डॉ अशोक रस्तोगी
मेले में लगी दुकानों का अवलोकन करते, दुकानदारों से वस्तुओं का मोलभाव करते,कंधे टकराती भीड़ के मध्य संभल-संभलकर चलते दिव्यांशी कब अपने भैया-भाभी से बिछड़ गई कुछ पता नहीं चल पाया? उन्हें ढूंढती-खोजती वह दुकानों के मध्य बने लंबे गलियारे को पार करती हुई खुले स्थान में पहुंची तो विद्युत चालित ऊंचे झूले को देख ठिठक गई…झूले में मां के समीप बैठा एक बच्चा भय के कारण चीख रहा था –”पापा! मुझे उतारो! बहुत डर लग रहा है।सुस्सु भी निकली जा रही है।”
“बेटे डरो मत! मैं अभी झूला रुकवाकर तुम्हें नीचे उतारता हूं।” दिव्यांशी की ओर पीठ किए खड़ा एक व्यक्ति जोर से चिल्लाया तो वह चौंक पड़ी…यह स्वर तो उसका जाना-पहचाना सा प्रतीत होता है…आंखों पर लगा मोटे लेंस वाला चश्मा ऊपर नीचे कर कनखियों से उसने उसे पहचानने का प्रयास किया…वही था…बिल्कुल वही…उसका परित्यक्त पति निरंजन…दस वर्षों के कालखंड में बिल्कुल भी तो नहीं बदला था…न चेहरे पर कोई सिलवट,न सिर का कोई बाल सफेद, बल्कि पहले से भी ज्यादा सुंदर व आकर्षक लग रहा था, रंग भी निखर गया था।
जबकि इन्हीं दस वर्षों में कालरथ ने उसकी देह पर अपनी यात्रा के पूरे चिह्न उभार दिए थे…केशों में सफेदी की चमकार, चेहरे पर झुर्रियां और झाइयां,गरदन पर सिलवटें, लटकती हुई सी त्वचा,ढीले पड़ चुके अंग- प्रत्यंग…अभी से ही वह वृद्धा सी लगने लगी थी…अब शेष ही क्या बचा था जीवन में?…एक बंजर धरती जैसा अनंत रेगिस्तान, जिसमें खुशियों की फसल तो बहुत दूर, एक नन्हा सा फूल भी नहीं खिल सकता था…एक ही भूल ने उसके कदमों को एक अनजान अंधविवर की ओर धकेल दिया था…जहां कोई लक्ष्य तक निर्धारित नहीं था।
वर्तमान को एक ही ठोकर में धूल की तरह उड़ाती हुई वह विगत के धुंए से भरे असीम आकाश में पंछी सी विचरती-विचरती निरंजन के उसी भव्य भवन में पहुंच गई जहां जीवन की ढेरों खुशियां उसके लिए पलक पांवड़े बिछाए बैठी थीं। पर वही अपने हृदयाकाश पर छाए अहं के कारण उपहार में मिलीं उन खुशियों को आत्मसात् करने में विफल रही……
निर्धन पिता के अभावग्रस्त परिवेश में पल्लवित-पुष्पित दिव्यांशी नवविवाहिता के रूप में डोली में बैठकर जब पिया घर पहुंची तो ससुराल का वैभव व ऐश्वर्य देखकर दंग रह गई। घर की दहलीज पर पांव धरते ही हर्ष से दुहरी हुई जा रही सास माता ने प्रथम मुखदर्शन की औपचारिकता में उसे स्वर्णाभूषणों से लाद दिया। और स्नेहसिक्त स्वर में बोली –’बहू! आज से यह घर तेरा,कोने-कोने पर तेरा अधिकार, इस भरे घर की मालकिन तू, जैसे चाहे वैसे रह! जैसे चाहे वैसे कर!’
ससुर भी भला कहां पीछे रहने वाले थे। हीरे जड़ित स्वर्णमाल उसके हाथों में थमाते हुए प्रेमपगे स्वर में बोले –’बेटी!यह घर न जाने कबसे एक गृहलक्ष्मी की राह तक रहा था। तुझ जैसा दामी हीरा हमें मिला तो समझो संसार का सारा वैभव, सारी खुशियां हमारे दामन में सिमट आई हैं। आग्रह बस यही है कि इस घर की सुख-शांति व मान-मर्यादा पर कोई आंच न आने पाए।’ कहते-कहते उनका कंठ भर्रा गया था।
रात्रि को उसने सुहागकक्ष में प्रवेश किया तो विभिन्न प्रकार के सुगंधित बहुवर्णीय पुष्पों व जलती बुझती विद्युत लड़ियों से जगमगाता इंद्रलोक देखकर उसे अपने भाग्य पर गर्व हो आया। निरंजन किसी याचक की भांति उसके पैरों में बैठ गया–’दिव्या! तुम जैसे मूल्यवान रत्नमणि को पाकर तो मुझे ऐसा लग रहा है जैसे अब और कुछ भी अभिलाष शेष नहीं। बस मुझे अपने दिल पर राज करने दो!’
