-अरविंद जयतिलक
विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) की वार्षिक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट, 2023 सुखद और राहतकारी है कि लैंगिक समानता के मामले में भारत का स्थान 146 देशों में 127 वां हो गया है। रिपोर्ट के मुताबिक पिछले वर्ष की तुलना में आठ स्थान का सुधार हुआ है। पिछले वर्ष भारत 146 देशों की सूची में 135 वें स्थान पर था। रिपार्ट में कहा गया है कि पिछली बार से भारत की स्थिति में 1.4 प्रतिशत अंकों का सुधार हुआ है। इस रिपोर्ट में कई अन्य महत्वपूर्ण बातों का उद्घाटन हुआ है। मसलन देश ने शिक्षा के सभी स्तरों पर पंजीकरण मामले में समानता प्राप्त की है। इस तरह 64.3 प्रतिशत लैंगिक अंतराल को पाट दिया है। प्राथमिक शिक्षा में नामांकन के लिए लैंगिक समता के मामले में भारत अभी भी विश्व में प्रथम स्थान पर बना हुआ है। लेकिन आर्थिक मामलों में अभी तक सिर्फ 36.7 प्रतिशत समानता के लक्ष्य को हासिल किया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस सूचकांक में भारत के पड़ोसी देशों मसलन पाकिस्तान का स्थान 142 वां, बांगलादेश का 59 वां, चीन का 107 वां, नेपाल का 116 वां, श्रीलंका का 116 वां और भूटान का 103 वां स्थान है। आइसलैंड लगातार 14 वें साल भी लैंगिक समानता वाला देश का तमगा हासिल किए हुए है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में महिलाओं के वेतन और आय के मामलों में वृद्धि हुई है और राजनीतिक सशक्तिकरण के मोर्चे पर 25.3 प्रतिशत समानता हासिल की है। पिछले साल के मुकाबले इस वर्ष भारत ने आर्थिक साझेदारी और अवसर पर अपने प्रदर्शन में सकरात्मक बदलाव दर्ज किया है। लेकिन श्रम बल भागीदारी के मामले में अपेक्षाकृत उस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सका है। याद होगा गत वर्ष पेशेवर एवं तकनीकी श्रमिकों के रुप में महिलाओं की हिस्सेदारी 29.2 प्रतिशत से बढ़कर 32.9 प्रतिशत हो गयी थी। अनुमानित अर्जित आय के मामले में लैंगिक समता अंक पहले से बेहतर हुआ है। लेकिन कुलमिलाकर देखें तो जीवन के विविध क्षेत्रों में लैंगिक असमानता पाटने की चुनौती अभी भी जस की तस बरकरार है। इस चुनौती से निपटने के लिए आवश्यक है कि जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाया जाए। गौर करें तो राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों, व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में आधी-आबादी की मौजूदगी अभी भी बहुत कम है। अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वे (एआईएसएचई) की रिपोर्ट से उद्घाटित हो चुका है कि राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों और व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में बेटियों का नामांकन शैक्षणिक पाठ्क्रमों की तुलना में कम है। हालांकि विगत वर्षों में विभिन्न संस्थानों में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि हुई है। आर्थिक उपक्रमों में भागीदारी की बात करें तो देश के सिर्फ 18 प्रतिशत कंपनी बोर्ड में महिला प्रतिनिधित्व है। इसी तरह केवल 16 प्रतिशत महिलाएं नेतृत्वकर्ता की भूमिका में हैं। श्रम के क्षेत्र में नजर दौड़ाएं तो यहां भी पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का प्रतिनिधित्व दयनीय है। प्रशासनिक नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी के आंकड़े बताते हैं कि आईएएस में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 25 प्रतिशत से कम है जबकि बैंकों में 30 से 35 प्रतिशत के आसपास है। नौकरियों के मामले में विश्व बैंक अपनी रिपोर्ट में पहले ही कह चुका है कि दुनिया भर के कई देशों में महिलाओं की आर्थिक उन्नति में कानूनी बाधाएं हैं। अच्छी बात है कि भारत में इस तरह का भेदभावकारी कानून नहीं है। फिलहाल सरकार और स्वयंसेवी संगठनों के प्रयास से देश में महिला सशक्तिकरण को लेकर जागरुकता बढ़ी है और जीवन के कई क्षेत्रों में महिलाएं परचम लहरा रही हैं। गौर करें तो इसका श्रेय भारतीय संविधान और सर्वोच्च अदालत को जाता है जहां भारतीय संविधान स्त्री-पुरुष दोनों को समान अधिकार प्रदान करता है। सर्वोच्च अदालत संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करता है। भारतीय