
रुड़की : वर्ष 1929 में प्रकाशित स्वतंत्रता सेनानी एवं इतिहासकार सुन्दरलाल की पुस्तक ‘ भारत में अंगरेजी राज’ भारत में अंगरेजी शासकों के षड्यंत्रों व अत्याचारों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। इस पुस्तक के परिप्रेक्ष्य में देखें तो कह सकते हैं कि आज जो इतिहास हम पढ़ रहे हैं , वह पूर्णतः अप्रमाणिक तथा असत्य है ! इस पुस्तक में प्रमाणित रूप से प्रकाशित तथ्यों को यदि भारतीय इतिहास की पुस्तकों में सम्मिलित किया जाता , तो लोगों के समक्ष सच्चाई से युक्त एक दूसरा ही इतिहास सामने आता। ये विचार रुड़की के साहित्यकार तथा प्रोफेसर डॉ. सम्राट् सुधा ने एक भेंट में व्यक्त किये। उनके पास 18 मार्च, 1929 को प्रकाशित भारत में अंगरेजी राज पुस्तक के दोनों खंड हैं।
डॉ. सम्राट् सुधा ने बताया कि सुन्दरलाल की इस महत्वपूर्ण पुस्तक में प्रकाशित तथ्यों से अंगरेज सरकार में इतनी खलबली मची कि 22 मार्च, 1929 को ही अंगरेज सरकार की ओर से ज़ब्ती का आदेश लेकर पुलिस प्रकाशक के यहाँ पहुँच गयी थी। तब तक इस पुस्तक के इस प्रथम संस्करण की कुल 2000 प्रतियों में से 1700 पुस्तकें ग्राहकों के पास पहुँच चुकी थी । ज़ब्त की गयी 300 पुस्तकों के अतिरिक्त पुलिस ने ग्राहकों के पते हासिल कर पुस्तकें ज़ब्त की। इस पुस्तक की महत्ता समझ महात्मा गांधी ने ‘ यंग इण्डिया’ में इस ज़ब्ती को ‘ दिनदहाड़े डाका'( Daylight Robbery) बताया। इस पुस्तक की ज़ब्ती के विरुद्ध इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकदमा चला , तो सरकारी वकील ने स्वयं यह कहा था कि-” चूँकि इस पुस्तक की सारी बातें सच्ची हैं, इसीलिए यह अधिक खतरनाक है।” बाद में 15 नवम्बर,1937 को संयुक्तप्रांत सरकार ने इस पुस्तक के ज़ब्ती का आदेश समाप्त किया।
डॉ. सम्राट् सुधा के अनुसार लगभग 1500 पृष्ठ की इस पुस्तक में अंग्रेज इतिहाकारों, गवर्नरों के पत्रों, ईस्ट इण्डिया कंपनी की रिपोर्टों आदि दस्तावेजों के माध्यम से अंगरेजी राज का पर्दाफाश किया है। पुस्तक में सप्रमाण यह बताया गया कि कंपनी के डाइरेक्टर अपनी रिपोर्टों में मनमाने ढंग से परिवर्तन करते थे और आपत्तिजनक तथ्यों को होशियारी से दबा देते थे। सुन्दरलाल ने अपनी इस पुस्तक में लिखा है कि मात्र भारतीय राजाओं के चरित्र हनन का ही नहीं, वरन् उनके गलत चित्रों का प्रयोग भी अंग्रेज इतिहासकारों ने अपनी पुस्तकों में किया। सुन्दरलाल ने अंग्रेज इतिहास लेखक सर जान कवे को उन्हीं की पुस्तक से एक उद्धरण प्रस्तुत किया है, जिसमें कवे ने स्वयम् यह स्वीकारा है कि भारतीय नरेशों और उनके उत्तराधिकारियों को उनका झूठा इतिहास लिखकर कलंकित करना अंग्रेजी रिवाज़ है।सुन्दरलाल ने अपनी इस पुस्तक में बताया है कि अंग्रेज किस प्रकार छल और ग़लतफ़हमी फैलाने में निपुण थे। मीर जाफ़र के संदर्भ में 10 नवम्बर, 1760 को कलकत्ता में अंग्रेज अफसरों की एक सभा हुई, जिसमें अंग्रेज अफसर हालवेल का लिखा एक पत्र पढ़ा गया और मीर जाफ़र को अनेक लोगों की हत्या का दोषी बताया गया। मीर जाफ़र की मृत्यु के पश्चात क्लाइव और उसके साथियों ने सन् 1965 में कंपनी के डाइरेक्टर्स के नाम एक अन्य पत्र लिखा और सूचित किया कि जिन हत्याओं का इल्ज़ाम मीर जाफ़र पर लगाया गया था, वह सब झूठ था, यही नहीं, जिन स्त्री- पुरुषों की हालवेल के पत्र में सूची दी गयी थी और कहा गया था कि मीर जाफ़र ने उन्हें मरवा डाला, सिवाय दो के , उनमें से सब इस समय जिन्दा हैं।सुन्दरलाल ने अपनी पुस्तक में यह प्रमाणित किया है कि अंग्रेजों के समय सन् 1851 से 1934 तक कुल 5 करोड़ 76 लाख पाउंड यानि तत्कालीन लगभग 75 करोड़ रुपये ‘ होम चार्जेज’ के नाम पर भारत से इंग्लैंड भेजे गये थे। इस रकम के बदले भारत को कुछ प्राप्त नहीं हुआ था।
डॉ. सम्राट् सुधा ने कहा कि सुन्दरलाल की पुस्तक ‘ भारत में अंगरेजी राज’ के चौंकाने वाले ऐतिहासिक तथ्यों को स्वतंत्रता के पश्चात इतिहास की पुस्तकों में सम्मिलित क्यों नहीं किया गया, यह शोध का विषय है, यद्यपि स्वाधीनता के पश्चात् प्रकाशन विभाग, भारत सरकार द्वारा इस पुस्तक का प्रथम प्रकाशन जुलाई, 1960 में किया गया। इस पुस्तक के परिप्रेक्ष्य में देखें तो कह सकते हैं कि आज जो इतिहास हम पढ़ रहे हैं , वह पूर्णतः अप्रमाणिक तथा असत्य है !
प्रेषक
■ डॉ. सम्राट् सुधा
94 ( नया-130)
पूर्वावली, गणेशपुर,
रुड़की-247667,उत्तराखंड
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