‘अरे रे रे! यह क्या कर रहे हो?’ वह कुछ बौखला सी गई–’तुममें थोड़ा बहुत पौरुष है कि नहीं? पुरुष होकर इस तरह नारी के चरणों में बैठकर गिड़गिड़ाना क्या तुम्हें शोभा दे रहा है? राज क्या इस तरह कहीं भिक्षा में मिलता है? राज पौरुष से प्राप्त किया जाता है। मेरी मां ने मुझे यहां आते समय समझाया था कि ससुराल में अपना राज स्थापित करके रखना। हर व्यक्ति को अपनी मुट्ठी में कैद रखना। किसी को भी अपने ऊपर भारी मत पड़ने देना। यही आज के वातावरण में नारी के स्वाभिमान व अस्तित्व रक्षण का मूल मंत्र है।’
निरंजन का चेहरा कुछ फीका सा पड़ गया। हृदय में समुद्र की लहरों की तरह कुलांचे मार रही उमंगें-तरंगें धीमी पड़ गईं। कुछ कहने के लिए उसने मुंह खोला ही था कि दिव्या पुनः तपाक से बोल पड़ी–’मुझे तो ससुर जी भी जनाने ही लगे, बातों के धनी किंतु दौलत के लालची, उन्होंने घर की मान-मर्यादा तो मेरे हाथों में सौंप दी किंतु तिजोरी की चाबियां…? वह उन्हीं के पास रहेंगी। और सासमाता के लोभ का तो कहना ही क्या? मेरे सारे उपहार स्वयं समेटती जा रही हैं। है न इस घर की अद्भुत प्रथा। कहने को घर के कोने-कोने पर मेरा अधिकार पर हाथ में कुछ भी नहीं।’
अवसन्न रह गया निरंजन… क्या कोई पत्नी प्रथम मिलन की रात्रि को ही स्वार्थ व लोभपगे हृदयोद्गार प्रकट कर सकती है? जिसके सौंदर्य की तुलना वह शीतल चंद्र रश्मियों से कर रहा था वह सूर्य जैसा प्रचंड आग का गोला निकलेगी?… कितना अकल्पित था… नसों में उफनता ज्वार यकायक ही शांत पड़ गया। जैसे किसी ने सुलगते अंगारों पर ढेर सारा पानी उछाल दिया हो। फिर भी उसने बात संभालते हुए कहा–’दिव्या! आज तो हमारे मिलन की प्रथम रात्रि है न! तब हम अनर्गल बातों में क्यों इस सम्मिलन की अलौकिक आनंदानुभूति से वंचित रहें? इन राजपाट, लोभ लालच, अधिकार जैसी बातों के लिए तो बहुत लंबा जीवन पड़ा है।’
‘नहीं निरंजन!’ दिव्या ने उसके उस हाथ को झिड़क दिया जो उसके माथे की लट संवारते-संवारते आगे बढ़ रहा था–’मेरी मां ने कहा था कि यदि किसी वस्तु पर अधिकार पाना है तो प्रारंभ में ही आक्रामक शैली अपनाओ! कमजोर पड़ गए तो कभी उस अधिकार को न पा सकोगे।’
‘आखिर तुम चाहती क्या हो? सब कुछ स्पष्ट क्यों नहीं कर देतीं? पहेलियां सी क्यों बुझ रही हो?’ निरंजन का चेहरा फीका पड़ गया।
दिव्या के पतले गुलाबी अधरोष्ठों पर कुटिल मुस्कान उभर आई–’अब आए तुम काम की बात पर। मेरे सारे आभूषण मेरे अधिकार में दिए जाएं! और तुम्हारी मां के नाम पर जो कृषि फार्म है उसे मेरे नाम पर पंजीकृत कराया जाए! तभी मेरा समर्पण तुम्हारे प्रति… बस अब मुझे सोने दो!’
