पटना। मीरा मां के जन्मदिन पर 18 नवंबर को असंख्य बधाइयां एवं शुभकामनाएं, भारत और भारत के बाहर रह रहे अनेक अनेक मित्रों, सहयोगियों, साथियों एवं साहित्यकारों द्वारा अनवरत सोशल मीडिया पर एवं डॉo राशदादा को फोन पर भी प्राप्त होते रहे।सभी मित्रों को राशदादा का नमन वंदन है एवं प्रार्थना है माँ से कि उनका आशीष हमसभी पर सदा सर्वदा बना रहे।
18 नवंबर को हर वर्ष जीना चाहता हूं मरने के बाद_फाउंडेशनएकभारत की सह-संस्थापिका मीरा मां के जन्मदिन पर,मां को चाहने वाले,मां के लिए पूजा अर्चना कर, मीरा मां को नम आंखों से याद करते हैं। साहित्य और साहित्यकार की दुनिया में मीरा मां का नाम विश्व स्तर पर अपरिचित नहीं है।उनके जीवन वृत्त एवं व्यक्तित्व का सबसे निराला पहलू यह है कि वो ना तो कवयित्री थीं,ना ही कोई साहित्यकारा या लेखिका। महत्वपूर्ण है कि वो साहित्य की श्रोत थीं अनुरागी और प्रेमी थीं।
वो अन्नपूर्णा थी, तो दूसरी ओर दुर्गा,यदि वो शारदा स्वरूपा थीं, तो जीवन संग्राम में मां काली। साहित्य के मंचों या सभागार में उनकी उपस्थिति ही प्राणत्व को संचारित कर देती। वो निडर थीं, निश्छल थीं, दयालु और कृपालु थीं। ऐसा प्रतीत होता जैसे उनके अंतस में गंगा यमुना सरस्वती सम त्रिवेणी प्रवाहित हो रही हो। जनांदोलन के समय वो जमशेदपुर विमेंस काॅलेज की विद्यार्थी थीं और मेरे साथ वो धरना प्रदर्शन में, मेरे कांधा से कांधा मिलाकर रहीं। मैं हमेशा रंगमंचों से जुड़ा रहा,वो हमारे विवाह से पहले हमारा नाटक देखने अपने भाई बहनों के साथ आतीं। मैं राशदादा से संस्मरण सुनता रहा। जबसे मीरा मां के सानिध्य में आया था,उनके प्रभावी व्यक्तित्व के विषय में जान लेना अवश्यंभावी था।मां के प्रयाण से लगभग चार पांच दिन पूर्व, मीरा मां ने पटना के कुछ साहित्यकारों को अपने घर पर बुलाकर चावल, कढ़ी बरी और बहुत ही स्वादिष्ट शाकाहारी भोजन, अपने हाथों से बनाकर खिलाया। उनके हाथों का बना आचार साहित्यकारों के घर तक पहुंच जाता। उन्हें अपने हाथों से बनाकर खिलाने का ग़ज़ब का शौक़ था। उनके हाथ से बना भोजन जैसे अमृत होता हो। माँ मीरा_काव्यांगन के नाम से एक परिसर का निर्माण पटना में किया गया है, जहां किसी भी संस्था द्वारा काव्यगोष्ठी कराने के लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाता है। डॉ राशदादा ने बताया कि यह नि:शुल्क सेवा,मां के साहित्य से उनके अनुपम रिश्ते को ध्यान में रखकर किया गया है। अनेक साहित्यिक संस्थाओं में उन संस्थाओं के वार्षिकोत्सव पर मां मीरा स्मृति सम्मान से विद्वानों को सम्मानित करने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। इसमें स्थापित साहित्यिक संस्था छंद:शाला, पटना,बिहार के संस्थापक अध्यक्ष छंद मर्मज्ञ आचार्य विजय गुंजन जी द्वारा प्रत्येक वर्ष सम्मान देने की परंपरा में तीन “मां मीरा सम्मान” देने की प्रक्रिया है।देवशील मेमोरियल अपने वार्षिकोत्सव पर “मां मीरा सम्मान” किसी सिद्ध महिला को दिए जाने की आस्था रखती है।
डॉ राशदादा ने बताया कि वो एक आत्मकथा लिख रहें हैं, जिसमें बहुत खुलेपन से अपनी और मीरा मां की जीवन यात्रा को दर्शाया गया है,जो संपूर्ण समाज के लिए उपयोगी होगा,इस पुस्तक का नाम “अनसेंसर्ड” है। प्रियवंदा नामक एक खंड काव्य मीरा मां को समर्पित कर लिखा जा रहा है। मीरा मां का कथन था कि समाज को दोष देने से परिस्थितियां नहीं बदलेंगी। समाज से साहित्य और अध्यात्म को जोड़ कर ही कल्याण हो सकता है। साहित्य की आत्मा को जब समाज से जोड़ दिया जाएगा,तो निश्चित रामराज्य की कल्पना की जा सकेगी। दादा ने आगे बताया कि उनके शरीर में जो आत्मा है ,उस आत्मा का नाम मीरा मां है। मेरे संपूर्ण जीवन का सबसे बड़ा उपहार मीरा मां हैं, जिन्हें हम संभाल नहीं पाए। एक घटना का ज़िक्र यहां करना आवश्यक है कि मीरा मां के प्रयाण के समय दादा बिल्कुल अकेले थे। कोरोना काल था, बच्चे भी नहीं आ पाए थे।
जब मां की चिता सजाकर दादा ने मुखाग्नि देकर परिक्रमा करने के बाद, मां के चिंता के बिल्कुल बगल में बायीं ओर जैसे ही खड़ा हुए, चिता की लकड़ियों के बीच से मीरा मां का बायां हाथ बाहर आकर राशदादा के पैरों पर गिरकर पैसे छू लिए। यह मात्र संयोग है या नियति या फिर मां ने अपने पति के चरण स्पर्श कर अग्नियान पर अपनी अंतिम विदाई की अनुमति ली। ऐसी बात आदिकाल से आज तक कभी कहीं सुनने या पढ़ने को नहीं मिला।
मीरा मां की बहादुरी,उनकी आत्मीयता,उनका भोलापन एवं अध्यात्मिक पहलू के किस्से अनेक हैं,जो इस युग में नारी जीवन में सीख के सदृश है।
राशदादा के अलावा मीरा मां के अंतिम दर्शन का संयोग और सौभाग्य,देवशील मेमोरियल, दिल्ली की संस्थापिका अध्यक्षा मेरी छोटी बहन रश्मि अभया को प्राप्त हुआ था,जिसे बहुत समझा बुझाकर घर वापस भेजा गया और दूसरा वो,एक सेवक,जो मां की सेवा में रहता था।
रिपोर्ट: दुर्गेश मोहन
राष्ट्रीय मीडिया सचिव,
जीना चाहता हूं मरने के बाद फाउंडेशन एक भारत