पंडित सुंदरलाल: ‘भारत में अंग्रेजी राज’ की पोल खोलने वाले क्रांतिकारी लेखक

 


-राजगोपाल सिंह वर्मा

 

‘भारत में अंग्रेजी राज’ पंडित सुंदरलाल का लिखा आक्रांता शासन की पोल खोलने वाला वह पहला प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है, जिसके 18 मार्च सन 1938 को प्रकाशित होते ही ब्रिटिश सरकार सकते में आ गई थी। इसका पहला संस्करण 2000 प्रतियों का था, जिसकी 1700 प्रतियां तीन दिन के भीतर बिक गई थीं। चौथे दिन के भीतर ही एक राजाज्ञा जारी कर इस किताब को प्रतिबंधित कर दिया गया। उन सत्रह सौ प्रतियों को भी जब्त करने के आदेश दिए गए, जो प्रचालन में आ गई थीं। सरकार इस किताब के प्रकाशन से इतनी असहज थी कि उसकी तीन सौ प्रतियों को तो डाकघर में ही जब्त कर लिया गया। शेष भेजी गई प्रतियों के ग्राहकों तक भी उनके पते के आधार पर घर-घर पहुंचकर देश भर में किताब जब्ती के लिए तलाशी अभियान चलाया गया।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जनपद के खतौली कस्बे के एक घर ‘मनोहरी कुटी’ में 26 सितंबर सन 1886 में जन्मे पंडित सुंदर लाल की शिक्षा सहारनपुर, लाहौर और इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में हुई थी। तेईस वर्ष की उम्र में वह इलाहाबाद से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक समाचारपत्र ‘कर्मयोगी के संपादक भी रहे। उनका अध्ययन वृहद था, और दृष्टि स्पष्ट, इसीलिए उन्होंने पहले पत्रकारिता को अपना कार्यक्षेत्र बनाया और फिर इतिहास में रुचि लेनी आरंभ की।

इस किताब में पंडित सुंदरलाल ने सिद्ध किया था कि सन 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम को सैनिक विद्रोह कह कर दबाने के बाद अंग्रेजों ने योजनाबद्ध रूप से हिन्दू और मुस्लिमों में मतभेद पैदा किया। ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत उन्होंने बंगाल का दो हिस्सों- पूर्वी और पश्चिमी में, विभाजित किया। उन्होंने इस साम्प्रदायिक विद्वेष के पीछे छिपी अंग्रेजों की कूटनीति तक पहुंचने और आम जन को उनकी इन चालों को समझाने का प्रयास किया। दो खंडों की इस वृहद पुस्तक में अंग्रेजी राज के तथ्यों के आधार पर ही उनकी ज्यादतियों को लिपिबद्ध कर उन्हें कटघरे में खड़ा कर दिया गया था।

किताब पर लगाए गए प्रतिबंध के विरुद्ध देश भर के नेताओं और समाचारपत्रों ने आवाज उठाई। महात्मा गांधी ने भी इस विषय पर ‘यंग इंडिया’ में एक लेख लिख कर सरकार की आलोचना की। उन्होंने इसे ‘दिन दहाड़े डाका’ बताया और लोगों को सलाह दी कि तलाशी के अपमान को सह लें, किन्तु अपने पास की पुस्तकें अपने हाथों से उठाकर पुलिस को न दें। जमनालाल बजाज और अन्य अनेक देशभक्तों ने ऐसा ही किया। सुंदर लाल राहत न मिलने पर इस आदेश को चुनौती देने न्यायालय में गए, जहाँ उनके वकील तेजबहादुर सप्रू ने तर्क दिया,

“इस पुस्तक का हर तथ्य प्रामाणिक है।”

कहते हैं कि सरकारी वकील ने इस संबंध में इतना ही कहा,

“मी लार्ड, इसीलिए यह किताब अधिक खतरनाक है!”

… और फैसला टल गया। पर सुंदर लाल अपने श्रम को व्यर्थ जाते नहीं देख सकते थे। उनका उद्देश्य था कि इस किताब के माध्यम से कम से कम देश का शिक्षित वर्ग अंग्रेजों की चाल को समझे। संयोग से तब तक संयुक्त प्रांत में कांग्रेस ने सरकार में भागीदारी प्राप्त कर ली थी। तब उन्होंने संयुक्त प्रांत की सरकार को एक प्रत्यावेदन दिया, जिस पर काफी चर्चा के बाद इस किताब से प्रतिबंध हटा लिया गया।

अब पुस्तक की चर्चा जरूरत से अधिक फैल गई थी। प्रतियां समाप्त हो गई थीं, इसलिए नया संस्करण प्रकाशित कराने की बात चली। ओंकार प्रेस, प्रयाग ने एक हजार से अधिक पृष्ठ वाली किताब को तब केवल सात रु मूल्य पर प्रकाशित किया। इस संस्करण की दस हजार प्रतियां प्रकाशित की गईं। पर उनके खत्म होने से पूर्व ही चार हजार प्रतियों के अतिरिक्त आदेश लंबित हो गए, इसलिए इस पुस्तक का तत्काल तीसरा संस्करण भी निकालना पड़ा। उसी वर्ष काठियावाड से गुजराती अनुवाद और इलाहाबाद से उर्दू में अनूदित पुस्तक भी तैयार हुए।