और वह सुहागशय्या के एक किनारे पर उसकी ओर पीठ करके लेट गई। दूसरे किनारे पर निरंजन लेट गया। जैसे बीच में कोई अपरिचित नदी बह रही हो। नींद नहीं आई तो शय्या के चारों ओर लटकी पुष्पमालाओं में से एक-एक पुष्प नोचकर उसने किरचा-किरचाकर हवा में उड़ाना प्रारंभ कर दिया। पूरी रात उसने इसी तरह अपने अरमानों को बिखरता देखने में व्यतीत कर दी।
घर के सभी सदस्यों तथा नाते-रिश्तेदारों के मध्य गहन मंत्रणा हुई। दिव्यांशी के माता-पिता को बुलाया गया। आते ही उन्होंने बिना किसी शिष्टाचार के चेतावनी दे डाली–’अपनी लाडली बिटिया को हमने बड़े ऐशो आराम में पाला है। यदि हमने उसकी आंख में एक भी आंसू देख लिया तो ध्यान रखिएगा! आपको चैन से नहीं बैठने देंगे। दहेज एक्ट में एक-एक को जेल की चक्की पिसवा देंगे।’
निरंजन को भूकंप का सा धक्का लगा। उसने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि पिता ने शांत रहने को विवश कर दिया–’हमारा क्या है हम तो डाली के पके फल हैं न जाने कब टूटकर गिर पड़ें? इस जमीन- जायदाद को हमें अपने साथ थोड़े ही ले जाना है। आज भी तुम्हारी, कल भी तुम्हारी। बहू की खुशी से ज्यादा हमें कुछ भी प्रिय नहीं। बहू जैसा चाहे हम वैसा करने को तैयार हैं।’
मंतव्य पूर्ण हुआ तो गरजती-उफनती नदी शांत भाव से अपने प्रवाह में बहने लगी।
निरंजन को लगा कि उसके जीवन की खुशियां बिखरते-बिखरते बची हैं। इसलिए वह एक-एक कदम बहुत सोच समझकर रखता। दिव्या की हर इच्छा पूर्ण करने का प्रयास करता। उसकी भावनाओं का सम्मान करता। उसके लिए वह माता-पिता से भी टकरा जाता। दिव्यांशी ने आग्रह किया तो उसने समूचे भवन को खंडित कर आधुनिक शैली में परिवर्तित करा दिया। वह खुश रहे इसके लिए उसने वैवाहिक वर्षगांठ पर उसे इनोवा कार भेंट कर दी। और अनेक पर्यटक स्थलों पर उसे भ्रमण कराने भी ले गया।
आमोद-प्रमोद भरे सतरंगी स्वप्न देखते-देखते जीवन के सर्वाधिक रोमांटिक यौवन काल की भरपूर आनंदानुभूति करते-करते पांच वर्षों का समय कब उन्मुक्त पंछी की तरह फुर्र हो गया दोनों को कुछ भी बोध नहीं हो पाया। बस दोनों अपने ही स्वच्छंद आकाश की उड़ान भरने में मदमस्त थे।
बूढ़े हृदयों में भी कुछ अरमान पल रहे होंगे दोनों में से किसी ने भी कभी इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता ही नहीं महसूस की थी। सास ने तो कई बार बहू को संकेत दिया भी था –’बहू मोहल्ले में जिनके विवाह तेरे बाद हुए हैं,सबकी गोदी में एक-एक, दो-दो खेल रहे हैं। तू भी किसी नामी गिरामी डाक्टरनी से अपना चैकअप करा इलाज करा लेती तो…’
परंतु दिव्यांशी उसकी बात पूर्ण होने से पूर्व ही बिफर पड़ती–’तो क्या करूं?आपका ज्यादा मन मचल रहा है तो आप भी उन्हीं के घर जाकर उन्हीं बालकों को खिला लो! मुझे अपना चैकअप कराने की क्या जरूरत है? मेरे भीतर कोई कमी नहीं, कमी होगी तो आपके बेटे में होगी। उसी का चैकअप कराने की जरूरत है।’
एक रात्रि को संवेदनशील पलों की ओर बढ़ते निरंजन ने भी उससे कहा था –’क्यों न हम दोनों ही अपने- अपने चैकअप करा लें, शंका मिट जाएगी।’
दिव्यांशी छिटककर दूर जा खड़ी हुई थी –’चैकअप कराने का इतना ही शौक है तो अपना कराओ! मुझे तो तुममें ही कमी महसूस होती है।’
पुरुषत्व पर वज्र प्रहार से निरंजन तिलमिला उठा। उसकी धैर्यशीलता चुक गई। दोनों ओर से वाक् प्रहार पर प्रहार प्रारंभ…भीषण वाक्युद्ध में क्रोधावेश में निरंजन का हाथ उठ गया…फिर क्या था दिव्यांशी की आंखों से निकले मोटे-मोटे अश्रुओं से मात्र चेहरा ही नहीं उसका दामन भी भीग गया। चीख-चीखकर उसने घर सिर पर उठा लिया। शांतिप्रिय वृद्ध श्वसुर का कोमल हृदय वह हंगामा सहन न कर सका। हृत्शूल प्रारंभ हुआ तो शनै:-शनै: बढ़ता गया…देह स्वेद से लथपथ। निरंजन को पता चला तो तत्काल अस्पताल लेकर भागा।
