लोक में गांधी के गीतों को गाती ‘चंदन तिवारी’

एक बार किसी ने महात्मा गांधी से पूछा कि क्या आपको संगीत से कोई लगाव नहीं है? गांधीजी ने उत्तर दिया कि यदि मुझमें संगीत न होता तो मैं अपने काम के इस भारी बोझ से मर गया होता। ज्यादातर लोगों की यह धारणा रही है कि महात्मा गांधी संगीत जैसी सभी कलाओं के खिलाफ थे जबकि सच्चाई यह है कि वह संगीत के बहुत बड़े प्रेमी थे। इस बात से हम सभी अवगत हैं कि 1857 से 1947 तक का समय आजादी की लड़ाई का मूल कालखंड है। इस दौर में गहरे सरोकार और व्यापक विस्तार के साथ लोकगीतों ने हथियार-औजार की भूमिका निभाई थी। उस दौर के लेखकों कवियों गायकों व कलाकारों ने पूरे जोश के साथ अपनी कला के माध्यम से आजादी की जंग लड़ी। कहा जा सकता है कि स्वाधीनता के लिए संघर्षरत समाज ने इन लोकगीतों को रचकर भारतीय आत्मसम्मान को झकझोरने और जगाने का काम किया। ऐसा ही एक विशेष गीत मैंने एनडीटीवी पर रवीश कुमार के प्राइम टाइम कार्यक्रम पर सुना। रसूल मियां द्वारा रचित इस गीत को चंदन तिवारी के सुर मिले थे। रोंगटे खड़े कर देने वाला चंदन तिवारी का स्वर। दरअसल यह पहली बार था जब मैंने चंदन तिवारी को सुना और उनसे प्रभावित होकर उनके गीतों के विषय में और जानने की उत्सुकता बढ़ी। रसूल मियां के बारे में यह कहा जाता है कि वह गांधी जी के कट्टर भक्त थे। ताउम्र वह गांधी के अभियान और उनके विचारों को दूर-दूर तक पहुंचाने में जुटे रहे। यह वह दौर था जब बापू चरखे को लोकप्रिय बनाने का आह्वान कर रहे थे। रसूल मियां भी अपने तरीके से उनके इस आह्वान को सफल अभियान में बदलने में लगे हुए थे। बिहार के गोपालगंज के रहने वाले रसूल मियां लोक कलाकार थे। थे। 30 जनवरी, 1948 को गांधीजी को गोली मारी गई थी उस दिन रसूल अपनी नाच मंडली के साथ नाटक खेलने कलकत्ता में थे। नाटक रद्द किए जाने की बात हुई तो दुख से टूटे हुए रसूल ने कहा कघ् िनाटक के जरिए ही बापू को श्रद्धांजलि दी जाएगी। दर्द में डूबे रसूल ने ऐसा अभिनय किया कि सब रो पड़े। उनका दर्द इन शब्दों में बाहर आया था। उस गीत की शुरुआती पंक्तियां कुछ इस प्रकार थी।
के हमरा गांधीजी के गोली मारल हो धमाधम तीन गो।
कल्हीये आजादी मिलल आज चललऽ गोली।
गांधी बाबा मारल गइले देहली के गली हो धमाधम तीन गो।
अपनी लोक गायकी से देश-दुनिया में ख्याति पा चुकीं गायिका चंदन तिवारी पिछले कई वर्षों से अपने गीतों के माध्यम से गांधी के संदेश और उनके विचारों को युवाओं तक पहुंचाने की कोशिश में लगी हैं। बिहार के भोजपुर जिला के बड़कागांव में जन्मी और झारखंड के बोकारो में पली-बढ़ी चंदन तिवारी आज लोक गायकी में किसी पहचान की मोहताज नहीं। चंदन देश के कोने कोने में भ्रमण कर गाने ढूंढ़ती हैं और उसे अपनी आवाज में पिरोती हैं। चंदन मूलतः आठ लोक भाषाओं में गायन करती हैं लेकिन उनकी विशेष पहचान बिहारी लोकभाषाओं और उसमें भी विशेष रूप से भोजपुरी लोकगायन से है। आज के दौर में जब भोजपुरी में अश्लील गीतों की भरमार नजर आती है। अश्लील गीत गाने वालों की बाढ़ सी आ गई है। यकीनन सभ्य भोजपुरी समाज के लिए चुनौती भरा समय है। ऐसे दौर में चंदन तिवारी एक ऐसा नाम है जो धारा के खिलाफ चलते हुए अपनी पहचान बनाने में सफल हो रही हैं। चंदन कई टीवी सिंगिंग शो और वेब सीरीज में भाग लेने के बाद स्वतंत्र गायिका के तौर पर ‘पुरबियातान’ नाम से अपना बैंड संचालित कर रही हैं। भोजपुरी की सबसे पुरानी संस्था पश्चिम