अगर इस पुस्तक की बात करें, तो यह स्पष्ट होता है कि इसके लिए उन्होंने प्रामाणिक दस्तावेजों के साथ ही विश्व इतिहास का गहन अध्ययन किया था। ऐसा करने से उनके सामने भारतीय इतिहास के अनेक अनजाने तथ्य खुलते चले गये।वे तीन साल तक क्रान्तिकारी बाबू नित्यानन्द चटर्जी के घर पर रह कर इस ग्रंथ के लेखन और पठन पाठन के काम में लगे रहे। इसी साधना के फलस्वरूप एक हजार पृष्ठों का ‘भारत में अंग्रेजी राज’ नामक ग्रन्थ तैयार हुआ। सुन्दरलाल जी को आभास था कि प्रकाशित होते ही अंग्रेज़ी शासन इसे जब्त कर लेगा, अत: उन्होंने इसे तीन खण्डों में बांट कर अलग-अलग नगरों में छपवाया। तैयार खण्डों को प्रयाग में बाइंड कराया गया और अन्तत: पुस्तक प्रकाशित हुई ।

इस विशद पुस्तक के माध्यम से पंडित जी ने लोगों की भ्रांतियों को दूर करने का प्रयास किया था। यह सन 1661 ई. से लेकर 1857 ई. तक के भारत का संकलित इतिहास और अंग्रेजों की कूटनीति और काले कारनामों का दस्तावेज है, जिसकी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए लेखक ने अंग्रेज अधिकारियों के स्वयं के लिखे डायरी के पन्नों का शब्दश: उद्धरण दिया है। उनका कहना था कि अपने देश के सच्चे इतिहास से अपरिचित होना भी हमारी भ्रांतियों के कारणों में से एक है। उन्होंने भारत पर अंग्रेजों से पहले के अन्य आक्रमणों और विशेषकर अंग्रेजों के आने के समय की भारत की स्थिति को पाठकों के सामने रखने का प्रयास किया, ताकि उनके ही शब्दों में, ‘उन्हें अपने देश के ऊपर अंग्रेजी राज के हितकर अथवा अहितकर प्रभाव को ठीक-ठीक समझने में सुगमता हो’।

उन्होंने 17 वीं सदी के इंगलिस्तान और उस समय के भारत से तत्कालीन समय की तुलना कर इस हुकूमत की दोहन तथा उत्पीड़न की नीतियों का पर्दाफाश किया। उन्होंने न केवल मुस्लिम शासकों का एक वस्तुनिष्ठ अध्ययन किया, बल्कि उससे पूर्व सिकंदर के आक्रमण के समय की स्थिति भी सामने रखी, विभिन्न संतों के विचारों को बताया, मुगलों की शासन-व्यवस्था की अच्छी-बुरी बातों का भी विश्लेषण प्रस्तुत किया। इस ग्रंथ में पंडित सुंदरलाल ने भारत में अंग्रेजों के आगमन के बाद ही यहाँ के लोगों के चरित्र के पतन की बात की, जो अंग्रेजों की सोची-समझी साजिश थी। उन्होंने अपनी लिखा था कि,

“यदि पलासी के मैदान से ही भारत में अंग्रेजी राज का आरंभ मान लिया जाए तो भारत के लिए (अभी तक के) 180 साल के विदेशी शासन का नतीजा प्रतिदिन बढ़ती हुई भयंकर दरिद्रता, निर्बलता, फूट, आए दिन के दुष्काल, मलेरिया, इंफ्लुएंजा और प्लेग के सिवा और कुछ दिखाई न दिया…”

कम लोग ही जानते हैं कि 23 दिसंबर, 1912 को वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की सवारी पर दिल्ली के चांदनी चौक में बम फेंकने की रासबिहारी बोस की योजना से वह भी जुड़े थे। 1921 से लेकर 1947 तक उन्होंने उन्होंने आठ बार जेल यात्रा की। क्रांति के प्रचार हेतु लाला लाजपतराय के साथ सुंदरलाल जी ने भी कई जगहों पर प्रवास किया। कुछ समय तक उन्होंने सिंगापुर आदि देशों में भी क्रांतिकारी आंदोलन का प्रचार किया। काँग्रेस में रह कर भी वह अपनी पृथक पहचान बनाए रहे। एक समय सुंदरलाल जी को कांग्रेस में ‘छिपे हुए साम्यवादी’ की उपाधि से विभूषित किया जाता था। कहते हैं कि जवाहरलाल नेहरू ने एक समय उनसे केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने का अनुरोध किया था, पर आजादी की लड़ाई का वह योद्धा सत्ता की राजनीति के लिए तैयार नहीं था।

1947 में स्वतंत्रता प्रप्ति के बाद गांधी जी के आग्रह पर विस्थापितों की समस्या के समाधान के लिए वह पाकिस्तान भी गये। 1962-63 में ‘इंडियन पीस काउंसिल’ के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने कई देशों की यात्रा की। नौ मई, 1981 को 95 वर्ष की आयु में पंडित सुंदरलाल का दिल्ली में निधन हुआ।

‘भारत में अंग्रेजी राज’ आज भी प्रकाशन विभाग से विक्रीत होने वाली प्रमुख किताबों में से है, जिसके हर दूसरे-तीसरे साल संस्करण निकलते हैं।

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