उधर भोर के प्रस्फुटन से पूर्व ही दिव्यांशी ने एक अटैची में अपने आभूषण व कुछ वस्त्र आदि भरकर मातृगृह की राह पकड़ी। स्वस्थ होकर श्वसुर अस्पताल से घर पहुंचे तो बहू को वापस घर बुलाने की जिद पकड़ ली। निरंजन तैयार न हुआ तो बहू के पितृगृह स्वयं ही जा पहुंचे। अनुरोध किया, मान मनुहार की। बेटे की गलती के लिए स्वयं क्षमा मांगी। टोपी बहू के पैरों में रखकर मान-सम्मान की भीख मांगी। तब कहीं पाषाणी हृदय कुछ पिघल सका। बहू वापस लौटने को तैयार हुई तो इस अनुबंध के साथ कि अपनी बहन की नन्हीं पुत्री को दत्तक रूप में साथ ले जाएगी तथा उसकी स्वेच्छाचारिता में कोई भी बाधक बनने की चेष्टा न करे।
दत्तक पुत्री के साथ वह ससुराल लौटी तो उस अनियंत्रित नदी के रूप में जो अपना स्वाभाविक पथ छोड़कर तटबंधीय सीमाएं तोड़कर इधर-उधर मचलने लगती है। तथा ध्वंस का कारण बनती है। पति की ओर से उसने निर्मम भाव अपना लिया था। बात-बात पर उसे अपमानित करना, उसका तिरस्कार करना, उसकी अवहेलना उसने अपना धर्म बना लिया था। जब देखो तब दत्तक पुत्री में खोई रहती या फोन पर न जाने किस-किस से लंबी-लंबी वार्त्ताओं में व्यस्त रहती। या उस नंदोई में रुचि लेती मिलती जिसने प्रथम भेंट में ही उपहार देते समय उसके कपोल पर हल्की सी थपकी लगा दी थी। उन दिनों नंदोई का घर में आना-जाना भी कुछ ज्यादा बढ़ गया था। और उसमें दिव्यांशी की रुचि भी ज्यादा बढ़ गई थी। बात कहीं ज्यादा आगे न बढ़ जाए निरंजन ने उसे बड़े धीमे,बड़े संतुलित शब्दों में समझाने का प्रयास किया था–’दिव्या तुम्हें अपनी मर्यादा का स्वयं ध्यान रखना चाहिए!’
दिव्यांशी ज्वालामुखी की तरह फट पड़ी– ‘चूहों के खानदानी! तेरे अपने वश का तो कुछ है नहीं। मैं यदि किसी से प्यार के दो शब्द बोल अपने मन को बहला लूं तो तुझे वह भी स्वीकार नहीं। मेरे सुखचैन के दुश्मन! तूने मुझे आज तक दी ही कौन सी खुशी है? जहां किसी को दो पल की आजादी भी नसीब न हो वहां अब एक पल भी रुककर मुझे अपनी व बेटी की जिंदगी बर्बाद नहीं करनी। अब मेरा फैसला अदालत करेगी।’
‘दिव्या सुनो तो! मेरी बात तो सुनो!’ निरंजन ने उसे मनाने का बहुत प्रयास किया, उसे रोकने की भरसक चेष्टा की। उसके पैर तक पकड़ लिए। किंतु दिव्यांशी को न रुकना था न रुकी। मानो वह इस घर से मुक्ति के लिए छटपटा रही थी और किसी अवसर की प्रतीक्षा में थी।
आंसुओं से भरा चेहरा, बिखरे केश और अस्त व्यस्त परिधान में पति द्वारा उपहार में मिली इनोवा कार से उतर दत्तक पुत्री की उंगली थामें दिव्यांशी ने पितृगृह के द्वार में प्रवेश किया तो सामना पिता से हुआ। पिता कब चाहते थे की बेटी ससुराल छोड़कर मायके में रहे? उन्होंने भी उसे समझाना चाहा–’बेटी! इस तरह छोटी-छोटी बातों पर लड़-झगड़कर बार-बार मायके आना भले घर की बहू-बेटियों को शोभा नहीं देता। विवाह के बाद बेटी का ज्यादा दिन मायके में रहना भार समझा जाता है। समाज के लोग तरह-तरह की उल्टी सीधी बातें बनाते हैं।’
किंतु मां बेटी के पक्ष में उतर आई थी–’जब तक मैं जिंदा हूं मेरी बेटी किसी पर कोई भार नहीं बनेगी। मेरी बेटी कभी किसी से न दबेगी न झुकेगी।’
बेटी ने भी बड़े दम्भ के साथ पापा को शांत रहने पर विवश कर दिया था–’आपकी बेटी ने अपने आधिपत्य में इतनी जमीन जायदाद, बाग, गाड़ी, आभूषण, नगदी कर ली है कि उसे किसी सहारे कोई आवश्यकता नहीं। पूरी जिंदगी ऐशो आराम से गुजरेगी।’
मां-बेटी के हठ के समक्ष पापा असहाय से परास्त हो गए थे तो भैया भाभी तिलमिलाकर रह गए थे।
निरंजन कई बार उसकी मान-मनुहार के लिए वहां आया। किंतु हर बार ही उसे दुत्कार मिली और मिला अपमान। थक हारकर उसे अपनी व्यथा को समाज के समक्ष रखने का निर्णय लेना पड़ा।
दिव्यांशी के घर पर ही पंचायत जुटी। निरंजन ने उसे लक्ष्य कर विनम्र स्वर में पूछा–’मुझे मेरा दोष तो बताया जाए! मैंने तुम्हें कौन सा सुख प्रदान नहीं किया? कौन सी खुशी तुम्हारे दामन में नहीं डाली? तुम्हारी हठधर्मिता पर मैंने अपने कृशकाय व बीमार माता-पिता का तिरस्कार किया। तुमने उस घर पर हर तरह से राज किया। उस घर में वह हुआ जो तुमने चाहा। फिर तुम क्यों वहां नहीं रहना चाहतीं?’
