स्वागत द्वार के ठीक सामने जो विदेशी कार से उतरे हैं, ये हैं हिन्दी अधिकारी माननीय भारत कुमार। अब आपको इस ऐतिहासिक पुरुष का भी थोड़ा परिचय दे दूं–दक्षिण में हिन्दी-विरोधी लहर के दौरान, हिन्दी के विराध में इन्होंने कई आम सभाएं आयोजित कीं, भारी तोड़फोड़ और हिंसा में शरीक रहे। इनकी राष्ट्रभक्ति से खुश होकर सरकार ने इन्हें हिन्दी अधिकारी के पद की शोभा बढ़ाने को कहा। और ये सांप की तरह कुंडली मारकर तुरन्त कुर्सी पर बैठ गये। मगर बिडम्बना देखिए कि जब इन्होंने हिन्दी के प्रचार-प्रसार की सुधि ली तो इन पर साम्प्रदायिक होने का गम्भीर आरोप लगाया गया। जिससे क्षुब्ध होकर इन्हें अंतरराष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी का दामन थामना पड़ा, जो इनके साथ एक मजबूरी की तरह आज तक चिपका हुआ है।
दुल्हन की तरह सजा मंच, ऊँची-ऊँची गद्देदार कुर्सियां और ऐसे सुगन्धित वातावरण में [ जो किसी नाट्यशाला का आभास दे रहा है ] ये चारों विभूतियां देव प्रतिमाओं-सी विराजमान हैं और श्रोता दीर्घा में बैठे हैं स्थानीय कवि, पत्रकार एवं प्रकाशक महोदय के कुछ व्यावसायिक मित्र।
लीजिए विमोचन कार्यक्रम अब शुरू होने जा रहा है। जिसमें प्रकाशक महोदय की व्यावसायिक सफलता का सारा दारोमदार निहित है। इसलिये मुख्य अतिथि डॉ. भारत कुमार के प्रति बोले जाने वाले सम्मानसूचक शब्द भी बड़ी मेहनत और लगन से संजोये गये हैं। प्रकाशक महोदय, [ जो विमोचन कार्यक्रम का संचालन भार संभाले हुए हैं ] के मुंह से निकला एक-एक शब्द कुकुरमुत्ते की तरह फूटकर मुख्य अतिथि पर सम्मान की छतरी तान रहा है। इस वक्त यह बात ध्यान देने योग्य है कि प्रकाशक महोदय ने स्वयं स्वीकार किया है कि वे किसी भी तरीके से व्यावसायिक नहीं होना चाहते। यह अलग बात है कि व्यक्तिगत सम्बन्धों के आधार पर उन्हें पुस्तकों का भारी आर्डर सरकार के हिन्दी संस्थान से मिल जाये तो इसमें बुरा मानने की क्या बात है?
डॉ. भारत कुमार के करकमलों से पुस्तक का विमोचन होने के उपरांत, प्रकाशक महोदय ने मुख्य अतिथि के मुखारबिन्द से कवि और पुस्तक के प्रति बोले गये शब्द इस समय ध्यान देने योग्य हैं- ‘‘लेडीज एण्ड जैन्टल मैन, आई एम सो मच ग्लैड, दैट यू हैव इनवाइटेड मी…|’’ जी हां चौंकिए नहीं, हम बता चुके हैं कि डॉ. भारत कुमार हिन्दी कार्यक्रम में साम्प्रदायिकता जैसी छूत की बीमारी से बचना चाहते हैं, इसी कारण वे अंतर्राष्ट्रीय भाषा का सहारा ले रहे हैं, वर्ना टूटी-फूटी हिन्दी तो ये अब भी बोल लेते हैं। लीजिए श्रोता दीर्घा से इस मुद्दे पर आपत्तियां उठना शुरू हो गयीं हैं। और अब प्रकाशक महोदय स्थिति संभालने की कोशिश में जुटे हैं- ‘‘ भाइयो! शान्त हो जाइये, हिन्दी जैसे गैरजरूरी मसले को उठाकर माहौल को तनावग्रस्त बनाने की कोशिश न करें। अरे भाई हिन्दी अधिकारी के पद पर एक अहिन्दीभाषी क्या हमारी सरकार की उदारवादी और असाम्प्रदायिक नीति का परिचायक नहीं है….।’’
खैर, हम इस विवाद में आपको उलझाना नहीं चाहते। हम पुनः डॉ. भारत कुमार की ओर आपको आकृष्ट कराना चाहेंगे और प्रकाशक महोदय की महत्वाकांक्षाओं को फूलने-फलने का अवसर देंगे। मुख्य अतिथि प्रकाशक महोदय की मक्खनबाजी से तर होकर अब ‘अंतर्यात्रा से गुजरते हुए’ कविता संग्रह पर हिन्दी में थोड़ा-सा प्रकाश डाल रहे हैं-
‘‘ इस कविता संग्रह के बारे में क्या कहूं? इस समय बस इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि गेटअप बेहद आकर्षक है, इसमें सरकारी काग़ज़ के बजाय काफी महंगा काग़ज़ लगा है, संग्रह का मूल्य पांच सौ रुपये है, जोकि प्रकाशक की अव्यावसायिक मानसिकता का द्योतक है| यदि समय मिला तो घर पर इसे कभी पढूंगा और बाद में अपने विचारों से अवगत भी कराऊँगा, फिलहाल यह मान लेने में मुझे कोई हिचक या दिक्कत अनुभव नहीं हो रही है कि संग्रह अच्छा और स्वागत योग्य है| जैसा कि प्रकाशक के एक वरिष्ठ साथी ने इशारे से कहा है, मैं इस पुस्तक की विक्री का अपने विभाग की ओर से पूरा आश्वासन देता हूं।’’
डॉ. भारत कुमार के आश्वासन पर कुछ साहित्यकार एवं प्रकाशक महोदय के मित्र प्रांगण को तालियों की गड़गड़ाहट से भरने का अभूतपूर्व प्रयास कर रहे हैं।
लीजिये अब मुख्य अतिथि जलपान गृह की ओर प्रस्थान करने जा रहे हैं। जलपान गृह बनाम् सोमकक्ष का आंखों देखा हाल प्रस्तुत करने में हम असमर्थ हैं। हां संकेत के रूप में बस इतना ही कह सकते हैं कि कुछ अस्फुट से ठहाकों, बोतल खुलने तथा गिलास टकराने का स्वर यदाकदा सुनायी-सा पड़ रहा है। भविष्य में यदि कोई ऐसा ही ऐतिहासिक विमोचन कार्यक्रम हुआ तो उसका ‘आंखों देखा हाल’ बताने को पुनः आपकी सेवा में उपस्थित होऊँगा, तब तक के लिये ‘जय हिन्द’।
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+रमेशराज, 15/109 ईसानगर, अलीगढ़-202001,

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