बंग भोजपुरी परिषद ने उन्हे भोजपुरी कोकिला का उपनाम दिया है। वैसे तो चंदन विभिन्न विषयों पर गाती है पर एक सवाल अकसर चंदन को सुनने वालों के जहन में आता है कि आखिर उनके गांधी पर गीतों के गायन की शुरुआत कैसे हुई। किसी खास मौके पर चंदन ने अपना संस्मरण साझा करते हुए बताया कि करीब सात-आठ साल पहले की बात है जब उन्हें महाराष्ट्र के वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में छात्रों के बीच प्रस्तुति के लिए बुलाया था। मेरे मन में आया कि गांधी की भूमि पर जा रही हूं तो गांधी का कोई गीत लेकर जाऊं। उसी क्रम में कैलाश गौतम का लिखा हुआ एक गीत मिला मुझे जिसकी सीडी मैं तैयार कर ले गयी। वर्धा में गांही जी को समर्पित कर उस गीत की प्रस्तुति दी मैंने। लोगों को खूब पसंद आया। उसके बाद दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में एक शो के दौरान प्रसिद्ध गांधीवादी मुरारी शरण का गीत ‘नदिया धीरे बहो’ की सीडी का लोकार्पण प्रसिद्ध गांधीवादी पर्यावरणविद अनुपम मिश्र के हाथों होना था। उस गीत को सुनने के बाद जउन्होंने ही मुझे सबसे पहले कहा कि यह गीत तो बहुत अच्छा है तो अगर गांधी में रुचि है तो उन गीतों को खोजना शुरू करो जो किताबों में नहीं है बल्कि लोगों की स्मृति में है। अनुपमजी की बातों ने मुझे खासा प्रभावित किया। बिहार वापस लौटने पर मैं चंपारण गई। चंपारण गांधी के सत्याग्रह की भूमि है। उस वक्त चंपारण मे सत्याग्रह शताब्दी वर्ष की तैयारियां चल रही थी। मुझे वहां कुछ गीत मिले। चंपारण में ही एक कार्यक्रम में मैंने गांधी पर लिखे उन गीतों को गाया। इस बार भी लोगों ने खूब पसंद किया। तत्पश्चात तो मेरा मन इन गीतों में रमता चला गया। गांधी केवल एक भाषा तक सीमित नहीं रहे हैं। वह भोजपुरी, मैथिली, अवधि, मगही, गुजराती, राजस्थानी और ऐसी सभी लोकभाषाओं के गीत से जुड़े रहे। ऐसे में गीत गायन की तरह ही चंदन का जोर इस पर रहता है कि सभी गांधी को संगीत के जरिये समझे। यही कारण रहा कि चंदन ने गांधी कथागीत की शृंखला शुरू की। चंदन की खासियत यह है कि वह गांधी से जुड़े जो गीत सुनाती है उस गीत की कथा भी बताती है। उदाहरण के तौर पर अपने गीत की प्रस्तुति के दौरान वह यह बताने की कोशिश करती है कि गांधी ने जब चरखा आंदोलन चलाया तो र झूमर और विवाह गीत तक गांधी के रंग में रंगे। घर-घर आजादी के गीत गाए जाने लगे। चरखा, आत्मनिर्भर भारत का प्रतीक बन गया। स्त्रियां कह उठीं-
कातब चरखा, सजन तुहु कात,मिलही एहि से सुरजवा न हो।
पिया मत जा पुरूबवा के देसवा न हो।।
बिहार प्रवास के दौरान गांधी जी ने यहां की महिलाओं से आजादी की लड़ाई में सहयोग देने की अपील की। प्रभाव ऐसा रहा कि गांव की साधारण महिलाएं अपने जेवर गहने दान करने लगी। महिलाएं कोष जुटाने निकलीं पड़ी एक बड़ा मशहूर गीत है- सइयां बुलकी देबई, नथिया देबई, हार देबई ना।
पुरबिया उस्ताद महेंदर मिसिर ने भी आजादी की लड़ाई में गीत लिखकर लोगों को गोलबंद किया-
हमरा निको नाही लागेला गोरन के करनी।
रोपेया ले गइले पइसा ले गइले। ढाल के दे गइले हमनी के दुअन्नी।।
चंदन तिवारी अक्सर इन गीतों की प्रस्तुति देश विदेशों में देती रहती है।