‘अरे जा-जा! तू ही किसी लायक होता तो मुझे वहां से इस तरह अपमानित होकर क्यों आने को मजबूर होना पड़ता?’ दिव्यांशी किसी परिपक्व मवाद भरे अर्बुद की तरह फूट पड़ी–’वह घर घर थोड़े ही है। वह तो साक्षात् नरक है, वहां इज्जत आबरू सुरक्षित ही कहां थी? तेरा यह बूढ़ा बाप कभी भी कपड़ों में मल त्याग कर लेता था और फिर मुझसे पानी व कपड़े मांगता था। इस नंगे आदमी को मुझसे कपड़े मांगते, मेरे सामने ऐसी घिनौनी हरकत करते हुए शरम नहीं आई? और तेरा यह आदमी की खाल में भेड़िया जैसा बहनोई… मुझ पर गंदी नजर रखता था। कभी मेरे गाल पर हाथ मारता था कभी मेरा हाथ पकड़ता था। देर-देर तक मुझे फोन पर वार्त्तालाप को बाध्य करता था। उपहारों से मुझे रिझाने का प्रयास करता था। मेरी ही गाड़ी में मुझे बाहर घुमाकर लाने का आग्रह करता था। मुझे जहर खाकर मर जाना स्वीकार है परंतु ऐसे गंदे जानवरों के बीच एक पल भी रहना स्वीकार नहीं। उस घर में आदमी नहीं जानवरों का बसेरा है।’
दिव्यांशी की मां ने भी निरंजन व उसके परिवार पर सत्य-असत्य का निर्णय किए बिना आरोपों की झड़ी लगा दी।
‘सारे आरोप गलतफहमी से ग्रसित हैं। फिर भी मैं अपने ऊपर आरोपित हर दोष के लिए क्षमा मांगता हूं।’ निरंजन ने हाथ जोड़कर स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया तो दिव्यांशी की अग्निकाष्ठ जैसी जीभ से लपलपाता शोला बाहर निकल आया– ‘चोप्प! अब अगर तूने एक भी शब्द मुंह से बाहर निकाला तो मेरा हाथ उठ जाएगा। मुझे पता है कि मैंने उस जानवरों के बाड़े में अब तक का समय किस प्रकार दम घोटकर गुजारा है। सोचती थी घर की आबरू बाहर न उछले, पर तुम लोग इस योग्य हो ही नहीं। तुम सब पर तो जूते के हार पड़ने चाहिए।’
निरंजन के वृद्धवयस, जर्जर व बीमार पिता ने पुत्रवधू के पैर पकड़ लिए–’बेटी जैसा तू चाहेगी वैसा हो जाएगा! यदि तुझे हमारे कारण कोई पीड़ा पहुंचती है तो हम वह घर छोड़कर कहीं और चले जाएंगे! पर बेटी हमारी इन उखड़ती सांसों को इस तरह वीरान न कर! हमारे घर की खुशियों को ग्रहण मत लगा! यह उस बूढ़े व लाचार पिता की अपनी बेटी से याचना है। तू हम सब का परित्याग मत कर बेटी!’
‘दूर हट! खूसट बूढ़े!’ दिव्यांशी ने ससुर को झिड़का तो कृशकाय देह पीपल के पत्ते की तरह कंपकंपाती हुई पीछे की ओर लुढ़क पड़ी।
दिव्यांशी की इस निष्ठुरता ने वहां उपस्थित हर किसी के हृदय को आक्रोशित कर दिया। सभी ने उसे अपने-अपने प्रभाव से समझाने की अनथक चेष्टा की। किंतु असफल रहे। वह तो एक ऐसा चिकना घड़ा बन गई थी जिस पर जल की किसी भी बूंद का कोई प्रभाव नहीं होता था।
अंततः पंचों ने परस्पर मंत्रणा के उपरांत अपना एकमत निर्णय सुना दिया–’क्योंकि दिव्यांशी स्वेच्छा से पति गृह का त्याग कर रही है, जबकि ससुराल पक्ष उसे स्वीकारने का अभिलाषी है। अतः उसका ससुराल की किसी भी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं रह जाता। इसलिए दिव्यांशी को चाहिए कि ससुराल की चल-अचल संपत्ति उन्हें सौंप दे। और ससुराल पक्ष को चाहिए की विवाह का खर्च ब्याज सहित बेटी के बाप को सौंप दे।’