संविधान में शिक्षा, सेवा, राजनीति इत्यादि सभी क्षेत्रों में पुरुषों व महिलाओं को बराबर के अधिकार दिए हैं। भारतीय संविधान में लैंगिक असमानता को मिटाने यानी समानता को बल प्रदान करने के लिए कई प्रावधान किए गए हैं। संविधान में स्पष्ट कहा गया है कि धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर महिलाओं से भेदभाव नहीं किया जा सकता। दो राय नहीं कि इन संवैधानिक प्रावधानों और गत वर्षों में हुए सरकारी प्रयासों के परिणामस्वरुप भारत में लैंगिक विभेद में कमी आयी है। उसके सकारात्मक परिणाम सामने आ रहे हैं। उदाहरण के तौर पर देश के विभिन्न राज्यो की पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण प्रदान किया गया है। इस पहल से पंचायतों में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बढ़ी है। हाल ही में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में संपन्न हुए पंचायत चुनाव में पुरुषों से ज्यादा महिलाएं पंच परमेश्वर चुनी गयी हैं। 53.7 प्रतिशत पंचायतों में सत्ता अब महिलाओं के हाथों में है। राज्य में ग्राम प्रधान के 58,176 पदों पर चुनाव हुए जिसमें 31,212 पदों पर महिलाओं ने जीत हासिल की। कुछ ऐसा ही आंकड़ा देश के अन्य राज्यों से भी सामने आ रहा है और वहां महिलाओं की भागीदारी और प्रतिनिधित्व बढ़ रहा है। लेकिन यहां ध्यान देने वाली बात यह कि संख्या के लिहाज से भले ही यह आंकड़ा प्रतिनिधित्व को मजबूती प्रदान करता हो पर एक सच यह भी है कि नेतृत्व की बागडोर अभी भी पुरुष अभिभावकों के ही हाथों में है। बात चाहे गांव, ब्लाॅक या तहसील की हो अथवा जिला स्तर की सभी आवश्यक स्थानों पर निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के पति या अभिभावक ही उनके दायित्वों का निर्वहन करते देखे जा रहे हैं। यह स्थिति ठीक नहीं है। इससे निर्वाचित महिला सरपंचों की भूमिका महज एक रबर स्टैंप बनकर रह गयी है। यह हस्तक्षेप पंचायतों में महिलाओं की भूमिका को सीमित करने के साथ ही पंचायती राज के पावन उद्देश्यों को नष्ट करता है। एक अरसे से संसद में महिला आरक्षण को लेकर बहस जारी है। लेकिन विडंबना है कि अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका है। नतीजतन आज संसद और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। लोकसभा में कुल महिला सदस्यों की संख्या तकरीबन 79 है जो कुल सदस्यों के 15 फीसदी के आसपास है। इसी तरह राज्यसभा में महिलाओं की संख्या तकरीबन 25 है यानी 10 प्रतिशत। अच्छी बात यह है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में हुए विस्तार के बाद अब मंत्रिमंडल में कुल महिला मंत्रियों की संख्या तकरीबन एक दर्जन के आसपास पहुंच गयी है। पर विचार करें तो यह अभी भी पुरुषों के मुकाबले बहुत ही कम है। भारत के 28 राज्यों में वर्तमान में केवल पश्चिम बंगाल में एक महिला मुख्यमंत्री हैं। देश का एक भी राज्य ऐसा नहीं है जहां महिला मंत्रियों की संख्या एक तिहाई हो। 65 प्रतिशत राज्यों के मंत्रिमंडल में 10 प्रतिशत से कम महिला प्रतिनिधित्व है। यह स्थिति चिंतित करने के अलावा लोकतांत्रिक भारत में आधी आबादी के साथ लैंगिक भेदभाव को उजागर करता है। इन सबके बीच अच्छी बात यह कि भारत लैंगिक असमानता की खाई को तेजी से पाट रहा है। देश की आधी आबादी जीवन के विविध क्षेत्रों में अपनी सहभागिता का लोहा मनवा रही हैं। सदियों से गढ़ी-बुनी वर्जनाओं की खोल को धूल-धुसरित एक नए मूल्य और प्रतिमान को गढ़ रही हैं। योनि के कठघरे की परिधि से निकलकर अपने हक-हकूक की प्रस्तावना का इंकलाब कर रही हैं। हजारों साल से गढ़े-बुने गए समाज के एकध्रुवीय स्वरुप, चरित्र एवं चिंतन की दायरे का विस्तार कर रही हैं। वे स्वयं के मापने व परखने के पूर्वाग्रही सांचे व सोच को चकनाचूर कर पुरुषवादी कवच का विन्यास कर रही हैं। असमानता और अन्याय के खिलाफ तनकर खड़ा होने के नवाचारों का बीज रोप रही हैं। स्वयं के इतिहासपरक मूल्यांकन को रद्द कर नई व्याख्या को आयाम दे रही हैं। उनकी नई सोच और जीवन-मूल्य को अब समाज भी तेजी से आत्मसात कर रहा है। बदलाव के गुणसूत्र को मान्यता दे रहा है। बदलाव की इस सहज प्रतिध्वनि से असमानता की लौह-बेड़ियां स्वतः पिघल रही हैं। देर-सबेर लैंगिक असमानता की खाई का खत्म होना तय है।