गांधी पर लिखी गई गीतों की कड़ी में एक बड़ा नाम बिहार के सारण जिले के बाबू रघुवीर नारायण का है जो मूलतः अंग्रेजी के कवि थे। आजादी की लड़ाई के दौरान वे मातृभाषा की ओर लौटे और लोगों में स्वाभिमान जगाने के लिए बटोहिया गीत लिखा। ब्रिटिश हुकूमत के दौर में तत्कालीन गिरमिटिया मजदूरों को लालच में फंसा कर दूर देश ले जाया गया जहां से वह कभी वापस ना आ सके और वही के होकर रह गए। इन देशों में माॅरीशस सूरीनाम गुयाना फिजी जमैका जैसे देश शामिल है। गुलामी के दिनो मे इस गीत ने भारतीयों को हीन भावना से निकाल कर उनमें गर्व का भाव भरने का काम किया था। चंद महीनों पहले दिल्ली में आयोजित गिरमिटिया महोत्सव के मौके पर चंदन तिवारी द्वारा प्रस्तुत किए गए इस गीत की कुछ पंक्तियां मुझे आज भी रोमांचित कर जाती है-
सुंदर सुभूमि भैया भारत के देशवा से मोह प्राण बसे ही में मोह रे बटोहिया।।
उस दौर में शादी ब्याह के प्रसंग से आजादी के संघर्ष को जोड़ते हुए भोजपुरी समाज ने गांधी बाबा को दूल्हा तक बना दिया-
गांधी बाबा दुलहा बनलें, नेहरू बनलें सहबलियाभारतवासी बनलें बाराती। लंदन के नगरिया नाबान्हि के खद्दर के पगड़िया, गांधी ससुररिया चलले ना।।
चंदन तिवारी का मानना है कि गांधीजी को उनके संगीत की रुचि से जितना वह समझ पाई है उसके अनुसार गांधी दुनिया के इकलौते महापुरुष हुए जिन्होंने संगीत जगत को जितना प्रभावित किया शायद ही किसी और नेता ने किया हो। एक तरफ गांधी पर जहां फिल्मी गीतों की भरमार है वहीं हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत भी उनसे काफी प्रभावित हुआ। गांधी के दिन की शुरुआत भजन-प्रार्थना के साथ ही होता था। गांधी अक्सर कहा कहते थे कि जहां संगीत नहीं, वहां सामूहिकता नहीं, जहां सामूहिकता नहीं वहां सत्याग्रह नहीं। जहां सत्याग्रह नहीं वहां सुराज नहीं। गांधी और उनके गीत किसी एक भाषा में सीमित नहीं थे। भोजपुरी, मैथिली, अवधि, मगही, गुजराती, राजस्थानी और ऐसी सभी लोकभाषाओं के गीत से जुड़े रहे। गांधी से तो पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर, एम एस सुबुलक्ष्मी जैसे चोटी के कलाकार जुड़े रहे पर बिहार की चंदन की दिलचस्पी लोकगीतों में रही और शायद यही कारण रहा कि उन्होंने गांधी से जुड़े लोकगीतों में ज्यादा रुचि ली। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत की आजादी की लड़ाई में महिलाओं ने जैसी बहादुरी, संगठन और पहल दिखाई है, वह अद्भुत है। उस समय के लोकगीतों में भारत की नारी का प्रखर स्वर सुनाई देता है। रानी लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, अजीजनबाई बेगम हजरत महल ने यदि युद्ध के मैदान पर मोर्चा संभाला तो देश की आम नारी भी पीछे नही रहीं। महात्मा गांधी के आह्वान पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाती हुई वे गा उठीं-
मत लइहो चुनरिया हमार विदेसी ओ बालमा
है हुक्म गांधी का चरखा चलाइये
करो स्वदेसी पर तन मन वार।
चंदन तिवारी का मकसद इन गीतों के जरिये जनमानस को गांधी के और करीब लाना है। पिछले कई वर्षों से अधिक से अधिक स्कूल, काॅलेज में जाकर छात्रों और युवाओं के बीच गांधी यात्रा निकालकर गांधी गीत गाने की चाहत रखने वाली चंदन वास्तव में संगीत के जरिये गांधी और उनके विचारों को जन जन तक पहुंचाने के अनथक प्रयास में लगी है। मौजुदा समय में जो काम बड़े बड़े गांधीवादी नेता नही कर पा रहे है अपनी कला के माध्यम से चंदन वह काम बखूबी कर रही हैं।
चंदन तिवार को सम्मान – बिहार कला सम्मान, भोजपुरी कोकिला सम्मान, लक्ष्मीकांत मिश्र सम्मान आदि सममान प्राप्त हो चुके हैं।

निमिषा सिंह

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