‘नहीं! एक इंच भी नहीं! एक नन्हीं पाई भी नहीं! किसी जेवर का नन्हा सा टुकड़ा भी नहीं!’ दिव्यांशी घायल नागिन की भांति फुफकार उठी–’जो कुछ मेरे आधिपत्य में है कुछ भी नहीं दूंगी। गाड़ी भी मेरी है, वह भी मेरे पास ही रहेगी। सब कुछ अपने कौशल से प्राप्त किया है मैंने। यदि किसी ने इसमें बाधा पहुंचाने की कोशिश की तो वकीलों की फौज खड़ी कर दूंगी। थाना कचहरी तक को खरीद डालूंगी।’
न्यायप्रिय व प्रतिष्ठित पंच अपने इस अपमान भरे पराभव पर एक-एक कर उठकर चले गए। जबकि दिव्यांशी पक्ष के चाटुकार पंचों ने उसके निर्णय पर अपनी संस्तुति की मोहर लगा दी। निरंजन भी किसी हारे हुए योद्धा की तरह अपने परिजनों के साथ वापस लौट गया।
बंधनमुक्त होकर तो दिव्यांशी किसी स्वच्छंद पक्षी की तरह उन्मुक्त उड़ान भरने लगी। उस पर नियंत्रण तो किसी का रह ही नहीं गया था। विजयी दर्प में चूर यत्र-तत्र विचरण करती फिरती। अनर्गल बातें जब पिता के कानों तक पहुंचीं तो उनके मर्मस्थल पर घूंसा सा लगा। घर में घुसते ही वे बेटी पर बरस पड़े–’बेटी तू यह तो बता कि इस बुढ़ापे में कब तक हमारे सीने पर मूंग दलती रहेगी? समाज में हमारी नाक कटने को तैयार है। बहू- बेटियों का अल्हड़ तितली की तरह इधर-उधर मंडराना शोभा नहीं देता। तू कहे तो कहीं बात चलाकर देखूं? दो-तीन अच्छे खासे लड़के मेरी नजर में हैं। लेकिन हमेशा ध्यान रखना– नदी और नारी सर्वदा मर्यादा में बंधी ही अच्छी कहलाती हैं। नदी भी जब अपनी सीमाएं तोड़कर अनियंत्रित विकराल रूप धारण कर लेती है तो ध्वंस का कारण बनती है। तब कोई उसकी पूजा नहीं करता।’
किंतु मां हमेशा की तरह उनके विरोध में दीवार बनकर खड़ी हो गई–’जब तक मैं जिंदा हूं मेरी बेटी किसी के सीने पर बोझ नहीं बनेगी। इतने गए गुजरे नहीं हैं हम कि एक बेटी का भार न वहन कर सकें। उसे दो रोटी तक न खिला सकें।’
दिव्यांशी को दंभ भरा विश्वास था कि वह इतनी चल-अचल संपत्ति की स्वामिनी है जिसके अवलंबन से पूरा जीवन मनोनुकूल रूप से व्यतीत किया जा सकता है। किंतु वर्ष भर बीतते-बीतते जब उसके कदम यथार्थ के कठोर धरातल पर पड़े तो अपने किए पर भारी पश्चात्ताप होने लगा। कभी कामावेग से संपूर्ण देह में चिंगारियां सी सुलगने लगतीं तो कभी भैया-भाभी के विषाक्त तंज हृदय को गहराई तक वेध डालते। और पिता की मूक तटस्थता तो बिना कुछ कहे ही सब कुछ कह देती थी। तब स्मृतियों में निरंजन के साथ बिताया गया एक-एक पल ऐसे कौंधने लगता था जैसे कल की ही बात हो। एक-एक प्रक्रिया, एक-एक गतिविधि, एक-एक व्यवहार किसी चलचित्र की भांति अवचेतन में कभी भी उभरने लगता… बड़ी भारी भूल की उसने उससे विलग होकर… अपराध बोध की अग्नि नस-नस को झुलसा देने को उतारू हो उठती।
परंतु अब हो भी क्या सकता था धनुष से निकला शर व मुख से निकले शब्द कभी वापस लौटे हैं क्या? भरी सभा में अपमान किया था उसका। क्षमा मांगने तक का अधिकार खो चुकी थी वह। रात-रात भर शय्या पर औंधे मुंह लेटी सुबकती रहती। सुबह उठती तो सूजी लाल आंखें सारी व्यथा कथा उगल देतीं। मां लाड़ प्यार से कुछ पूछती तो उसके दामन में मुंह छिपाकर सुबक-सुबककर रो पड़ती। बेटी की पीड़ा से पिता की भी आंखें छलछला उठतीं। वे तो स्वयं परेशान थे कि इस कटी पतंग की डोर किन हाथों में सौंपी जाए? कई घरों में बात चलाई उन्होंने पर सब जगह से यही उत्तर मिलता कि जो लड़की इतनी अच्छी ससुराल को छोड़ आई वह और कहीं कैसे निभा सकेगी?
दो पुत्रियों का उद्योगपति पिता था वह विधुर… अधेड़ वयस, गहरा काला वर्ण, उबल पड़ने को आतुर मोटी-मोटी लाल आंखें, थुलथुली काया जब चलती तो लगता जैसे मदमस्त गजेंद्र चला जा रहा हो। पिता ने दिव्यांशी की बात चलाई तो पान चबाता हुआ बोला–’मेरी बेटियों को मां का सहारा मिल जाए बस मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए! लेकिन मेरी एक शर्त है– लाड़ चाव में पली-बढ़ी मेरी बेटियां किसी अन्य सौतेले भाई-बहन को स्वीकार न कर सकेंगी। अतः कोई पुछल्ला साथ न हो! बेटियों को कष्ट हुआ तो मेरी स्वर्गवासी पत्नी की आत्मा भी दुःख मानेगी।’
हतचित्त दिव्यांशी ने पिता के सुझाव पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी– ‘आप जो कुछ भी करेंगे मेरे भले के लिए ही करेंगे।’
बहुत रोई थी वह अपनी दत्तक पुत्री को उसी के परिवार को लौटाते हुए। परंतु विवशता में यह त्याग भी करना पड़ा था।
न कोई रस्मोरिवाज, न श्रृंगार, न शहनाई गीत, न धूमधाम, न उल्लास, न उत्साह… जैसे स्वच्छंद विचरण करती किसी गाय को किसी खूंठे से बांध दिया गया हो, वैसे ही दिव्यांशी उस भीमकाय उद्योगपति के साथ चली गई जो उससे आयु में भी काफी अधिक था और शारीरिक सौष्ठव में भी। किंतु परिस्थितियों की विडंबना में मनुष्य को वह स्वीकारना पड़ जाता है जिसके लिए उसका हृदय तैयार नहीं होता।
घर में घुसते ही उसे आभास हो गया था कि वह किसी मानव नहीं अपितु हिंस्र पशु के साथ बांध दी गई है। मद्य पीकर तो वह बिल्कुल ही हैवान हो जाता। मद्य की मादकता में उबली सी आंखें दहकते अंगार सी भयावह लगतीं। और मुख से निकलती दुर्गंध का भभका तो समीप रुकना मुश्किल कर देता। जब देखो तब वह उसे रुई की तरह धुन डालता, उसका पोर-पोर ऐसे दु:खने लगता जैसे मूसल से कूटा गया हो। भयभीत हिरणी सी वह दया की भीख मांगती रह जाती, किंतु वह लेशमात्र भी नहीं पसीजता। छोटी-छोटी बातों पर डांटना-फटकारना, बच्चों के सामने अपमानित और मारपीट करना उसके लिए सामान्य व्यवहार था। ऐसे नारकीय वातावरण में उसे एहसास हुआ कि निरंजन का घर तो स्वर्ग था जहां उसके लिए हर प्रकार की स्वच्छंदता थी। कोने-कोने पर उसका राज चलता था।
और जब उसे यह पता चला कि उद्योगपति के उद्योग पर तो लाखों का ऋण है तो भौचक रह गई वह। उसे लगा कि जो संपत्ति उसने कूटनीति का आश्रय ले निरंजन के परिवार से अधिकार पूर्वक छीनी थी वह इस राक्षस के हाथों में जाकर रहेगी। वही हुआ भी… उद्योग का ऋण चुकाने के नाम पर धीरे-धीरे उसकी सारी संपत्ति बेच दी गई। यहां तक कि उसकी गाड़ी व आभूषण तक भी राक्षस की बुभुक्षा की भेंट चढ़ गये।
वर्ष भर बीतते-बीतते दिव्यांशी निचुड़े नींबू की तरह पीताभ हो गई। गड्ढों में धंसी आंखें, कपोलों की उभरी हड्डियां, मांसलता तो ऐसे लुप्त हो गई थी जैसे इस अस्थि पंजर में यौवन का उभार कभी आया ही न हो। जीवन में न कोई उमंग शेष रह गई थी न उल्लास। मन भर गया तो राक्षस उसे उसी दहलीज पर छोड़ गया जहां से पुत्रियों की पोषिका के रूप में ले गया था। दिव्यांशी के पिता ने उसके पैरों में अपना सिर रख दिया–’जंवाई बाबू! मेरी बेटी को इस तरह मझधार में निराश्रित छोड़कर न जाओ!’
राक्षस ने विद्रूप में मुंह सिकोड़कर कहा–’यह बीमार औरत मेरे किस काम की? जब देखो तब कराहती रहती है।’ और ससुर के सिर को झिड़क तेज-तेज कदमों से घर से बाहर निकल गया। उन्होंने उसे रोकने की भरपूर चेष्टा की किंतु विफल रहे।
दिव्यांशी के अवचेतन में इसी घर में, इसी स्थान पर वर्षों पूर्व हुई उस सभा का दृश्य उभर आया जब निरंजन उसके सामने गिड़गिड़ा रहा था। ससुर ने भी उसके पैर पकड़कर खुशियों की भीख मांगी थी। लेकिन वह अपने पाषाणी निर्णय से लेशमात्र भी विचलित नहीं हुई थी।
तो क्या सतत प्रवाहशील समय उससे प्रतिशोध ले रहा था? एक बार पुनः वह कटी पतंग की तरह धरती पर आ गिरी थी… कुछ इस तरह कि उसका समूचा अस्तित्व किरचा-किरचा होकर बिखर गया… एक-एक अरमान चकनाचूर हो गया।
अपने यौवन काल में घरभर में अल्हड़ पुरवाई की तरह उछल कूद मचाने वाली दिव्यांशी एक ऐसे पाषाणी बुत में परिणत हो गई जो न हंसता था, न बोलता था, न क्रोध करता था, न लड़ता था, न झगड़ता था। बस सूनी- सूनी निर्जीव सी पथराई आंखें हर समय शून्य में न जाने क्या तलाश करती रहतीं? शायद बीते हुए अतीत के उन सुखद लम्हों को पहचानने का प्रयास कर रही हों जब निरंजन ने उसकी खुशियों के लिए अपनी संपूर्ण ऊर्जा लगा दी थी। पर वही उस ऊर्जा को पहचानने में असफल रही।
पिता का जर्जर हृदय बेटी की वेदना को ज्यादा दिन तक सहन नहीं कर पाया। असह्य भीषण हृदयाघात में इस नश्वर संसार से कूच कर गए। और मां पक्षाघात का शिकार होकर शय्याशाई होकर रह गई। बेटी की पीड़ा पर चुपचाप अश्रु बहाती रहती। सिर पर एक झीनी सी चादर भैया-भाभी के आश्रय की रह गई थी वही जब-तब उसे यत्र-तत्र भ्रमण पर ले जाते थे, ताकि वह पाषाणी बुत से मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण स्पंदन करते हृदय में परिणत हो सके……
झूला रुका तो बच्चा झूले से उतरकर दौड़ता हुआ सा आया और अपने पापा से लिपट गया…इसी के साथ दिव्यांशी विगत के धूल भरे असीम आकाश से उतरकर वर्तमान के कठोर धरातल पर उतर आई।
दिव्यांशी की दृष्टि बच्चे से फिसलकर उसके पीछे-पीछे तेज-तेज कदमों से चलती आ रही उस रूपसी अप्सरा सी युवती पर ठिठक गई जो शायद उसकी मां थी?… रंग इतना उजला, इतना श्वेत मानो स्पर्श करते ही मैला हो जाएगा। अंग-प्रत्यंग सांचे में ढला हुआ। सौम्यता व सादगी का अद्भुत सम्मिश्रण… वह असमंजस में पड़ गई, कौन हो सकती है वह? क्या निरंजन की वर्तमान पत्नी?… कहां से उड़ा लाया वह इस सौंदर्य मल्लिका को? उसके साथ खुश है अथवा विवशता में जिंदगी को बोझ समझकर ढो भर रही है?…
युवती उसके समीप से गुजरी तो दिव्यांशी ने उसे रोक लिया–’बहन जी जरा सुनिए तो! क्या वह आपके पति हैं? और क्या वह बच्चा भी आपका है?’
‘जी हां! वह मेरे पति हैं। और वह बच्चा भी हमारा ही है। लेकिन आपका प्रयोजन?’ युवती ने तपाक से पूछा।
‘मैं कुछ-कुछ उन्हें पहचान रही हूं।’ दिव्यांशी ने सकुचाते हुए कहा–’मैंने तो सुना था कि उनकी पत्नी उन्हें छोड़कर चली गई थी।’
‘मूर्ख थी वह, साथ-साथ अभागी भी। जो देवता स्वरूप ऐसे सुयोग्य पति को छोड़कर जाने का घृणित पाप कर बैठी। बेवकूफ न जाने कि नरक में धक्के खा रही होगी? सुख-शांति तो उसे कहीं मिलने से रही। मुझे देखिए! पिछले जन्म में न जाने कौन से सत्कर्म किए होंगे जो निरंजन जैसा पति मिला। आत्मा से कहती हूं बहन जी! यदि किसी को स्वर्ग देखना हो तो हमारे घर के दर्शन कर ले! मैं, मेरे पति और हमारा बच्चा! हमारा छोटा सा घर-संसार, सारे सुख और सारी खुशियां, बस और हमें चाहिए क्या?’ दिव्यांशी को वह ऐसे बता रही थी जैसे संसार की सर्वाधिक सुखी और संतृप्त नारी वही हो।
दिव्यांशी के हृदय में तूफान सा उठा और आंखों की राह बाहर छलक आया। साड़ी के पल्लू से उसने आंसुओं को रोकने की कोशिश की तो वह और भी वेग से बहने लगे। न जाने कब तक का संचित नीर था जो उसके पल्लू को भिगोता चला गया। शायद वह गहरे पश्चात्ताप का नीर था जो थमने का नाम न ले रहा था… उमड़े जा रहा था… बस उमड़े जा रहा था।
नीर थमा तो सहज होकर उसने आंखें खोलीं …सामने भैया और भाभी बदहवास से उसे ढूंढते चले आ रहे थे। जबकि युवती, निरंजन व उनका बच्चा मेले की भीड़ में न जाने कहां गुम हो चुके थे?
–अग्रवाल हाइट्स.राजनगर एक्सटेंशन.गाजियाबाद.उ.प्र.
मोबाइल –9411012039